BJP को नहीं मगर ब्रांड मोदी को PK की जरूरत क्यों आ पड़ी है?
प्रशांत किशोर 2019 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चुनाव प्रचार का हिस्सा होंगे, लेकिन बीजेपी को उनकी सेवाओं की जरूरत नहीं है. सवाल ये है कि क्या ब्रांड मोदी की साख कम हो रही है?
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खबर है प्रशांत किशोर की वापसी हो रही है, मगर शर्तों के साथ. नयी पारी में चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर सिर्फ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए ही काम करेंगे, बीजेपी के मामलों से कोई वास्ता नहीं होगा - यानी, अमित शाह के कामकाज में कोई दखलंदाजी नहीं होगी. मतलब ये कि शाह को नहीं, लेकिन मोदी को PK की महती जरूरत आ पड़ी है. लगता है गुजरात और कर्नाटक चुनावों के अनुभवों से 2019 के लिए यही सीख मिली है.
क्या ब्रांड मोदी मुश्किल में है?
संसद में राहुल गांधी की जादुई झप्पी की घटना की बीजेपी नेता अपने अपने तरीके से चर्चा कर रहे हैं. कुछ तो इतने गंदे तरीके से समझा रहे हैं कि ऐसा कहीं उनके साथ हुआ तो उन्हें बीवियों की नाराजगी झेलनी पड़ सकती हैं - और बड़ी ही बेशर्मी के साथ वो राहुल गांधी की इस हरकत को आईपीसी की धारा 377 तक से जोड़ने लगे हैं.
साख दाव पर!
मुंबई में लगे पोस्टर संकेत दे रहे हैं कि राहुल गांधी अब नफरत पर प्यार की जीत के जरिये अपनी गांधीगीरी मुहिम काफी आगे तक ले जाने वाले हैं. दिल्ली में तो कांग्रेस नेताओं ने फ्री-हग इवेंट भी आयोजित कर डाला है. क्या राहुल गांधी की ये मुहिम इतनी मारक हो चली है कि टीम मोदी को फिक्र होने लगे?
फिर तो राहुल गांधी का प्रधानमंत्री पद के लिए ममता बनर्जी और मायावती के नाम पर भी राजी हो जाना भी सत्ताधारी खेमे में चिंता का विषय समझा जाने लगा होगा. यूपी चुनाव के बाद गुजरात में बीजेपी की वापसी का क्रेडिट ब्रांड मोदी को ही दिया गया था. हालांकि, ब्रांड मोदी कर्नाटक में चूक गया.
क्या टीम मोदी को 2019 में गुजरात और कर्नाटक जैसी स्थिति की फिक्र होने लगी है? ऐसा लगता है टीम मोदी ऐसे ही सवालों से जूझ रही है - और इन्हीं आशंकाओं के चलते टीम मोदी में पीके यानी प्रशांत किशोर की वापसी की चर्चाएं गंभीर होती जा रही हैं.
लेकिन प्रशांत किशोर का कहना है, "अभी मैं भाजपा के साथ नहीं हूं. जब जुड़ुंगा तो छिपाऊंगा नहीं."
सर्वे तो पहले से ही चालू है...
हालांकि, दैनिक भास्कर ने अपनी रिपोर्ट में इस बात की पुष्टि की है. बीजेपी के एक सीनियर नेता के हवाले से रिपोर्ट बताती है कि प्रशांत किशोर पार्टी के साथ जुड़ चुके हैं, लेकिन आंध्र प्रदेश में वाईएसआर कांग्रेस के लिए काम करने की वजह से वो इसे खुलकर स्वीकार नहीं कर रहे हैं.
नीतीश कुमार के अलावा यूपी में राहुल गांधी और पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह की चुनाव मुहिम के बाद इसे पीके की घरवापसी कहा जाने लगा है. पर हकीकत कुछ और लग रही है - और ऐसा लगता है कि अमित शाह अब भी प्रशांत किशोर को अपने आस पास फटकने देने के मूड में नहीं है.
अमित शाह को पीके पंसद क्यों नहीं
हाल ही में जब प्रधानमंत्री मोदी से प्रशांत किशोर की मुलाकात की खबर आयी थी तो चर्चा ये भी रही कि अमित शाह के साथ गिले शिकवे दूर हो चुके हैं. हालांकि, ताजा चर्चाएं तो यही संकेत दे रही हैं कि प्रधानमंत्री मोदी के चलते शाह भले ही खामोशी अख्तियार कर लें, लेकिन अपने कामकाज में उन्हें पीके का हस्तक्षेप बिलकुल बर्दाश्त नहीं है.
शाह के पीके को पसंद नहीं करने की बात चार साल पुरानी हो चुकी है. फिर भी शाह का पीके के बारे में नजरिया बदला नहीं है. बस इस बात के लिए राजी हो पाये हैं कि भले ही पीके टीम मोदी का हिस्सा हो जायें, लेकिन बीजेपी के मामलों में दूर दूर तक उनकी कोई भूमिका नहीं होगी.
टीम मोदी को ज्वाइन करने से प्रशांत किशोर भले ही इंकार करें, लेकिन 'नेशनल एजेंडा फोरम' के तहत एक सर्वे की शुरुआत वो पहले ही कर चुके हैं. सर्वे में लोगों से पूछा जा रहा है कि वो अपने नेता के रूप में किसे पसंद कर रहे हैं?
किसी की भी दखल स्वीकार नहीं...
सर्वे में अब तक 36 फीसदी लोग प्रधानमंत्री मोदी को ही सबसे भरोसेमंद नेता बता रहे हैं. दूसरे नंबर पर राहुल गांधी चल रहे हैं जिन्हें 21 फीसदी लोगों ने पसंदीदा नेता बताया है. करीब 10 फीसदी लोग अरविंद केजरीवाल के नाम को भी 2019 के लिए सपोर्ट कर रहे हैं. सर्वे में ममता बनर्जी चौथे और नीतीश कुमार पांचवे पायदान पर चल रहे हैं.
14 अगस्त तक जारी इस सर्वे का रिजल्ट 15 अगस्त को घोषित किया जाएगा. बताते हैं कि जिस नेता को सबसे ज्यादा वोट मिलेंगे, नेशनल एजेंडा फोरम की टीम जाकर उस नेता से मुलाकात करेगी और उन मुद्दों के बारे में बताएगी, जिन्हें सर्वे में लोगों ने अहमियत दी है. साथ ही, गुजारिश ये भी होगी कि लोगों द्वारा महत्वपूर्ण बताये गये मुद्दों को वो अपने मैनिफेस्टो में शामिल करें.
सर्वे के मौजूदा हाल से देखें तो फोरम की टीम नरेंद्र मोदी से ही मुलाकात करेगी. अच्छा तो ये होगा की फोरम की टीम बाकी नेताओं भी मिलती और लोगों की राय से उन्हें अवगत कराती. सिर्फ मोदी ही नहीं, राहुल गांधी के साथ साथ ममता बनर्जी और नीतीश कुमार को भी मालूम होता कि लोग उनके बारे में क्या राय रखते हैं.
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