अमित शाह के मंत्री बनते ही BJP अध्यक्ष का सवाल? दो विकल्प लेकिन कई चुनौती
अमित शाह का मोदी सरकार में मंत्री बनना लगभग तय है. लेकिन इस सूरत में अगर कोई बीजेपी की कमान संभालता है तो उसके लिए चुनौतियां जितनी बड़ी हैं काम करना उतना ही आसान भी हो सकता है - आखिर उसे अमित शाह के आजमाये नुस्खों पर अमल ही तो करना है.
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नरेंद्र मोदी सरकार में अमित शाह का मंत्री लगभग तय हो गया है. गुजरात बीजेपी अध्यक्ष जीतू वाघानी ने उन्हें अग्रिम बधाई भी दे दी है. गुरुवार शाम 7 बजे के बाद यह और भी साफ हो पाएगा. यानी तब जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी साथी मंत्रियों के साथ पद और गोपनीयता की शपथ ले लेंगे. दरअसल, अमित शाह के भी मंत्री बनने की चर्चा जोरों पर है.
फिर सवाल उठता है कि अमित शाह की जगह बीजेपी अध्यक्ष की कुर्सी पर कौन बैठेगा?
सवाल सिर्फ इतना होता कि अमित शाह के बाद अध्यक्ष कौन बनेगा तो मुश्किल नहीं होता.
सवाल तो ये है कि अमित शाह ने पांच साल में बीजेपी को जिस मुकाम पर पहुंचाया है, वैसा बेमिसाल प्रदर्शन क्या वो भी कर पाएगा जो अमित शाह वाली कुर्सी संभालेगा?
BJP अध्यक्ष बनने की कतार में और भी हैं!
अभी तक दो नाम हवा में तेजी से तैर भी रहे हैं - जेपी नड्डा और धर्मेंद्र प्रधान. जेपी नड्डा 2017 में हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री की रेस में भी आगे चल रहे थे. धर्मेंद्र प्रधान प्रधानमंत्री मोदी के भरोसेमंद लोगों में से माने जाते हैं और अभी अभी ओडिशा में बीजेपी के बेहतरीन प्रदर्शन के बाद अलग से धाक जमायी है.
ये दोनों ही वे नाम हैं जो प्रधानमंत्री मोदी की पसंद के हैं. तो ये भी मान कर चलना होगा कि ये अमित शाह को भी पसंद आएंगे. मुमकिन है किसी के प्रति थोड़ा बहुत रिजर्वेशन हो, लेकिन उससे खास फर्क नहीं पड़ने वाला.
मगर, जरूरी नहीं कि जो नाम प्रधानमंत्री मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह को पसंद हों, वो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, खासकर मोहन भागवत और भैयाजी जोशी के लिए भी पसंदीदा हो. ये सही है कि मोदी-शाह ने बीजेपी को जो जीत दिलायी है वो बेमिसाल है. ये संभव है कि नागपुर दरबार के लिए मोदी और शाह की बातों को टालना थोड़ा मुश्किल हो, लेकिन बाहर कोई कुछ भी कहे कि संघ और बीजेपी अलग अलग काम करते हैं - वीटो तो संघ के पास ही होता है.
जीत के लड्डू का जायका हर किसी के लिए मुमकिन नहीं होता
चुनाव से पहले की कुछ बातें बीजेपी की जीत से दब जरूर गयी हैं, लेकिन ऐसा भी नहीं कि हमेशा के लिए दफन हो गयी हैं. कुछ मामले या हो सकता है सरकार के कामकाज से ज्यादातर मामलों में संघ मोदी-शोह को छूट दे दे, लेकिन बीजेपी अध्यक्ष जैसे अति महत्वपूर्ण पद पर नियुक्ति से अपना हाथ खींच ले, कतई मुमकिन नहीं लगता.
