उदयपुर टेरर अटैक के बाद सचिन पायलट किसे चुनेंगे- हिंदुत्व या कांग्रेस?
सचिन पायलट की सियासी लकीर राजस्थान में अशोक गेहलोत के नाम के आगे नहीं बढ़ पा रही है. राहुल गांधी भी सिर्फ उनके धैर्य की तारीफ ही कर पा रहे हैं. सचिन पायलट को इस छटपटाहट से बाहर आने का मौका दिया है उदयपुर हत्याकांड ने. लेकिन ऐसा दिख रहा है कि कांग्रेस की तरफ से सबसे सख्त और जरूरी प्रतिक्रिया देने वाले सचिन पायलट पर चुप रहने का दबाव डाला गया है.
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राजस्थान के उदयपुर में आतंकी हमला हुआ और सरेआम देश के विरुद्ध ऐसे और हमलों के लिए प्रेरित किया गया. मामले को लेकर अब तक कांग्रेस सरकार का रवैया कुछ इस तरह है जैसे किसी कस्बे में 'चेन स्नेचिंग' की मामूली घटना हुई हो. उदयपुर मामले में कोई नजीर पेश करने में फेल हुई कांग्रेस और उसके वित्तपोषित अमले का रवैया हर लिहाज से शर्मनाक है. वह भी उस स्थिति में जब राजस्थान में लोगों की भीड़ दावत ए इस्लामी के दोनों आतंकियों को तमाम सुरक्षा दायरों से बाहर खींचकर, उन्हीं की भाषा में सरेआम न्याय दे देने पर आमादा है.
जयपुर समेत राजस्थान का कोई भी शहर, क़स्बा, गांव-देहात आज की तारीख में ऐसा नहीं दिख रहा जहां लोग ऐतिहासिक गुस्से से पागल हुए जा रहे हैं. असल में देखा जाए तो निर्दोष कन्हैयालाल जिस तरह 'भारत विरोधी पड़ोसियों' की वजह से मारा गया- भरोसा टूटने की वारदात से समूचा देश बौखलाया हुआ है. दुनिया भी हैरान है कि भारत कैसा देश है, यहां तो नदियां उल्टी बहने लगी हैं. राजस्थान में लोगों के सुरक्षा के वादे पर कांग्रेस सत्ता में काबिज में है- बावजूद कान में तेल डालकर सोई देखी जा सकती है. नेताओं समेत उसका पूरा इको सिस्टम लोगों के गुस्से से बेखबर कान में तेल डालकर सोया पड़ा है. मृतक को कंपनसेशन देने के अलावा एक भी ऐसी कवायद नहीं दिखी कि लोगों को भरोसा हो ये वही सरकार है जिसे उन्होंने बनाया था.
खुली आंखों दिख रही है उदयपुर पर कांग्रेस की नंगई
कांग्रेस चाहे जितना नैरेटिव गढ़ ले या परदे में ढांप ले, मगर हकीकत यही है कि एक उदयपुर की घटना ने उसके मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की अक्षमता को हर तरह से नंगा कर दिया है. कांग्रेस की समाज विरोधी सोच भी नंगी हो चुकी है. राहुल-प्रियंका से लेकर सचिन पायलट तक कोई एक नेता नहीं दिखता जो उदयपुर में टूटे भरोसे की बहाली के लिए किसी ठोस मास्टरप्लान के साथ लोगों से दोबारा संवाद बनाने की कोशिश करता दिखता हो. हां, सभी नेताओं की रस्मी प्रतिक्रियाएं जरूर देखने को मिली हैं. अशोक गहलोत की मजबूरी तो समझ में आती हैं कि उन्हें हर हाल में मुख्यमंत्री की कुर्सी चाहिए और इसके लिए चारों पायों को मजबूत बनाए रखने के लिए मुसलमानों के एकमुश्त वोट की जरूरत है.
सचिन पायलट और अशोक गहलोत.
