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Updated: 21 अप्रिल, 2015 04:25 AM
गुरमीत कंवल
गुरमीत कंवल
  @gurmeet.kanwal
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चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग अपनी इस्लामाबाद यात्रा के दौरान चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर के लिए बड़े पैमाने पर निवेश योजनाओं की घोषणा करेंगे. इसके तहत शिनजियांग को ग्वादर बंदरगाह से जोड़ने के लिए बुनियादी ढांचे का विकास किया जाना है. इसके लिए चीन की 46 अरब अमेरिकी डॉलर के निवेश की योजना है, वित्त वर्ष 2014-15 में पाकिस्तान का बजट 39.8 अरब अमेरिकी डॉलर रहा. चीन द्वारा निवेश की जाने वाली राशि पाकिस्तान के पूरे बजट से भी अधिक है.

चीन पाकिस्तान का दूसरा सबसे बड़ा कारोबारी पार्टनर है. इस दोस्ती को दोनों देशों के नेताओं ने नाम भी दे रखा है - "रणनीतिक" - और उनके शब्दों में चीन-पाकिस्तान की मित्रता, "पहाड़ों से भी ऊंची, महासागर से भी गहरी, और शहद से भी अधिक मीठी है." चीन "पाकिस्तान की क्षेत्रीय अखंडता की गारंटी" तो है, लेकिन ये नहीं साफ है कि किसके खिलाफ. एक बात तो सबको पता है कि तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) और उसके सहयोगी उग्रवादी संगठन आंतरिक सुरक्षा के मोर्चे पर पाकिस्तान की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा हैं.

चीन और पाकिस्तान के बीच परमाणु मिसाइल सैन्य गठजोड़ भारत के लिए एक प्रमुख रणनीतिक चुनौती बन चुका है. चीन को पाकिस्तान के परमाणु हथियार कार्यक्रम में प्रत्यक्ष तौर पर सहायता के लिए जाना जाता है. पाकिस्तान को परमाणु हथियारों के विकास के लिए सामान, परमाणु वार-हेड डिजाइन और कम से कम दो परमाणु बमों के लिए पर्याप्त ह्यू (HEU - अत्यधिक संवर्धित यूरेनियम) और दोहरे इस्तेमाल वाली तकनीक मुहैया कराने में भी चीन का हाथ है.

परमाणु हथियार और बैलिस्टिक मिसाइल कार्यक्रम में पाकिस्तान की मदद कर चीन ने परमाणु अप्रसार संधि और संधि की शर्तों का उल्लंघन किया है. इससे पाकिस्तान को चश्मा और खुशाब परमाणु सुविधा केन्द्र में वेपन-ग्रेड प्लूटोनियम के उत्पादन खातिर परमाणु रिएक्टरों के निर्माण में मदद मिली - और पाकिस्तान युद्धक प्लूटोनियम बनाने में सक्षम हो गया. चीन ने एम-9 और एम-11 परमाणु सक्षम बैलिस्टिक मिसाइल भी पाकिस्तान को दिए और पाकिस्तान के लिए उत्तर कोरिया से ताइपो डोंग और नो डोंग बैलिस्टिक मिसाइलें भिजवाने में मदद की.

चीन ने पाकिस्तान को लगभग 50 प्रतिशत की सब्सिडी देते हुए 'दोस्ताना' कीमतों पर हथियार निर्यात किए हैं. चीन और पाकिस्तान ने संयुक्त रूप से लड़ाकू विमान जेएफ-17 थंडर / एफसी-1 फियर्स बनाए हैं. मुख्य युद्धक टैंक अल-खालिद भी ऐसे ही तैयार किया गया है. इसके अलावा टैंकरोधी मिसाइल जैसे अन्य सैन्य हथियार भी विकसित किए हैं.

गिलगित-बाल्टिस्तान में सड़क और पनबिजली परियोजनाओं के निर्माण के लिए बड़ी संख्या में चीन के सैन्य कर्मी मौजूद हैं. हालांकि, ऐसी संभावना जताई जाती है कि पाकिस्तान ने पूर्वी तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट (ETIM) के उग्रवादियों के खिलाफ आतंकवाद विरोधी आपरेशन चीन की सेना पीपल्स लिबरेशन आर्मी की मदद ली है.

