आखिर नीतिश कुमार ने सोनिया, लालू को क्यों दिया - धीरे से जोर का झटका
लालू यादव समेत विपक्ष की पार्टियां नोटबंदी के खिलाफ आग उगल रहीं थीं तब नीतीश कुमार ने इसका समर्थन करके सबको चौंका दिया था.
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राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के तौर पर रामनाथ कोविंद के नामांकन को बीजेपी ने एनडीए का शक्ति प्रदर्शन बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. शुक्रवार को संसद में नामांकन के समय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ जब रामनाथ कोविंद पर्चा दाखिल करने के लिए चले तो उनके साथ तमाम केन्द्रीय मंत्री, मुख्यमंत्री और एनडीए के वरिष्ठ नेता मौजूद थे. लेकिन एक नेता ऐसा था जो ना तो खुद मौजूद था ना उनकी पार्टी का कोई प्रतिनिधि वहां आया था. लेकिन फिर भी उसका नाम सबकी जुबान पर था, उसकी चर्चा हर कोई कर रहा था. वो नेता हैं बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार जिनकी पार्टी जेडीयू रामनाथ कोविंद के नामांकन में तो शामिल नहीं हुई लेकिन समर्थन का ऐलान कर चुकी है.
नीतीश कुमार चर्चा में इसलिए हैं क्योंकि उन्होंने ऐन मौके पर सोनिया गांधी और लालू यादव समेत विपक्ष के नेताओं को ऐसा झटका दिया है जिससे लोग हैरान हैं. खास तौर पर इसलिए क्योंकि बिहार के सफल प्रयोग के बाद पूरे देश में मोदी के महागठबंधन की सबसे ज्यादा बात नीतीश कुमार ही कर रहे थे. विपक्ष को भरोसा था कि नीतीश की साफ सुथरी छवि, उनका कद्दावर कद और चतुर राजनैतिक दिमाग मोदी के खिलाफ लोहा लेने में विपक्ष का हथियार बनेगी. लेकिन नीतीश कुमार ने ये दिखा दिया कि उनके सहयोग और समर्थन को कोई भी नेता या पार्टी अपनी जागीर ना समझे. देश में सबसे शातिर राजनीतिक दिमाग रखने वाले नेताओं में एक, नीतीश कुमार ने बीजेपी के उम्मीदवार रामनाथ कोविंद को समर्थन देकर एक साथ कई निशाने साधे हैं.
नीतीश कुमार : दूर की कौड़ी...
गुरूवार को संसद में रामनाथ कोविंद के खिलाफ उम्मीदवार तय करने के लिए जब विपक्षी दलों की बैठक हुई तो वहां पर भी चर्चा का विषय नीतीश कुमार ही बने हुए थे. जाहिर है, विपक्ष की बैठक में भी जेडीयू की तरफ से कोई शामिल नहीं हुआ था. लेकिन इस बैठक से निकल कर जब लालू प्रसाद यादव बाहर निकले तो उनका चेहरा उतरा हुआ था. सवालों की बौछार हो रही थी लेकिन हमेशा हंसी मजाक की मुद्रा में रहने वाले लालू के पास इस बात को कोई संतोषजनक जवाब नहीं था कि उनकी पार्टी के सहयोग से मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे हुए नीतीश कुमार आखिर मीरा कुमार का साथ देने को क्यों तैयार नहीं हैं. बहुत पूछे जाने पर खीज कर लालू सिर्फ इतना ही बोल पाए कि राष्ट्रपति के चुनाव में बीजेपी के उम्मीदवार का समर्थन करके नीतीश ऐतिहासिक भूल कर रहे हैं और वो नीतीश से एक बार फिर विचार करने की अपील करेंगे.
लेकिन जब नीतीश का मकसद ही लालू और कांग्रेस दोनों को सबक सिखाना हो तो भला उनकी अपील पर ध्यान देने का सवाल कहां पैदा होता है. नीतीश कुमार भी इस बात को अच्छी तरह समझते हैं कि लालू के साथ संबंधों में जैसी तनातनी चलती रहती है उसे देखते हुए ये पक्की तौर पर नहीं कहा जा सकता कि गठबंधन की सरकार पांच साल पूरा करेगी भी या नहीं. लालू ने जब जब नीतीश पर दबाव बढाकर ये बताने की कोशिश की कि आजेडी उनकी पार्टी से बडी है तो नीतीश मौका देखकर हिसाब बराबर करने से कभी चूके नहीं. वो लालू को लगातार ये एहसास कराते रहे हैं कि उनके पास रास्ते और भी हैं. बीजेपी के साथ सात साल सरकार चलाकर वो मुख्यमंत्री रह चुके हैं - ये बात वो लालू को इशारों इशारों में याद दिलाते रहते हैं.