कन्हैयालाल पर आतंकी हमले को लेकर सचिन पायलट की चुप्पी पर ज्यादा हैरानी होती है. युवा जोश से लबरेज दिखने वाले गहलोत के पूर्व डिप्टी सचिन पायलट भला कौन सी कुर्सी की मजबूरी में खामोश बैठे हैं? जबकि घटना सामने आने के बाद उनकी इकलौती प्रतिक्रिया है जो आम राजस्थानी गुस्से का नेतृत्व करता दिखा था. उन्होंने दो टूक कहा- ''इन लोगों (आतंकियों) की अमानवीयता की हदें पार हो चुकी हैं. कन्हैयालाल की हत्या को जिस तरीके अंजाम दिया गया है, इसने सबको स्तब्ध कर दिया. फास्टट्रैक कोर्ट के जरिए उन्हें ऐसी सजा दी जाए, जो पूरे देश के लिए उदाहरण बने. घटना के लिए जिम्मेदार लोगों और संगठनों की तलाश करें और उन्हें भी हमेशा के लिए खत्म करने की जरूरत है."
गहलोत पर नकेल कसने की बुद्धि और हिम्मत मासूम पायलट में तो नहीं है
इस बयान के बाद लगा था कि प्रदेश अध्यक्ष के रूप में कांग्रेस के प्रति भरोसा जीतने वाले सचिन पायलट ने शायद गहलोत और गांधी परिवार के दबाव में हथियार डाल दिया हो. या फिर वे अपने लोगों की सुरक्षा और जिम्मेदारियों का बोझ उठाने में सक्षम ही नहीं हैं. या फिर ऐसा भी हो सकता है कि पायलट में अपना भविष्य देख रहे राजस्थान के लोगों का अपने नेता पर कोई दबाव ही नहीं है. यह भी हो सकता है कि आम राजस्थानी को कन्हैयालाल की मौत से कोई फर्क नहीं और समाचार माध्यमों में गुस्से वाले सारे विजुअल फर्जी हैं. मोहम्मद जुबैर को बुलाकर इनका भी फैक्ट चेक करवाना चाहिए. अगर यह नहीं होता तो राजनीति में सक्रिय पायलट जैसे जनप्रिय और युवा नेता से ऐसी चुप्पी की उम्मीद तो नहीं थी. लगभग इसी तरह की हरकतों के बाद आजिज आकर महाराष्ट्र में एकनाथ शिंदे को उबल जाना पड़ा.
लगता है कि सचिन पायलट के पास राजनीति के लिए कोई योजना नहीं है. उन्हें वफादारी की लंगोट पहनकर बस चुनाव लड़ना आता है. और वे इस इंतज़ार में भी हैं कि किसी सोनिया मैम या मिस्टर राहुल गांधी की मेहरबानी से मुख्यमंत्री की कुर्सी मिल जाएगी. मिस्टर पायलट जिन वजहों से राहुल गांधी अमेठी में एक सीट नहीं जीत पा रहे भला वे आपको कोई कुर्सी क्या दिलवा पाएंगे? हैरानी यह भी होती है कि गहलोत को ठिकाने लगाने के लिए पायलट योजनाओं को खोजते रहते हैं. एकबार भाजपा के संग बगावत तक पर उतारू थे. उसी घटना के बाद कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष को "कैकेयी हठ" में डिप्टी सीएम का पद भी छोड़ना पड़ा था. तब से अब तक बिना जिम्मेदारी के ही पड़े हैं. उसपर पार्टी की योजना अगले विधानसभा चुनाव में उनकी क्षमताओं को फिर भुनाने की है. पिछली बार पायलट के प्रदेश अध्यक्ष रहते ही पार्टी भाजपा को हटाने में कामयाबी हुई थी.
हैरानी होती है कि उदयपुर की घटना के लिए गहलोत सरकार की गंभीरता, सांप्रदायिक विषयों पर पुलिस की मुस्तैदी और गृह विभाग की खुफिया चुस्ती सवालों के घेरे में है. राहुल को तो सबसे पहले गहलोत सरकार से ही पूछना चाहिए था कि जब राज्य में एक पर एक साम्प्रदायिक दंगे हो रहे थे तो भला किस वजह से कन्हैयालाल के मामले में पुलिस ने हल्के तौर में लिया? पार्टी को पूछना चाहिए कि जिन लोगों ने भरोसा जताते हुए राज्य की कमान हाथ में दी उनके भरोसे का इस तरह क़त्ल होता रहा और पार्टी ने कोई जवाबदारी नहीं दिखाई? राहुल पर देश के दूसरे राज्यों में अल्पसंख्यकों के मत का दबाव हो सकता है, भला यह सवाल सचिन पायलट ने क्यों नहीं पूछा? अगर चुनावी राजनीति में हैं तो सवाल को लेकर उनकी भी जिम्मेदारी है. उनके चेहरे और नेतृत्व के लिए भी तो राज्य के लोगों ने कांग्रेस को वोट किया था. यह जवाबदारी राहुल गांधी के कंधों पर नहीं है.
