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Updated: 26 मार्च, 2015 09:20 AM
कंवल सिब्बल
कंवल सिब्बल
 
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पाकिस्तान के साथ फिर से बातचीत का मकसद यह है कि वो भी निंदा से परे जाकर भारत के साथ सभी बकाया मुद्दों को हल करना चाहता है. लेकिन गर्म और नरम मिजाज़ वाले भारत को परमाणु हथियारों से लैस दोनों पड़ोसियों से मतभेद होने के बावजूद सबसे बुराई से बचने का संकल्प लेने की जरूरत है. और हाल ही में विदेश सचिव एस. जयशंकर की पाकिस्तान यात्रा का कुछ सामरिक लाभ भी लेना चाहिए. हो सकता है कि ऐसा केवल अस्थाई रूप से अमरिका को रिझाने के लिए किया गया हो. ये भी हो सकता है कि अमेरिका को दिखाने के लिए अस्थायी रूप से हमें पीछे से पाकिस्तान के साथ फिर से बातचीत करने के लिए उकसाया गया हो.

हमारी पहल के पीछे इरादा केवल सामरिक नहीं है, भले ही ऐसा लगता हो. और हम पाक से निपटने के हमारे लंबे और निराशाजनक अनुभव के बावजूद एक बार फिर बाधित बातचीत शुरू करने के लिए तैयार हैं. पाकिस्तान की एकल उदारता और हमारा उन पर ढुल-मुल यकीन ऐसे हालात पैदा करता है कि इस बातचीत की कामयाबी का जिम्मा हमीं पर दिखाई देता है. पिछले कुछ वर्षों में दोनों देशों के बीच सशस्त्र संघर्ष और उन्मुक्त आतंकवाद को छेडऩे जैसे आचरण के बावजूद मुद्दों को हल करने के लिए इस पहल को भारत की कमी के तौर पर देखा जा सकता है जबकि यहां पाकिस्तान से एक उदारवादी के तौर पर व्यवहार किया जाता है.

दुश्मनीहमारे खिलाफ दुश्मनी के स्थाई लक्षण होने के बावजूद यही अंतरराष्ट्रीय धारणा समय-समय पर हमें पाकिस्तान के लिए बाहर जाने को प्रेरित करती है. जयशंकर की पाक यात्रा के बाद अब हमने इस बात के संकेत दिए हैं कि अगले साल वहां सार्क शिखर सम्मेलन के लिए प्रस्तावित प्रधानमंत्री मोदी की यात्रा और पाकिस्तान के साथ बहुस्तरीय बातचीत का एक रोड मैप तैयार किया जाएगा. हम बाहरी और अंदरूनी दबाव के चलते हमेशा की तरह झुक गए हैं. बिना किसी ठोस कदम के पाकिस्तान के साथ फिर से बातचीत शुरू करने के लिए तैयार हो गए. पाकिस्तान को विश्वास है कि अमेरिका ने पहल करने के लिए भारत को प्रेरित किया है ताकि इस्लामाबाद इसे अपनी कट्टरता वाली छवि के रूप में देखे. मेरा मानना है कि उन्हें लगता है कि उन्होंने पहले रुकावट पैदा करके कुछ भी गलत नहीं किया है लेकिन भारत को नए सिरे से शुरू हो रहे इस रिश्ते से सही नतीजा पाने के लिए बातचीत में समझौते की जगह बनानी होगी. भारत-पाकिस्तान के मुद्दों पर अमेरिका की कूटनीति हमेशा हमारे लिए परेशानी का सबब रही है. और हाल ही में दोनों देशों के बीच मोदी-ओबामा की यात्राओं के दौरान हमारी रणनीतिक सहमति के बावजूद ऐसा होना जारी है. अमेरिका की स्थिति भारत-पाकिस्तान वार्ता के पक्ष में है और प्रोत्साहित करती है कि दोनों देशों पर बातचीत के टूटने और सफल होने के लिए बराबर जिम्मेदारी है. लेकिन यह गलत है क्योंकि पाकिस्तान की कार्रवाई से बातचीत की प्रक्रिया टूटती है, इसमें भारत का हाथ नहीं होता. अमेरिका की यह "मनमानी" पाकिस्तान को एक तरह से राजनीतिक कवच देती है जिससे वह भारत के साथ अपने मतभेदों पर अड़ा रहता है. भारत के पहल करने के बावजूद पाकिस्तान की हार्ड लाइन प्रतिक्रिया पहले से ही दिख रही है. जयशंकर के इस्लामाबाद पहुंचने से ठीक पहले पाकिस्तानी सेना प्रमुख राहील शरीफ एलओसी का दौरा करते हैं और संघर्ष विराम का उल्लंघन करने के लिए भारत को चेतावनी के तौर पर करारा जवाब देते हैं. पाकिस्तान इस बात को मानने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं है कि वह हिंसा की कार्यवाई करता है. जिहादी संगठनों के समर्थन से जम्मू-कश्मीर में आतंकवादी घुसपैठियों को भेजता है या उन्हें उकसाता है.

