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Updated: 10 अगस्त, 2016 05:43 PM
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मुलायम सिंह यादव ने 2014 की हार पर हाल फिलहाल सार्वजनिक तौर पर दुख जताया है. मुलायम की समाजवादी पार्टी को महज पांच सीटें मिली थीं. ये भी सिर्फ वही सीटें थीं जिनमें से दो पर खुद मुलायम और बाकी तीन पर उनके परिवार के लोग मैदान में थे.

परिवार तो जीत गया मगर पार्टी हार गयी. मुलायम सिंह इसे अलग नजरिये से देखते हैं - 'इससे यह पता चलता है कि लोग इस परिवार पर भरोसा करते हैं.'

परिवार या पार्टी?

सिर्फ मुलायम ही नहीं, उसी यूपी में गांधी परिवार के प्रति भी लोगों का भरोसा दिखा. पूरे भारत से कांग्रेस के हाथ लगे फॉर्मूला-44 में दो सीटें गांधी परिवार की ही थीं - रायबरेली से सोनिया गांधी और अमेठी से राहुल गांधी.

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देश में जो हाल अब तक गांधी परिवार का रहा है - यूपी में अब भी मुलायम परिवार का है. ठीक वैसे ही जैसे बिहार में लालू परिवार का और पंजाब में बादल परिवार का. तमिलनाडु में करुणानिधि परिवार का भी वैसा ही हाल रहता अगर जयललिता ने तीन दशक पुराना रिकॉर्ड न तोड़ डाला होता.

वैसे मुलायम ने सच्चाई ही बयान की है - वैसे भी समाजवादी पार्टी किसी प्राइवेट लिमिटेड कंपनी की ही तरह है. खुद मुलायम लोक सभा में समाजवादी पार्टी के नेता हैं जिनके साथ उनकी बहू डिंपल यादव, भतीजे धर्मेंद्र और अक्षय यादव और पोते तेज प्रताप यादव पार्टी के सांसद हैं.

मुलायम के एक भाई रामगोपाल यादव राज्य सभा में पार्टी के नेता हैं तो दूसरे भाई उनके बेटे अखिलेश यादव की सरकार के सबसे असरदार कैबिनेट मंत्री हैं, जिन्हें लोग सीएम से कम नहीं मानते.

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राजनीति के पारिवारिक मूल्य

यूपी जैसा ही बिहार का भी हाल है. जब लालू प्रसाद के बच्चे छोटे थे तब जरूर उनके ससुराल पक्ष का दखल था लेकिन बच्चों के बड़े होने के साथ ही वे हाशिये से भी छिटक गये. परिवार से बाहर के पप्पू यादव ने अगर उठने की कोशिश की तो लालू ने साफ कर दिया कि वारिस तो बेटा ही होगा.

कानूनी वजहों से लालू चुनाव भले न लड़ सकें लेकिन छोटा बेटा डिप्टी सीएम तो बड़ा बेटा मंत्री है, बेटी राज्य सभा पहुंच चुकी है तो पत्नी राबड़ी देवी फिलहाल विधान परिषद में आरजेडी की नेता हैं.

तो क्या वाकई लोग परिवार पर इतना भरोसा करते हैं? आखिर इन परिवारों पर लोग इतना भरोसा क्यों करते हैं?

परिवार या लोकतंत्र?

आजादी की जंग में नेशनल हेरल्ड की भी अहम भूमिका रही लेकिन उसी से जुड़े एक मामले में गांधी परिवार को कोर्ट पहुंच कर हाजिरी लगानी पड़ी. घोटालों से घिरी मनमोहन सरकार के चलते चुनाव में सत्ता से बेदखल हो चुकी कांग्रेस के नेताओं पर अगस्टा वेस्टलैंड को लेकर जांच की नौबत आई तो पार्टी सड़क पर उतर आई - और इसे ‘लोकतंत्र पर हमला’ बताया जाने लगा.

2014 में बाप-बेटे और मां-बेटे की सरकार कह कर सरेआम मजाक उड़ाने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शायद ही कभी बादल परिवार का नाम लिया हो, आखिर वे उनके अलाएंस पार्टनर जो हैं. असल में तो वहीं बाप बेटे की सरकार है - प्रकाश सिंह बादल मुख्यमंत्री हैं तो सुखबीर बादल पंजाब के डिप्टी सीएम हैं. बादल की बहू यानी सुखबीर की पत्नी हरसिमरत कौर केंद्र की मोदी सरकार में मंत्री हैं.

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2014 में मोदी का निशाना परिवारवाद रहा तो 2015 में उन्होंने बेटी-बेटों को सेट करने की बात कह कर विवादों को हवा दी - और अब 2017 के लिए उन्होंने इसमें जातिवाद जोड़ दिया है. अब वो विकासवाद के नाम पर वोट मांग रहे हैं. गोरखपुर दौरे में मोदी ने लोगों को यही समझाने की कोशिश की.

'पारिवारिक मूल्य'

ऐसा क्यों है कि परिवार से इतर लोगों का भरोसा उठ जाता है. कांग्रेस का हालिया इतिहास तो इसकी मिसाल है. सोनिया गांधी के कमान संभालने से पहले कांग्रेस का जो हाल हुआ वो जगजाहिर है, सिर्फ पीवी नरसिम्हाराव के शासन को छोड़ कर - और राव के कार्यकाल को न तो सोनिया पसंद करती हैं, न कोई कांग्रेसी उस पर बात करने में इंटरेस्ट लेता है.

कांग्रेसी नेता भी तो गांधी परिवार के अलावा किसी को दिल से स्वीकार नहीं ही करते. एक तो हालात और दूसरे सीताराम केसरी की काबिलियत रही कि गांधी परिवार गांधी परिवार से बाहर का कोई कांग्रेस अध्यक्ष बन सका. वो दौर भी दो साल से ज्यादा नहीं चल सका. हालांकि, गांधी परिवार के नेतृत्व के विरोध में हुई बगावत में कांग्रेस पार्टी टूटी लेकिन बाद में वे भी सत्ता की भागीदारी में साथ हो गये.

आज भी हालत यही है कि कांग्रेस में गांधी परिवार के अलावा कोई लीड नहीं कर सकता. लीड की सोचना तो दूर शशि थरूर जैसे नेता अगर थोड़ा लीक से हट कर बोल देते हैं तो भरी सभा में क्लास लग जाती है. इनर सर्कल में भी उन्हीं का दबदबा है जो कांग्रेस के पुराने दरबारी नेताओं के वारिस हैं.

तो राजनीति में इन पारिवारिक मूल्यों में लोगों की आस्था की असल वजह क्या हो सकती है? क्या आजादी के 70 बरस बाद भी लोगों का एक वर्ग ऐसा है जो इन पारिवारिक मूल्यों में शाही सम्मान वाली आस्था रखता है? क्या लोगों की इसी आस्था को किसी न किसी बहाने भुनाया जाता है? मौजूदा दौर की सियासत में सबसे बड़ा बॉन्ड राजनीति के ये पारिवारिक मूल्य हैं? तो क्या इसकी कीमत भी चुकानी पड़ती है?

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