उदयपुर की घटना से समूचा देश हैरान है.
पायलट ने आतंकियों के लिए क्या मांग की थी और कांग्रेस जेहादियों को दे रही कवर फायर?
सुप्रीम कोर्ट भले कहे कि कन्हैयालाल की हत्या के लिए नुपुर शर्मा का बयान जिम्मेदार है, बावजूद ऐसी घटना कम से कम कांग्रेस के राज्य में तो नहीं दिखनी चाहिए थी. कांग्रेस के बयानों से भी लग रहा है कि सिर्फ नुपुर का बयान ही अहम वजह रहा. कायदे से गहलोत सरकार को तो और एहतियात दिखाकर मिसाल कायम करना चाहिए था. पायलट ने भी पहले दिन इसी मिसाल की मांग की थी. पर यह क्या हो रहा है? उदयपुर आतंकी हमले के जरिए उनकी पार्टी राजनीति के शतरंज की बिसात बिछाते दिख रही है. कन्हैयालाल की मौत के बाद यह साफ साफ दिख रहा कि कांग्रेस का समूचा इकोसिस्टम "जेहादी हत्यारों" को किसी ना किसी रूप में कवर फायर दे रहा है. घटना पर सवाल गहलोत की बजाए विपक्ष में बैठी भाजपा से पूछा जा रहा और जिम्मेदारी प्रधानमंत्री के कंधे पर डाली जा रही है.
चलिए, राहुल गांधी ना तो सवाल कर पा रहे और ना ही एक ट्वीट से आगे बढ़कर कन्हैयालाल के घर ही पहुंचने की हिम्मत दिखा पा रहे- मगर पायलट का चुप रहना परेशान करता है. क्या सच में सचिन पायलट अब वैसी स्थिति में नहीं हैं कि गहलोत पर उंगली उठा सकें. या फिर कांग्रेस में रहते हुए कोटा पूरा करने वाले बयान देने के अलावा उनकी हैसियत ही नहीं बची. कांग्रेस का अपना "गैंग" उदयपुर मामले में जिस तरह के ओछे नैरेटिव चला रहा उससे लोगों का गुस्सा दिनोंदिन भड़क रहा है. नुपुर शर्मा पर सुप्रीम कोर्ट की गैर जिम्मेदार टिप्पणी ने भी कांग्रेसजनों को बेसिरपैर की चीजों के लिए और उत्साहित किया है. सभी चीजें खुली आंखों से नजर आ रही हैं.
मासूम और नादान पायलट में गहलोत से वाजिब सवाल पूछने का भी साहस नहीं बचा अब
अब कन्हैयालाल की मौत के बहाने पूरे सीन पर जो सवाल मन में आ रहा- वह यही कि क्या कांग्रेस और राजस्थान में पार्टी की अगली कतार के नेताओं को जमीन से निकल रही प्रतिक्रियाओं का बिल्कुल भी अंदाजा नहीं है? वह भी उस स्थिति में जब कुछ महीनों बाद विधानसभा के चुनाव होंगे. पायलट ने तो लंबे वक्त तक संगठन का काम देखा, लग तो ऐसा ही रहा कि वे भी लोगों के गुस्से को नजरअंदाज करने की भूल कर रहे हैं. अब समझ में नहीं आता कि ऐसा क्यों है? जबकि कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व तक हिंदुत्व की राजनीतिक माला जपते नजर आए हैं पिछले कुछ महीनों में. शायद पायलट में गहलोत से वाजिब सवाल पूछने का भी साहस नहीं बचा. वे पार्टी के मंचों पर आउटडेटेड गहलोत से पूछे कि कन्हैयालाल की हत्या होने से पहले पुलिस, खुफिया एजेंसी और दूसरे सरकारी अमला क्या कर रहे थे? लेकिन उनके रुख से रुझान मिल रहे कि गेहलोत और कांग्रेस के रवैए का खामियाजा भुगतना चाहते हैं बस.
