मोदी के दूसरे कार्यकाल में ही सामने आया था गुजरात मॉडल
जैसा नरेंद्र मोदी का काम करने का रवैया है माना जा रहा है कि उनका दूसरा कार्यकाल काफी अहम होने वाला है. कहा ये भी जा रहा है कि वो ऐसे कई फैसले ले सकते हैं जो कई मायनों में चौंकाने वाले होंगे.
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नरेंद्र मोदी का प्रधानमंत्री के तौर पर दूसरा कार्यकाल बेहद अहम साबित हो सकता है. काम करने की उनकी स्टाइल से इस बात के संकेत मिलते हैं. गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी ने जिस प्राथमिकता के साथ कामों को आगे बढ़ाया था उस पर नज़र डालें तो यह समझने में आसानी होगी कि क्यों मोदी का प्रधानमंत्री के तौर पर अगला कार्यकाल निर्णायक साबित हो सकता है. यहां ‘निर्णायक’ से मतलब उस कार्यकाल से है जिस दौरान के कामों से मोदी की पहचान होगी. नरेंद्र मोदी देश के उन कुछ नेताओं में से हैं जो एक साथ एक समय में कई मोर्चों पर काम कर सकते हैं. चाहे वो राजनीतिक हो, आर्थिक हो, सामाजिक हो या फिर विदेश नीति का मामला. जबकि आम तौर पर देखा जाता है कि अब तक के ज्यादातर प्रधानमंत्री ज्यादा से ज्यादा एक या दो मोर्चों पर ही फोकस रख पाते थे. बाकी काम बने-बनाए ढर्रे पर ही चलते रहते हैं. मुख्यमंत्री के तौर पर भी मोदी की यह खूबी साफ दिखाई देती थी.
पहला कार्यकाल 'बैगेज' वाला
नरेंद्र मोदी ने गुजरात में जब पहली बार सत्ता संभाली थी तो वो तकनीकी रूप से उनकी सरकार नहीं थी. मोदी राजनीतिक अस्थिरता के बीच गुजरात भेजे गए थे. ये वो समय था जब गुजरात बीजेपी में गुटबाजी चरम पर थी. कुछ महीने पहले ही आए भयंकर भूकंप ने गुजरात के बड़े हिस्से को तबाह कर दिया था. यानी राजनीतिक स्थिरता के साथ उन पर भूकंप राहत और पुनर्वास की भी जिम्मेदारी थी. अभी ये काम चल ही रहे थे कि गोधरा कांड हो गया और पूरे राज्य में दंगे भड़क गए.
माना जा रहा है कि अपने इस दूसरे कार्यकाल में प्रधानमंत्री मोदी कई चौंकाने वाले फैसले लेंगे
इस पूरे तूफान के बाद चुनाव में नरेंद्र मोदी विजेता बनकर उभरे और अपने नाम पर जीत दर्ज की. लिहाजा इसे ही हम उनका पहला कार्यकाल मान रहे हैं. इस दौरान उनको दंगों के मामले में लपेटने की भरपूर कोशिश हुई. पार्टी के अंदर भी राजनीतिक षड़यंत्रों का उनको लगातार मुकाबला करना पड़ा. पूरा गुजरात राजनीतिक रूप से मोदी बनाम अन्य में बंट गया था. विरासत में मिली समस्याओं को बारी-बारी करके निपटाया. खुद पर हावी होने की कोशिश कर रहे अपने ही संगठन के लोगों जैसे प्रवीण तोगड़िया और गोर्धन झड़फिया जैसे लोगों से दूरी बनाई. तब गुजरात में वही माहौल हुआ करता था जैसा आजकल देश में है.
अगर आपको 2007 का गुजरात चुनाव याद हो तो उस समय भी मोदी के लिए ऐसी ही 'करो या मरो' की स्थिति थी, जैसी इस लोकसभा चुनाव में थी. मोदी जब प्रधानमंत्री बने तो दिल्ली में अव्यवस्था का माहौल था. करोड़ों-अरबों के घोटालों से देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ झुक चुकी थी. ऊपर से मंदी का माहौल अभी तक खत्म नहीं हुआ था. बैंकों की हालत किसी भूकंप से आई बर्बादी से कम नहीं थी. पांच साल लगाकर मोदी न सिर्फ हालात को पटरी पर लाए, बल्कि नोटबंदी और जीएसटी जैसे बड़े साहसिक फैसले किए.
