कश्मीर फाइल्स का विरोध करने वाले केजरीवाल की सम्राट पृथ्वीराज पर चुप्पी के मायने क्या हैं?
सोशल मीडिया पर सम्राट पृथ्वीराज को लेकर वैस ही विरोध देखने को मिल रहा है जैसे द कश्मीर फाइल्स के लिए था. लेकिन हैरान करने वाली बात है कि बड़े नेता जिस तरह कश्मीर फाइल्स का विरोध कर रहे थे- सम्राट पृथ्वीराज चौहान का नाम लेने से बचते दिख रहे हैं. आइए जानते हैं कि इसकी वजह क्या है?
-
Total Shares
अक्षय कुमार की सम्राट पृथ्वीराज ने कुछ बड़ा किया हो या ना किया हो, लेकिन भारतीय भाषाओं में पहली बार एक ऐसी बहस की शुरुआत तो जरूर कर दी जिसमें दर्जनों भारतीय योद्धाओं के शौर्य की याद लोगों के जेहन में ताजा हो गई. हालांकि इस बहस में फिल्म के विरोध में कुछ कुछ वैसी ही राजनीति दिखी जो द कश्मीर फाइल्स के खिलाफ थी. बावजूद हैरान करने वाली बात यह भी है कि विवाद में बड़े चेहरे पृथ्वीराज चौहान पर टीका टिप्पणी करते नहीं दिखे. अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी के बड़े नेता भी लगभग चुप ही हैं. क्यों चुप हैं? आगे इस पर भी बात होगी.
उससे पहले फिल्म को लेकर जो बहस हो रही है उसमें दर्जनों योद्धाओं और आक्रमणकारियों से पहले भारत की समाज व्यवस्था को लेकर कई सवाल जिंदा हो गए हैं. सैकड़ों साल बाद भी लोगों की चेतना में उनके अपने योद्धा तो हैं, लेकिन उन्हें लेकर इतिहास में खामोशी है. क्यों है पता नहीं. चूंकि पृथ्वीराज को लेकर आजाद भारत में कोई व्यवस्थित काम ही नहीं हुआ, इस वजह से अब भी बहुत सारे भ्रम बरकरार ही हैं.
पृथ्वीराज के समकालीन दूसरे सेनापतियों योद्धाओं पर यह भ्रम और ज्यादा है. एक उदाहरण देखिए- जिस पर पक्ष विपक्ष में खूब बात हो रही है. पृथ्वीराज को आख़िरी सम्राट बताने पर आपत्तियां आ रही हैं. जबकि हुमायूं को हराकर दिल्ली पर जिस आख़िरी भारतीय वीर ने शासन किया वह सच में हेमू थे. हिंदू. और जितने भूभाग पर उन्होंने राज्य किया, उन्हें सम्राट कहने में हर्ज नहीं करना चाहिए.
सम्राट पृथ्वीराज.
आख़िरी सम्राट का ब्लंडर यहां से निकला था?
असल में इतिहास का यह बड़ा ब्लंडर अंग्रेजों की वजह से हुआ है. राजस्थान के इतिहास पर कर्नल जेम्स टॉड ने एक किताब लिखी थी- Annals and Antiquities of Rajasthan. जेम्स टॉड की इसी किताब में जोधाबाई को अकबर की पत्नी बताने का ब्लंडर हुआ था. इसी किताब में पृथ्वीराज को आख़िरी हिंदू सम्राट बताया गया है. जबकि ऐसा नहीं है. यहां तक कि दक्षिण में हिंदुओं का विशाल साम्राज्य मिलता है. मुगलों की मौजूदगी के बावजूद मराठे भारत के एक बड़े भूभाग पर राज करते दिखते हैं. यह अलग बात है कि उनकी सीमाएं समय के साथ कम या ज्यादा होती रही हैं. लेकिन इस सच्चाई को भी खारिज नहीं किया जा सकता कि कई बार उनके राज्य की सीमाएं इधर दिल्ली तक दिखती हैं, बंगाल की खाड़ी तक नजर आती हैं और तमिलनाडु को भी छूती देखी जा सकती हैं. नागपुर के भोंसले की राज्य सीमा देखी जा सकती है.
पृथ्वीराज के बहाने एक और सबसे बड़ा सवाल उस समय के समाज व्यवस्था को लेकर भी हो रहा है. क्या तब भी आज की तरह ही समाज में जाति व्यवस्था थी? क्योंकि पृथ्वीराज और उनके आसपास के राजाओं/लड़ाकों/सेनापतियों की जातियां देखते हैं तो एक अलग ही व्यवस्था नजर आती है. उस समय आज की तरह हिंदुओं की सैकड़ों उपजातियां या सरनेम नहीं थे. अकेले पृथ्वीराज से कम से कम एक दर्जन जातियां जुड़ी नजर आती हैं. ये हिंदू भी हैं और मुसलमान भी. आज की जाति व्यवस्था के आधार पर देखें तो उसमें राजपूत, ओबीसी और दलित तीन तरह की जातियां हैं.
