कर्नाटक के बागी विधायकों को 'इस्तीफे' और 'अयोग्यता' में से पहला विकल्प प्यारा क्यों?
कर्नाटक के बागी विधायक इस्तीफा देने पर अड़े हैं. वे किसी भी कीमत नहीं चाहते कि उन्हें अयोग्य ठहराया जाए. जब सदस्यता दोनों ही स्थितियों में जानी है तो इस्तीफा देने में क्या फायदा है और अयोग्य होने में क्या नुकसान है?
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कर्नाटक में कांग्रेस और जेडीएस के बागी विधायकों ने विधानसभा से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक पूरा जोर लगा दिया कि उनका इस्तीफा ही मंजूर हो. किसी भी कीमत पर उन्हें अयोग्य नहीं ठहराया जाए. जब सदस्यता दोनों ही स्थितियों में जानी है तो क्या फर्क पड़ रहा है उन पर? क्यों जान झोंक रखी है उन्होंने कि भाई इस्तीफा ही मंजूर कर लें स्पीकर.. और सरकार के साथ साथ स्पीकर भी इसी जुगत में लगे हैं कि अयोग्य ठहरा कर टंटा ही खत्म कर दिया जाए.
विधायकों ने कानून की तलवार का सहारा लिया है तो स्पीकर ने भी नियमों की ढाल सामने कर रखी है. उनका कहना है कि संविधान की दसवीं अनुसूची में स्पीकर की शक्तियों, अधिकारों और मर्यादा के साथ साथ कार्य करने की प्रक्रिया का पूरा विस्तार से जिक्र है. इसके मुताबिक कोई भी विधायक इस्तीफा दे तो उसे मंजूर करने से पहले स्पीकर को ये जानकर अपनी तसल्ली कर लेनी चाहिए कि इस्तीफा किसी दबाव, प्रभाव, लोभ लालच या सियासी सौदेबाजी के लिए तो नही दिया जा रहा. और इस तसल्लीबख्श जांच पड़ताल में वक्त तो लगता ही है. लिहाजा कोर्ट की ओर से बताए गये समय मर्यादा में ये नहीं हो सकता. देर तो लगेगी.
कर्नाटक के बागी कांग्रेस विधायकों ने इस्तीफा देते हुए आर-पार की लड़ाई छेड़ दी है.
बागी विधायकों का कहना है कि ये सब गलत है. स्पीकर साहब का असली मकसद तो किसी भी तरह हमें घेरकर अयोग्य ठहराना है. ये तो हमारी कुर्सी की आस भी खत्म करना चाहते हैं.
ये तो तय है कि विधायकी की कुर्सी इस झंझट की वजह नहीं है. तो असली वजह क्या है...
दरअसल इस सियासी दांव के कानूनी पेंच की असलियत है मंत्री पद. सियासत के घामड़ ये बता रहे हैं कि दलबदल निरोधक कानून और विधानमंडल कार्यप्रक्रिया नियमावली के मुताबिक जिस दल के टिकट पर चुनाव जीत कर विधायक या सांसद माननीय बने हैं उस दल के व्हिप और नियम सदन में मानने पड़ेंगे. दलबदल कानून के बावजूद कोई विधायक या सांसद बगावत कर इस्तीफा दे तो उसकी सदस्यता तो जाएगी ही. फिर चाहे वो दूसरी पार्टी ज्वाइन करे या नहीं विधायकी तो गई.
पेंच तो अयोग्य़ घोषित करने पर ही फंसा है. क्योंकि दलबदल कानून के तहत विधायक को अयोग्य घोषित किया जाय तो फिर उसे चुनाव जीतकर ही दोबारा योग्यता सिद्ध करनी होगी. अभी भी हम बता रहे हैं कि बागी विधायकों की ये समस्या तो है ही नहीं.
असली समस्या तो कुमारस्वामी की सरकार गिरने के बाद अगली सरकार में मंत्री पद को लेकर है. क्योंकि अगर विधायकी गई तो कोई बात नहीं अगली सरकार में मंत्री पद तो मिल ही जाएगा. चुनाव तो छह महीने के भीतर लड़ना है ना. वो भी देख लेंगे. अयोग्य घोषित होने के बाद तो पहले चुनाव जीतकर आओ फिर मंत्री पद पाओ. और इस्तीफा देकर विधायकी गंवाने के बाद तो मंत्री बनने में कोई अड़चन है ही नहीं. बगावत भी तो मंत्री पद के लिए ही की है. यहां एक पल का इंतजार बर्दाश्त नहीं उधर कानून है कि छह महीने या फिर चुनाव जीतने की बात कह रहा है. हुंह! कौन पड़ेगा इस पचड़े में.. मंत्री बनने के बाद चुनाव जीतना आसान रहता है. लेकिन विधायकी गंवा कर उसी इलाके से फिर जनता के बीच जाना और विरोधियों के इस आरोप से पार पाना और भी दर्दनाक कि `अरे ये तो पद का लालची है. जनता के खून पसीने की कमाई लुटवा कर फिर से चुनाव में झोंक रहा है.' मंत्री बनने के बाद तो सारे दूषण भूषण बन जाते हैं. समरथ के नहीं दोष गुसाईं. अब पहले समरथ बन जाएं फिर चुनावी रथ पर चढ़ें.
सुप्रीम कोर्ट में तो मुख्यमंत्री कुमारस्वामी भी बोल पड़े कि इस्तीफा देने वालों में से कई पर तो भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप हैं. ये तो इसलिए ही पाला बदल रहे हैं कि अपने खिलाफ चल रही जांच पर विराम लग जाए. ये तो उससे बचना चाहते हैं.
तो सारे टंटे की जड़ यही मंत्री की कुर्सी है जिसकी गूंज सुप्रीम कोर्ट तक में दीख रही है.
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