आडवाणी को क्यों लगता है कि देश में इमरजेंसी लग सकती है?
क्या मोदी की व्यक्तिपरक राजनीति उन्हें ऐसा मौका दे सकती है कि वो सब कुछ मुट्ठी में कर लें और देश में इमरजेंसी लगा दें?
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क्या देश में दोबारा इमरजेंसी लगने के आसार हैं? फिर लालकृष्ण आडवाणी को ऐसा क्यों लग रहा है? 40 साल पहले इमरजेंसी के दौरान आडवाणी को 19 महीने जेल में गुजारने पड़े थे. बाद में एनडीए सरकार में वो डिप्टी प्राइम मिनिस्टर भी रहे, लेकिन ये सवाल उनका पीछा नहीं छोड़ रहे, "1975-77 में आपातकाल के बाद के वर्षों में मैं नहीं सोचता कि ऐसा कुछ भी किया गया है, जिससे मैं आश्वस्त रहूं कि नागरिक स्वतंत्रता फिर से निलंबित या नष्ट नहीं की जाएगी. ऐसा कुछ भी नहीं है."
क्या सोशल मीडिया के इस वायरल दौर में भी ऐसा करना संभव है? क्या सरकार इतनी मजबूत हो सकती है कि देश में आपातकाल का दौर दोहराया जा सके?
इन सवालों के जवाब पूरी तरह नकारात्मक तो नहीं हैं, मगर ठीक से हां कहने में भी मुश्किल हो रही है. यही बातें आडवाणी को भी अब तक सालती रही होंगी.
एक इंटरव्यू में आडवाणी कहते हैं, "मैं आश्व स्त. नहीं हूं कि आपातकाल दोबारा नहीं लग सकता.''
वो अपनी बात को आगे बढ़ाते हैं, ''मुझे नहीं लगता कि कोई मुझे यह आश्वासन दे सकता है कि नागरिक अधिकारों को दोबारा से निलंबित या नष्ट नहीं किया जाएगा," और जोर देकर जोड़ते हैं, "बिल्कुल नहीं.''
आखिर आडवाणी को ऐसा क्यों लगता है?
क्या मोदी सरकार भी तब की इंदिरा सरकार जैसी ताकतवर हो सकती है कि देश में इमरजेंसी लागू कर दे?
क्या मोदी की व्यक्तिपरक राजनीति उन्हें ऐसा मौका दे सकती है कि वो सब कुछ मुट्ठी में कर लें और देश में इमरजेंसी लगा दें?
क्या देश में फिर से इमरजेंसी लागू करना इतना आसान है?
आडवाणी कहते हैं, "जाहिर है कोई भी इसे आसानी से नहीं कर सकता, लेकिन ऐसा फिर से नहीं हो सकता, मैं यह नहीं कह पाऊंगा. ऐसा फिर से हो सकता है कि मौलिक आजादी में कटौती कर दी जाए." यकीन करना मुश्किल हो रहा है.
भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकपाल की मांग को लेकर अन्ना के रामलीला आंदोलन से लोगों को काफी उम्मीद रही. ये उम्मीद रही कि लोग सड़क से लेकर सोशल मीडिया के तमाम प्लेटफॉर्म पर अति सक्रिय रहे. फिर अरविंद केजरीवाल ने जब राजनीति का रुख किया तो लोगों की उम्मीदें उफान लेने लगीं. दिल्ली की 70 में से 67 सीटें इस बात का सबूत हैं. लेकिन आडवाणी सिविल सोसायटी से सियासी फोरम के इस सफर से भी निराश नजर आते हैं. आडवाणी का कहना है, "सिविल सोसायटी में सजगता के प्रति हमने हाल में अन्ना हजारे के लोकपाल आंदोलन को देखा, लेकिन आशाओं से ऊपर उठने के बाद भी उसने निराश किया. उस आंदोलन की विफलता की वजह यह रही कि अगर कोई आंदोलन सरकार का रूप लेना चाहता है, तो वह सफल नहीं होगा."
इंदिरा गांधी और नरेंद्र मोदी
कई मामलों में इंदिरा गांधी और नरेंद्र मोदी के एटिट्यूड की तुलना की जाती है - और अप्रोच में काफी समानता बताई जाती है. मौजूदा राजनीतिक परिवेश में मोदी भी उतने ही मजबूत हैं जितनी कभी इंदिरा गांधी हुआ करती थीं.
इंदिरा की तरह ही मोदी ने खुद की शख्सियत को ऊंचा और चीजों पर पकड़ को मजबूत बनाया. मोदी किसी भी ऐसे नेता को खड़े नहीं होने देते जिससे उनको खतरा महसूस होता हो. संजय जोशी से बेहतर इसका कोई उदाहरण नहीं हो सकता. मुंबई में बीजेपी के अधिवेशन में वो तब तक नहीं पहुंचे थे जब तक संजय जोशी को पूरी तरह बाहर नहीं कर दिया गया. संजय जोशी के गुजरात जाने तक पर भी अरसे तक पाबंदी लगी रही.