जब लालू समेत विपक्ष की पार्टियां नोटबंदी के खिलाफ आग उगल रहीं थीं तब नीतीश ने इसका समर्थन करके सबको चौंका दिया था. सर्जिकल स्ट्राइक की तारीफ करते समय भी नीतीश ने ये नहीं सोचा कि इससे उनके गठबंधन के पार्टनर लालू यादव के दिल पर क्या गुजरेगी. पटना में प्रकाश पर्व के समारोह में जब नीतीश खुद मोदी के साथ मंच पर बैठ गए और लालू यादव को उनके सामने जमीन पर बैठना पड़ा तब भी इसकी खूब चर्चा हुई थी. यूपी चुनाव के समय पुस्तक मेला में नीतीश कुमार ने जब बेहद सरलता से कमल में रंग भर दिया तो लालू का रंग उड़ गया था. लालू यादव जब जमीन लेन देने के मामले में फंसे तो भी नीतिश कुमार उनके बचाव में उतरने के बजाय ये बोलते रहे कि जांच से सच सामने आ जाएगा. पिछले दिनों राष्ट्रपति चुनाव की गहमा गहमी के बीच जब नीतीश दिल्ली आए तो सोनिया गांधी का भोज छोडकर मोदी के डिनर में शामिल हो गए. मौके अनेक, संदेश एक - लालू ये याद रखें कि बीजेपी के साथ जाने का रास्ता बंद नहीं हुआ है.
वैसे भी नीतीश अब ग्यारह साल तक बिहार के मुख्यमंत्री रह चुके हैं. वो अब प्रधानमंत्री बनने की चाह रखते हैं ये बात छिपी हुई नहीं है. और रखें भी क्यों नहीं. विपक्ष में अभी देश भर में उनके कद का कोई दूसरा नेता नहीं है. अरविंद केजरीवाल के बाद नीतीश कुमार ही ऐसा नेता हैं जिन्होंने अपने दम पर सीधे नरेन्द्र मोदी को चुनाव में चुनौती देकर धूल चटाया था. लेकिन केजरीवाल के सितारे अब गर्दिश में हैं और उनका कद भी ऐसा नहीं है कि वो प्रधानमंत्री बनने की सोचे. नवीन पटनायक और ममता बनर्जी की अपने राज्य के बाहर वैसी लोकप्रियता नहीं है. मुलायम की साईकिल पंचर हो चुकी है. और विपक्ष की सबसे बडी पार्टी कांग्रेस चुनाव दर चुनाव रसातल में जा रही है. लेकिन तमाम खूबियों के बावजूद नीतीश कुमार के सामने सबसे बडी मुश्किल ये है कि उनकी पार्टी जेडीयू इतनी दमदार नहीं है कि अपने दम पर वो कोई बडी ताकत बन सकें. नीतीश भी इस बात को समझते हैं.
नीतीश ने जब विपक्ष की एकता की जोरदार वकालत की थी तो उनका असली मकसद ये था कि कांग्रेस दीवार पर लिखी इबारत पढ़ ले और उन्हें 2019 में मोदी के मुकाबले विपक्ष का चेहरा बनाने के लिए बाकी पार्टियों को तैयार करे. इसके लिए उन्होंने अपनी तरफ से कोशिश भी की और कांग्रेस का मन टटोलने की कोशिश की. इसके लिए दूत बने थे उनके विश्वासपात्र और यूपी चुनाव तक राहुल गांधी के चहेते पीके यानि प्रशांत किशोर. नीतिश का सोचना य़े था कि अगर ऐसा हो जाता है तो इसके दो फायदे होंगें. पहला तो ये कि अगर दांव चल गया और 2019 में मोदी चूक गए तो प्रधानमंत्री बनने का उनका सपना पूरा हो सकता है. लेकिन ऐसा नहीं भी हो पाया तो पूरे विपक्ष का नेता बनने के बाद उनका कद इतना बडा बन जाएगा कि लालू उनपर कभी दबाव नहीं बना सकेंगे.
लेकिन ऐसा हो नहीं पाया. नीतीश की इस कोशिश पर कांग्रेस ने ठंडा रूख दिखाया. सोनिया गांधी को शायद ये लगा होगा कि अगर नीतीश कुमार प्रधानमंत्री पर के उम्मीदवार बनेंगे तो राहुल गांधी क्या करेंगे ?लालू यादव भी भला ये क्यों चाहेंगे कि ऐसा हो. इसलिए नीतिश कुमार ने राष्ट्रपति चुनाव के बहाने लालू और कांग्रेस दोनों को झटका दिया है. नीतीश की इस चाल के बाद लालू हैरान हैं और बीजेपी के नेता फिर से उम्मीद भरी निगाहों से उनकी ओर देखने लगे हैं.
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