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Updated: 28 अगस्त, 2018 11:25 AM
अनुज मौर्या
अनुज मौर्या
  @anujkumarmaurya87
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केरल में बाढ़ का पानी अभी उतरा भी नहीं, लेकिन राहत के नाम पर राजनीति करने वालों का पारा सातवें आसमान पर चढ़ा हुआ है. केंद्र और राज्‍य सरकार के बीच राहत राशि को लेकर कोई तनाव नहीं है, लेकिन सोशल मीडिया पर सक्रिय लोगों को भयंकर आपत्तियां हैं. शुरुआत हुई 500 करोड़ रुपए की उस राहत राशि से, जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अंतरिम राहत के रूप में जारी किया. सोशल मीडिया के शूरवीरों ने इस पर मोर्चा संभाल लिया कि इतना काफी नहीं है. इस बीच संयुक्‍त अरब अमीरात (UAE) ने 700 करोड़ रुपए की पेशकश तो इस पर बहस का फिर मौका मिल गया. केंद्रीय मंत्री केजे अलफांस ने जब इस विदेशी सहायता के बारे में कह दिया कि इसे केंद्र सरकार की इजाजत के बाद ही स्‍वीकार किया जा सकता है, तो बवाल ही मच गया.

 

केरल बाढ़, मोदी सरकार, संयुक्त अरब अमीरातपीएम मोदी ने केरल बाढ़ के लिए 500 करोड़ रुपए की सहायता की घोषणा की थी.

ट्विटर पर और भी कई वामपंथी इसी ओर इशारा कर रहे हैं कि मुश्किल की घड़ी में मोदी सरकार विदेशी मदद क्‍यों ठुकरा रही है.

क्या है वो पॉलिसी, जिसका हवाला दिया जा रहा है?

यहां पर सबसे जरूरी है ये जानना कि आखिर उस पॉलिसी में ऐसा क्या है, जिसका हवाला देते हुए भारत ने 700 करोड़ रुपए की विदेशी सहायता को ठुकरा दिया है. ये पॉलिसी 2004 में आई सुनामी के बाद बनाई गई थी, जिसमें तमिलनाडु के तटीय इलाके और अंडमान और निकोबार द्वीप समूह को भारी नुकसान पहुंचा था. इसमें करीब 12,000 लोगों की मौत हो गई थी और करीब 6 लाख लोग बेघर हो गए थे. इससे पहले तक सरकार विदेशी मदद लिया करती थी. भले ही वह 1991 में उत्तरकाशी में आया भूकंप हो, 1993 में लातूर में आया भूकंप हो, गुजरात का 2001 का खतरनाक भूकंप हो, बंगाल में 2002 में आया चक्रवात हो या फिर 2004 में बिहार में आई बाढ़ हो.

2004 में विदेशी सहायता न लेने के पीछे सरकार का तर्क था कि भारत के पास इतना क्षमता और संसाधन हैं कि वह किसी भी आपदा से बिना विदेशी सहायता लिए ही निपट सकता है. वहीं दूसरी ओर इस पॉलिसी के बनाने का एक राजनीतिक कारण भी था. अगर भारत किसी एक देश से सहायता लेता है और दूसरे को मना करता है तो इससे आपसी रिश्ते खराब होने की चिंता थी, जिसके चलते इस पॉलिसी को बनाया गया. ऐसा भी नहीं है कि भारत ने पहली बार किसी विदेशी सहायता को ठुकराया है. पिछले 14 सालों में भारत ने रूस, अमेरिका और जापान की तरफ से 2013 में उत्तराखंड में आई तबाही में दी जा रही मदद को ठुकराया है. इसके अलावा 2005 में कश्मीर में आए भूकंप और 2014 में कश्मीर में आई बाढ़ में भी भारत सरकार विदेशी सहायता को ठुकरा चुकी है.

यूएई क्यों करना चहता है इतनी बड़ी मदद?

विदेशों में जितने केरल के लोग काम करते हैं, उनमें से करीब 80 फीसदी सिर्फ खाड़ी देशों में हैं. यूएई सरकार का तर्क है कि जिन लोगों की बदौलत उनके देश की इकोनॉमी तेजी से बढ़ रही है, वह उनके जन्मस्थान में आई तबाही के लिए मदद करना चाहती है.

अभी तक केरल बाढ़ पीड़ितों के लिए हरियाणा, पंजाब, आंध्र प्रदेश, बिहार और दिल्ली की सरकार 10-10 करोड़ रुपए की सहायता दे चुकी है. इनके अलावा तेलंगाना सरकार ने 25 करोड़ रुपए की आर्थिक सहायता की घोषणा की है. वहीं देशभर के एनजीओ और पेटीएम जैसी वॉलेट कंपनियां भी लोगों से दान लेकर केरल बाढ़ पीड़ितों की मदद में भागीदारी कर रही हैं. इन सबके अवाला स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने भी सीएम डिस्ट्रेस रिलीफ फंड में 2 करोड़ रुपए दान किए हैं. मालदीव की सरकार ने भी केरल के बाढ़ प्रभावित लोगों की मदद के लिए 35 लाख रुपये दान देने का फैसला किया है. बाढ़ से मची तबाही को देखते हुए केरल के मुख्यमंत्री पिनराई विजयन ने केंद्र सरकार से 2600 करोड़ रुपए के विशेष पैकेज की मांग की है. उनके अनुसार 'करीब 20,000 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है. 2018-19 का केरल का कुल बजट 37,284 करोड़ रुपए था और ऐसा लग रहा है कि इस तबाही से निपटने के लिए पूरा बजट इसी में लगाना पड़ जाएगा.'

मोदी सरकार केरल की राहत के लिए 500 करोड़ रुपए की पहली किश्‍त जारी कर चुकी है. बाढ़-पीडि़तों के पुनर्वास के लिए आगे और भी राहत राशि पहुंचाने की बात कर रही है, लेकिन सोशल मीडिया के तर्कशास्‍त्री विदेशी मदद को ही केरल का आसरा बता रहे हैं. जैसे केंद्र सरकार सिर्फ 500 करोड़ रु देने के बाद कोई मदद नहीं देगी. दरअसल, विदेशी मदद न लेने के पीछे मोदी सरकार के लिए शर्मिंदगी का कारण ढूंढ रहे लोग यह भूल जाते हैं कि प्रश्‍न देश के स्‍वाभिमान का है. यदि देश में ताकत है कि वह अपने भीतर आई विपदा से खुद ही निपट सकता है तो दूसरे के सामने हाथ फैलाने की क्‍या जरूरत. केरल और केंद्र काफी है इस बाढ़ का विभ‍ीषिका से निपटने के लिए. यदि कमी होगी, तो देश की बाकी जनता जुट जाएगी. बल्कि जुट गई है.

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