मोदी के राजनीतिक चोटी पर चढ़ने के साइड इफेक्ट के सबसे बड़े शिकार तो खुद आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी ही हैं. मोदी के राज में या तो नेताओं के कद छोटे कर दिए गए या फिर उन्होंने खुद ही पैंतरा बदलते हुए उन्होंने मोदी को नेता मान लिया. कुछ बस खामोश हो गए. हालांकि, वो अब भी उसकी कीमत चुका रहे हैं.
अंतर्राष्ट्रीय जगत में इंदिरा की भी सख्त और लोकप्रिय नेता की पहचान रही और नरेंद्र मोदी की भी है.
इंदिरा और मोदी में लोगों को ये फर्क जरूर दिखता है कि मोदी अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा को बराक कह कर बुलाते हैं - और ओबामा अब भी उन्हें मोदी ही बोलते हैं. आडवाणी भी इन बातों पर तफसील से गौर फरमाए होंगे.
क्या फिर कोई संजय बन सकता है?
इमरजेंसी से कुछ पहले और बाद तक संजय गांधी, इंदिरा के दाहिने हाथ रहे. ठीक वैसे ही जैसे उनके पहले पीएन हक्सर और राजीव गांधी ने जिम्मेदारियां निभाई. अब ये संजय की पर्सनॉलिटी थी कि वो सबसे ज्यादा प्रभावी बन गए.
ये जरूरी नहीं कि संजय गांधी का रोल निभाने के लिए प्रधानमंत्री का बेटा होना ही चाहिए. वाजपेयी सरकार के दौरान भी ऐसे कुछ लोगों के सक्रिय होने की बात हुआ करती थी. इसके उलट यूपीए सरकार में व्यावहारिक तौर पर पावर सेंटर तो एक ही था, लेकिन तकनीकी तौर पर बंटा हुआ था. इसका फायदा ये होता है कि कोई एक सेंटर निरंकुश नहीं हो पाता.
अगर मौजूदा दौर में देखें तो अमित शाह और अरुण जेटली वैसे ही नजर आते हैं जैसे इंदिरा के लिए हक्सर, संजय और राजीव गांधी हुआ करते थे.
क्या इसमें राष्ट्रपति की भी भूमिका होगी?
सामान्य तौर पर देखें तो तब के राष्ट्रपति और अभी के राष्ट्रपति में संवैधानिक तौर पर कोई बदलाव नहीं हुआ है. फिर भी कई मौकों पर राष्ट्रपति की अपनी शख्सियत भी अहम हो जाती है. ज्ञानी जैल सिंह ने कुछ मौकों पर इसे महसूस भी किया. एपीजे अब्दुल कलाम ने कई मौकों पर सूफियाने ढंग से मैसेज कनवे करने की कोशिश की. मौजूदा राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी कांग्रेस के सबसे काबिल नेता रहे हैं और यूपीए के शासन में ही वो राष्ट्रपति भवन पहुंचे भी. एक खास मौके पर उन्होंने इस बात का अहसास भी कराया कि सरकार के संवैधानिक गार्जियन को हल्के में लेना ठीक नहीं होगा.
आम चुनाव से पहले प्रणब ने अपने भाषण में लोगों से लोक तंत्र को मजबूत करने की अपील की थी. उन्होंने लोगों से कहा कि वो वोट देकर देश में एक मजबूत सरकार बनाएं. जब भारी बहुमत लेकर नरेंद्र मोदी राष्ट्रपति से मिलने पहुंचे तो उन्होंने वैसे ही उनका गर्मजोशी से स्वागत भी किया.
फिलहाल देश के पास एक ऐसा काबिल राष्ट्रपति है जो हर हाल में देश में लोक तंत्र और नागरिक अधिकारों की रक्षा करेगा - जब तक कि उसे सियासी तिकड़मों के जरिए संवैधानिक तौर पर मजबूर न कर दिया जाए.
बंटवारा या इमरजेंसी?
क्या वो भारत-पाकिस्ताकन बंटवारे के मुकाबले इमरजेंसी के दौर को ज्यादा मुश्किल और कठिन दौर मानते हैं?
आडवाणी का जवाब है, ''दोष की वजह से. क्योंसकि विभाजन के लिए ब्रिटेन दोषी था, जबकि इमरजेंसी के लिए हम.''
क्या आडवाणी कॉलेजियम सिस्टम और नियुक्तियों के तरीकों के बहस में उलझी न्यायपालिका को उसकी अहमियत का अहसास कराना चाहते हैं?
क्या आडवाणी मीडिया को आसन्न संकट की स्थिति से बाखबर करना चाहते हैं?
या फिर, वो आडवाणी ये मसला उठाकर लोगों को संभावित खतरे के प्रति जागरुक करना चाहते हैं?
अब ये आडवाणी के मन की बात है या भीतरी टीस से उपजी भड़ास? इसका मकसद मोदी को सचेत करना है या सख्त संदेश देना? इसे अपने अपने तरीके से समझा और समझाया जा सकता है. सबसे बड़ा सच ये है कि आडवाणी ने एक सही वक्त पर एक बड़ा मसला उठाया है, जिसे गहराई से सोचने, संजीदगी से समझने और उस पर गंभीर बहस करने की जरूरत है. यही पब्लिक इंटरेस्ट में है और लोकतंत्र के हित में भी.
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