हिंद महासागर में अपनी 'स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स" रणनीति के तहत चीनी इंजीनियर मकरान तट पर ग्वादर में पाकिस्तान के दूसरे प्रमुख बंदरगाह के निर्माण में लगे हुए हैं. इस बंदरगाह को आसानी से चीनी नौसेना के जहाजों के लिए एक नौसेना बेस के तौर पर खड़ा किया जा सकता है. साफ तौर पर चीन हर तरफ से भारत की सामरिक घेरेबंदी में लगा हुआ है.

दरअसल, पाकिस्तान की आंतरिक अस्थिरता और जर्जर अर्थव्यवस्था को देखकर लगता है कि पाकिस्तान के लिए जम्मू-कश्मीर और देश के अन्य भागों में भारत के खिलाफ छद्म युद्ध छेड़ना मुमकिन नहीं है, लेकिन चीन के सैन्य समर्थन और सहायता से यह संभव हो सकेगा. यह भी चीन का 'प्रॉक्सी-वॉर' है, जिसमें बतौर 'प्रॉक्सी' पाकिस्तान एक अदाकार की तरह है.

चीन और पाकिस्तान के बीच सैन्य मिलीभगत का इतिहास पचास साल से ज्यादा पुराना है. 1965 और 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान चीन ने पाकिस्तान के समर्थन से तिब्बत में कुछ सैन्य युद्धाभ्यास किये थे. उल्लेखनीय है कि 1999 में कारगिल युद्ध के दौरान भी चीनी सैन्य सलाहकारों के पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के स्कर्दू में मौजूदगी की ख़बरें आई थीं.

1962 के युद्ध के बाद से चीन ने भारत के साथ सीमा विवाद और वादों पर हरदम टालमटोल रवैया अपनाया है. दोनों देशों के राजनीतिक वार्ताकारों और ज्वाइंट वर्किंग ग्रुप के बीच 18 दौर की बातचीत के बावजूद कोई नतीजा नहीं निकल सका है. यहां तक कि चीन के अड़ियल रवैये के कारण ही स्पष्ट रूप से सैन्य नक्शों और जमीन पर वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) का सीमांकन नहीं हो पाया है. गश्त के दौरान तनाव यहां आम बात है और सशस्त्र संघर्ष की हर वक्त आशंका बनी रहती है. अगर जल्द ही इस मामले का निपटारा नहीं किया गया तो यह एक और लड़ाई की वजह बन सकता है. हाल के वर्षों में रणनीतिक तौर पर स्थिरता की झलक पेश रखते हुए चीन ने सामरिक स्तर पर कूटनीतिक और सैन्य आक्रामकता के मामले में चतुराई से काम लिया है. लद्दाख में राष्ट्रपति शी जिनपिंग की पिछली यात्रा के दौरान डेमचौक, डेपसांग, और चुमार में बड़े पैमाने पर अतिक्रमण किया जाना काबिल-ए-गौर है.

इस तरह, समझदारी तो इसी में है कि इस मामले को खत्म कर लिया जाए, क्योंकि भविष्य में भारत और चीन में होने वाले किसी भी सैन्य संघर्ष में पाकिस्तान चीन का साथ देगा, और जाहिर है वक्त आने पर चीन भी ऐसा ही करेगा. साल 2009 के दिसंबर में सेना प्रशिक्षण कमान की एक संगोष्ठी में पूर्व आर्मी चीफ जनरल दीपक कपूर ने इस संदर्भ में कहा था कि भारतीय सशस्त्र बलों को एक साथ दो-दो मोर्चों पर युद्ध के लिए तैयार रहना होगा. चीन-पाकिस्तान का गठजोड़ स्वाभाविक रूप से भविष्य में चीन के इरादों को लेकर चिंताजनक है. क्षमता हासिल करने में कई दशकों लग सकते हैं, इरादे रातों रात बदल सकते हैं. भारत को अपनी अर्थव्यवस्था के विकास और चीनी चुनौती का सामना करने के लिए सैन्य क्षमताओं के निर्माण पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए.

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लेखक

गुरमीत कंवल गुरमीत कंवल @gurmeet.kanwal

लेखक सेंटर फोर लैंड वॉरफेयर स्टॉडीज (CLWS), नई दिल्ली के पूर्व निदेशक हैं.

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