2018 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी की हार के बाद नितिन गडकरी ने कई मौकों पर मोदी-शाह की जोड़ी को टारगेट किया था. वो इंकार जरूर करते रहे, लेकिन खबर ये भी रही कि परेशान बीजेपी नेतृत्व को नितिन गडकरी के पास पार्टी के एक सीनियर व्यक्ति को भेजा था - और दूत की ओर से नितिन गडकरी को समझाने के साथ साथ आगाह करने की भी कोशिश की गयी थी. मोदी-शाह की जोड़ी सवालों के घेरे में 2015 का बिहार चुनाव हारने के बाद भी आयी थी - तब दिल्ली के बाद बिहार चुनाव हार जाने पर मार्गदर्शक मंडल से आवाज उठी थी. हार के बाद मिली जीत विरोधियों के मुंह बंद कर देती, इसी फॉर्मूले पर चलते हुए मोदी-शाह आगे बढ़ते रहे.
NDA के बहुमत में नहीं आने की स्थिति में तो नितिन गडकरी को प्रधानमंत्री पद तक का दावेदार माना जाने लगा था - क्या संघ अब नितिन गडकरी को बीजेपी अध्यक्ष भी नहीं बनाना चाहेगा? नितिन गडकरी को अध्यक्ष की दूसरी पारी देने के लिए बीजेपी के संविधान में संशोधन तक कर दिया गया था. ये ठीक है कि नितिन गडकरी प्रधानमंत्री नहीं बने तो बीजेपी अध्यक्ष भी नहीं बन सकते? मोदी-शाह तो ऐसा कभी चाहेंगे नहीं, लेकिन क्या संघ भी मूकदर्शक बना रहेगा या दखल देने को मजबूर होगा?
2014 में जब अमित शाह बीजेपी अध्यक्ष बने तब राजनाथ सिंह का दो साल का कार्यकाल बचा हुआ था. राजनाथ सिंह के कैबिनेट में चले जाने के बाद अमित शाह ने अपना कार्यकाल शुरू करने से पहले राजनाथ सिंह का ही कार्यकाल पूरा किया था. वैसे 2014 में बीजेपी ने सत्ता पर कब्जा तो राजनाथ सिंह के ही नेतृत्व में किया था - चेहरा जरूर नरेंद्र मोदी रहे.
सिर्फ नितिन गडकरी और राजनाथ सिंह ही क्यों? आम चुनाव में ही बेहतरीन प्रदर्शन करने वाले क्षेत्रीय नेता भी तो अध्यक्ष पद के दावेदार हो सकते हैं. वसुंधरा राजे और शिवराज सिंह चौहान सरकार जरूर गवां बैठे लेकिन लगातार दूसरी बार लोक सभा की सीटें उठाकर बीजेपी की झोली में भर दी हैं. महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस, राम माधव, कैलाश विजयवर्गीय, महेंद्र नाथ पांडेय या भविष्य के एजेंडे के तहत योगी आदित्यनाथ जैसे नामों पर भी विचार संभव है.
अमित शाह जैसा प्रदर्शन तो बहुत ही मुश्किल है
नये दौर में बीजेपी अध्यक्ष की कुर्सी हद से ज्यादा महत्वपूर्ण हो गयी है. पार्टी का चेहरा और संगठन की कमान के हिसाब से बीजेपी में जोड़ी तो अटल आडवाणी की ही मशहूर रही है, लेकिन बीच के समय में सत्ता से बाहर होने के बाद अहम जोड़ी बन कर मोदी-शाह ही उभरे.
अमित शाह ने कदम कदम पर साबित किया है कि वो कभी 'शाइनिंग इंडिया' जैसे मुगालते में नहीं रहते - बल्कि छोटे से छोटे कार्यकर्ता को नाम से जानते हैं और 'दोस्त बोल रहा हूं' करके बात शुरू करते हैं. मोर्चे पर अमित शाह भी पहले से मौजूद पाये जाते हैं. जिसे काम थमाया है उससे भी पहले पहुंचे हुए होते हैं.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बगैर छुट्टी लिये और लगातार 18 घंटे काम करने की चर्चा खूब होती है, लेकिन अमित शाह भी तो बिना थके, बिना रुके और बिना झुके लगातार काम करते रहते हैं - जब तक दूसरे दलों के लोग स्टार प्रचारकों की नियुक्ति पर माथापच्ची कर रहे होते हैं, अमित शाह सारे इलाके खुद दो-दो बार घूम आये होते हैं.