2007 के बाद 'खुलकर' खेला
आज हम जिस गुजरात मॉडल की बात सुनते हैं वो दरअसल 2007 के बाद ही सामने आना शुरू हुआ था. पहले कार्यकाल में मोदी ने वाइब्रेंट गुजरात और विकास की दूसरी तमाम परियोजनाओं पर जो काम शुरू किए थे उनके नतीजे सामने आने शुरू हो चुके थे. इसके अलावा अब वो खुलकर बड़े कदम उठाना और जोखिम लेना सीख चुके थे. इस कार्यकाल में मोदी ने संघ परिवार के संगठनों के कुछ नेताओं के पर कतरने शुरू कर दिए. इससे शासन-प्रशासन पर उनकी पकड़ मजबूत हुई.
2007 में मोदी ने जो वाइब्रेंट गुजरात समिट किया था उसमें पहली बार 6.6 खरब रुपये से अधिक के सौदों पर दस्तखत हुए थे. यही वो साल था जब कॉरपोरेट इंडिया ने एक नेता के तौर पर मोदी को गंभीरता से लेना शुरू कर दिया था. बंगाल के सिंगूर में जब टाटा का विरोध हुआ तो मोदी ने 2008 में उन्हें गुजरात बुलाकर पूरे देश में तहलका मचा दिया था. ये उनके कार्यकाल का आक्रामक समय था जब वो लक्ष्य सामने रखकर उन्हें पूरा करने में जुटे हुए थे. इसी कार्यकाल में उन्होंने गुजरात की पानी की समस्या हल करने पर पूरी ताकत झोंक दी.
उन्होंने ग्राउंडवॉटर को बचाने के लिए प्रोजेक्ट शुरू किए और साल भर में गुजरात भर में इनकी तादाद 5 लाख के पार पहुंचा दी. इससे पानी की समस्या काफी हद तक हल हुई और गुजरात की सूखे राज्य की इमेज हमेशा-हमेशा के लिए बदल गई. इसी का नतीजा हुआ कि गुजरात कॉटन के उत्पादन में देश का अग्रणी राज्य बन गया और कभी बदहाल माने जाने वाले गुजरात के किसानों की जिंदगी देखते ही देखते बदल गई. गुजरात में 2010 तक 10 साल की कृषि विकास दर 11 फीसदी पहुंच गई. ये देश के किसी भी राज्य में सबसे अधिक थी. इस दौरान कई विदेशी कंपनियों ने गुजरात में निवेश किया.
2019 के बाद की झलक
मोदी के लिए जिस तरह वाइब्रेंट गुजरात समिट हुआ करता था, आज प्रधानमंत्री के तौर पर ‘मेक इन इंडिया’ प्रोजेक्ट है. इस प्रोजेक्ट की कामयाबी पूरी तरह से सामने आना अभी बाकी है. जाहिर है 2019 के बाद इसके आंकड़े भी मोदी के खाते में जुड़ेंगे तब बेरोजगारी और औद्योगीकरण जैसे कई मुद्दों पर मोदी सरकार बेहतर स्थिति में होगी. मध्य प्रदेश के खरगौन में अपनी आखिरी चुनावी रैली में मोदी ने कहा था कि उनका पहला कार्यकाल बुनियादी जरूरतों को पूरा करने में गया है. लेकिन अगला कार्यकाल देशभर में पानी की समस्या को हल करने पर फोकस होगा.
ये बिल्कुल उसी तरह से है जैसा उन्होंने गुजरात में पानी की समस्या हल करने के लिए किया था. मोदी ने अपने पहले कार्यकाल के आखिरी दिनों में साबरमती रिवरफ्रंट योजना की नींव डाली थी. लेकिन उनका दूसरा कार्यकाल शुरू होने तक ये प्रोजेक्ट बहुत धीमी स्पीड से ही चल रहा था. लेकिन जैसे ही 2007 में वो दोबारा मुख्यमंत्री चुने गए साबरमती परियोजना को मानो पंख लग गए और बेहद तेजी के साथ काम शुरू हो गया.
इसी का नतीजा हुआ कि इतना बड़ा प्रोजेक्ट मात्र 5 साल में बनकर पूरा गया. आज साबरमती रिवरफ्रंट सिर्फ अहमदाबाद ही नहीं, पूरे देश के लिए एक मिसाल है. साबरमती रिवरफ्रंट के काम की तुलना हम बुलेट ट्रेन प्रोजेक्ट से कर सकते हैं. प्रधानमंत्री के तौर पर दूसरे कार्यकाल में बुलेट ट्रेन ही नहीं, हाइवे और रेल नेटवर्क पर फोकस भी कई गुना बढ़ना तय है.
आज हम जिस विकसित गुजरात की बात करते हैं उसने काफी हद तक 2007 के बाद शक्ल ली थी. यह वो समय था जब मोदी गुजरात में एकछत्र राज्य कर रहे थे और विरोधियों के हौसले पूरी तरह से पस्त थे. अब सबकी नजर होगी कि 2019 से आगे का मोदी का कार्यकाल कितना असरदार साबित होने वाला है.
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