यह मजेदार ही है कि सत्ता और शक्ति में भले ही पायलट की हिस्सेदारी ना हो, लेकिन नुकसानदेह जवाबदारियों में कंधों पर दूसरों का पाप ढोने से कतराना नहीं चाहते. सिद्ध होता है कि पायलट अपनी सूरत की तरह "राजनीतिक सीरत" में भी एक मासूम और नादान बच्चे से ज्यादा कुछ नहीं हैं. अगर उनमें राजनीति समझ रही होती तो कम से कम पार्टी के आतंरिक ढाँचे में ही उदयपुर के मामले पर दहाड़ सुनाई देती. इससे कांग्रेस को भी भविष्य में कम से कम नुकसान झेलने पड़ते जो लगभग तय ही हैं. पार्टी का जो होता वो होता- पायलट एक पाप में ऐतिहासिक साझीदार बनने से बच जाते और भविष्य उन्हें स्टैंड लेने वाले नेता के तौर पर याद करता.
वक्त और समाज के दबाव को लेकर शिंदे से पायलट सीख सकते हैं बहुत कुछ
मगर शायद कड़वा सच यही है कि पायलट घटनाओं की गंभीरता पर ध्यान ही नहीं देना चाहते. ना तो पार्टी के अंदर और ना ही उसके दायरे से बाहर. जबकि हर क्षण एक वर्ग की धार्मिक गोलबंदी ने व्यापक लोगों के रातों की नींद हराम कर चुका है. महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे की सरकार एक वर्ग की धार्मिक गोलबंदी का जवाब देने के लिए ही गिरी. उद्धव के सहयोगी एकनाथ शिंदे ने आजिज आकर कुर्सी प्रेमी नेता की वफादारी की बजाए कार्यकर्ताओं, पार्टी और उसके मतदाताओं का पक्ष लेना ठीक समझा. वे एक ऐसी सरकार से बाहर आ गए, जिसे लेकर जनता में असहजता साफ़ दिखती रही है ढाई साल तक.
विचारधारा के नाम पर राजनीति करने वाली पार्टियों और उसके नेताओं की यह मजबूरी भी तो है. एकनाथ शिंदे और उनके साथ के विधायक बगावत नहीं करते तो भला महाराष्ट्र में उनके पास क्या बचता? जिन एनसीपी कांग्रेस के नातों को वे हराकर विधायक बने, चुनाव बाद सरकार बनने की स्थिति में वही हारे नेता सेना विधायकों से ज्यादा ताकतवर हो गए. चुनावी राजनीति में सक्रिय हर नेता का मकसद कम से कम अपने इलाके में ही अजेय होना रहता है. सेना के विधायकों को जब लगा कि इस स्थिति में अजेय रहना मुश्किल है- उन्होंने वही फैसला लिया जो उनके मतदाता समर्थक चाहते थे.
उदयपुर के बाद तो पायलट के सामने भी ऐसा ही सवाल आया है. राजस्थान में 30 साल का इतिहास रहा है कि किसी सरकार ने वापसी नहीं की है. उदयपुर जैसी घटनाओं के बाद कोई एक वजह नहीं दिखती कि गहलोत के चेहरे पर सरकार वापस ही आ जाए. कांग्रेस को पायलट के चेहरे की जरूरत होगी. पता नहीं राजस्थान का युवा नेता चिंतन कर भी रहा है या नहीं. जो भी कर रहा हो- उसके सामने सिर्फ दो ही विकल्प हैं. एक- वह कांग्रेस का विकल्प चुनकर राजस्थान का मुख्यमंत्री बनने के लिए कम से कम 6 साल इंतज़ार करे. अब गहलोत का जीतना असंभव है. दूसरा- वह हिंदुत्व चुने जो भारत के संदर्भ में समाज और समय दोनों की सबसे बड़ी मांग है. गहलोत के खिलाफ यही वक्त बढ़िया एक्शन का है. गहलोत मुख्यमंत्री रहने की योग्यता और लोगों का भरोसा गंवा चुके हैं. उन्हें भगाने के लिए इससे बेहतर कोई वक्त नहीं है.
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