अगर 2 सीटों वाली पार्टी को 182 में तब्दील करते हुए सत्ता के शिखर पर पहुंचाने के लिए अटल-आडवाणी की जोड़ी की चर्चा होती है, तो आगे आगे मोदी और पीछे पीछे चलते हुए शाह ने बीजेपी को पहले तो दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी बनायी फिर दोबार सत्ता में पहले के मुकाबले ज्यादा सीटों के साथ पहुंचाया. बीजेपी की ताजा जीत में पश्चिम बंगाल और ओडिशा में पार्टी की जीत के साथ साथ राहुल गांधी की अमेठी सीट पर हार भी शुमार है.
बतौर अध्यक्ष तो बीजेपी को सत्ता में पहुंचाने वालों में अमित शाह अकेले नहीं हैं, 1998 में लालकृष्ण आडवाणी और 2014 में राजनाथ सिंह को भी ये क्रेडिट मिला हुआ है - लेकिन देश के ज्यादातर राज्यों में बीजेपी या सहयोगी दलों के साथ मिल कर सरकार बनाना और MCD जैसे चुनावों को भी राष्ट्रीय महत्व का बना देना, बूथ लेवल कार्यकर्ताओं और पन्ना प्रमुखों तक को वोट मशीन में तब्दील कर लेना - ये सब तो अमित शाह के खाते में ही जुड़ा है. अमित शाह की जगह जो भी ले उसके लिए बीजेपी की मौजूदा स्थिति से ऊपर ले जाना तो बेहद मुश्किल काम होगा, लेकिन अगर वो यथास्थिति कायम करने में भी कामयाब हो जाता है तो बड़ी बाद होगी. अमित शाह ने अध्यक्ष के रूप में जो मानक स्थापित कर दिये हैं वो अपनेआप में मिसाल है - बल्कि कई मायनों में तो बेमिसाल भी है.
वैसे एक राय ये भी उभर रही है कि अमित शाह दिल्ली और पश्चिम बंगाल विधानसभा के चुनावों तक टस से मस नहीं होने वाले. जब तक अमित शाह पश्चिम बंगाल से ममता बनर्जी और दिल्ली से अरविंद केजरीवाल को सत्ता से बेदखल नहीं कर देते वो कहीं नहीं जाने वाले हैं.
फिर तो यही होगा कि न चुनाव खत्म होंगे न अमित शाह कुर्सी छोड़ पाएंगे. ऐसा तो होने से रहा. फिर तो बार बार बीजेपी को संविधान संशोधन भी करना पड़ेगा.
बीजेपी के नये अध्यक्ष के चुनौतियां चौतरफा हो सकती हैं, लेकिन काम करना बहुत मुश्किलों भरा नहीं होगा. अगर नया अध्यक्ष नये प्रयोग न भी करे और अमित शाह के आजमाये हुए नुस्खों पर ही सिर्फ अमल करता रहे तो प्रगति पथ पर उसके सामने निराश होने की नौबत नहीं आने वाली.
अमित शाह ने बीजेपी के स्वर्णिम काल की कल्पना की है. दुनिया भर के एक्सपर्ट तो बीजेपी के मौजूदा स्वरूप को ही गोल्डन पीरियड मानते हैं, लेकिन अमित शाह की भूख इससे नहीं मिटती. अमित शाह ने बीजेपी के स्वर्णिम काल के लिए 'पंचायत से पार्लियामेंट तक' का पैरामीटर तय किया है.
बीजेपी का नया नेतृत्व अगर ये टारगेट पूरा न भी कर पाये तो भी अगर पार्टी को लक्ष्य के करीब भी पहुंचा दे तो भी बड़ी बात ही समझी जाएगी. अमित शाह की जगह लेने वाले किसी भी बीजेपी नेता की पैमाइश ऐसे ही पैमानों पर होगी - और यही उसके लिए सबसे बड़ा चैलेंज भी होगा.
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