खैर, पृथ्वीराज पर इतिहास के भ्रम अलग बात हैं. लेकिन देश का कोई बच्चा यह मानने को तैयार नहीं कि भारतीय इतिहास में कोई पृथ्वीराज थे ही नहीं जिन्होंने मोहम्मद गोरी जैसे दुष्ट आक्रमणकारी का सामना किया था. युद्धों में जय-पराजय बाद की बात है. लेकिन भारत के इतिहा में उनकी मौजूदगी समय के साथ हमेशा बनी रहेगी. शायद यही वजह है कि पंडित जवाहर लाल नेहरू की प्रतिष्ठित किताब "द डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया" में भी पृथ्वीराज का वही प्रसंग है- जो भारतीय चेतना में है और लगभग वही कथानक डॉ. चंद्र प्रकाश द्विवेदी की फिल्म का विषय भी है.
द कश्मीर फाइल्स पर टिप्पणी करते हुए अरविंद केजरीवाल.
पृथ्वीराज पर केजरीवाल की खामोशी के मायने कहीं ये तो नहीं है
पृथ्वीराज को लेकर क्या यही वजह है कि हर बात पर भाजपा के विरोध के लिए आमादा अलग-अलग दलों के धुर विरोधी नेता भी फिल्म के जरिए पृथ्वीराज चौहान का नाम लेने से बच रहे हैं? लग तो यही रहा है. द कश्मीर फाइल्स पर लगभग सभी विपक्षी नेता एक स्वर में भाजपा और फिल्म की आलोचना करते दिख रहे थे. सम्राट पृथ्वीराज के साथ ऐसा नहीं दिख रहा है. बड़े नेताओं ने तो उनका नाम तक नहीं लिया है. यहां तक कि दिल्ली विधानसभा में द कश्मीर फाइल्स की खिल्ली उड़ाने वाले मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने भी कोई बड़ी बात नहीं की है.
केजरीवाल को लेकर हैरानी इस वजह से भी है क्योंकि पॉपुलर डिबेट में कहीं ना कहीं आम आदमी पार्टी की टांग जरूर अड़ती है. भले ही उनका राजनीतिक हित अहित ना हो, बावजूद अब तक हर तरह की पॉपुलर डिबेट्स में केजरीवाल और उनके साथी एक मोर्चा बनाते दिखे हैं. पृथ्वीराज की डिबेट भी पॉपुलर है मगर, लग यही रहा है कि केजरीवाल एंड कंपनी ने पंडितों के मुद्दे पर 'कश्मीर किलिंग' पर फोकस बनाया है.
आम आदमी पार्टी के किसी और बड़े नेता ने भी पृथ्वीराज चौहान के नाम पर बवाल काटने की कोशिश नहीं की है. पृथ्वीराज चौहान पर आलोचना से बचने की कोशिश राजनीतिक है. आम जनता की भावनाएं ही उनसे इस कदर जुड़ी हुई हैं. ऐसा मानने में हर्ज नहीं करना चाहिए कि बड़े नेता उनके अनादर से बच रहे हैं. गुजरात दिल्ली हरियाणा राजस्थान और पश्चिम उत्तर प्रदेश में तो पृथ्वीराज चौहान के राजनीतिक मायने निकलते हैं. कई जातियां उनकी विरासत पर ऐतिहासिक दावा पेश करती हैं.
सोशल मीडिया पर भी विरोध करने वाले ऐतिहासिक तथ्यों और उनके विरोधाभास पर ज्यादा बात कर रहे हैं. कई तो यह भी कह रहे हैं कि पृथ्वीराज के दौर के दूसरे वीरों और चरित्रों का नाम फिल्म में क्यों नहीं? जबकि उनका सम्राट पृथ्वीराज के साथ ऐतिहासिक जुड़ाव है. उदाहरण के लिए बुंदेलखंड की लोकचेतना में जिंदा महान योद्धा आल्हा उदल का प्रसंग भी लिया जा सकता है.
आज भी आल्हा उदल की वीरता उत्तर भारत के गांव-गांव में जोश से गाए और सुने जाते हैं. आल्हा उदल के बारे में मशहूर है कि दोनों महोबा के वीर थे और पृथ्वीराज चौहान को भी हरा चुके थे. आल्हा उदल और पृथ्वीराज चौहान के गुरु गोरखनाथ थे. गुरुभाई थे दोनों. देश का दुर्भाग्य यह है कि जब इतिहास में पृथ्वीराज चैहान को ही वाजिब जगह नहीं मिली तो भला सेनापति के रूप में आल्हा उदल या मुगलों की भीड़ में हेमू को याद करने के लिए किसके पास वक्त है?
आपकी राय