बेरहमइससे भी बदतर, जयशंकर की बातचीत के बाद इस्लामाबाद में दिए गए बयानों से साफ संकेत मिलते हैं कि पाकिस्तान के रुख में कोई बदलाव नहीं हुआ है. वहां के विदेश सचिव ने बातचीत के दौरान कश्मीर और वहां रहने वालों का मुद्दा उठाकर पूरे एजेंडा को ही विवादास्पद बना दिया. इसके पीछे उनका तर्क था कि पाकिस्तान का नेतृत्व और नागरिक गहरी भावना के साथ कश्मीर से जुड़े हैं. बातचीत का असली मकसद को छोड़कर पाकिस्तान ने भारत पर आरोप लगाया कि हमने समझौता एक्सप्रैस हादसे के सबूत उनके साथ साझा नहीं किए. उन्होंने पानी के मुद्दे के साथ-साथ बलूचिस्तान में फाटा के साथ भारत के संबंध होने के निराधार आरोप भी मढ़ दिए. उनकी तरफ से तोते की तरह ये लाइन भी रट दी गईं कि दोनों देश समान रूप से आतंकवाद का शिकार हैं. पाक प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने भी खाली बयानबाजी करते हुए कहा कि अब दोनों देशों को बातचीत के माध्यम से सभी बकाया मुद्दों को हल करने की दिशा में काम करना चाहिए इससे रिश्तों का एक नया अध्याय शुरू होगा. दोनों देशों को एक दूसरे के करीब आने के लिए मिलकर सोचना होगा, साथ काम करना होगा और एकता की भावना के साथ आगे बढ़ना होगा.हमारी तरफ से सीमा पार आतंकवाद, मुंबई आतंकी परीक्षण और नियंत्रण रेखा के उल्लंघन का मुद्दा उठाया गया. हमें अपने बीच की इस खाई को कैसे पाटना होगा और कैसे बातचीत के लिए अगले दौर के लिए मतभेदों को भुलाकर जमीन तैयार करनी होगी? ये अभी साफ नहीं है. अगर पाकिस्तान को यह लगता है कि वह पहल करने से राजनीतिक युद्ध जीत गया होता तो वह भारत के साथ अपने मामले में समझौता बनाए रखने के लिए साहस दिखाता. उससे उसे अफगानिस्तान के साथ अपने कूटनीतिक रिश्तों को और बेहतर बनाने में मदद मिलती.

चुनौतियांइस्लामाबाद के बाद काबुल में जयशंकर की यात्रा से मार्च के अंत में भारत के दौरे पर आने वाले अफगानी राष्ट्रपति अशरफ गनी को तैयारी करने में मदद मिली है, लेकिन हो सकता है करजई के जाने के बाद अफगानिस्तान में हालात हमारे लिए खराब हों. मौजूदा राष्ट्रपति गनी पाकिस्तान के साथ अपने देश के समीकरण बदल रहे हैं और लगता है कि चीन और सऊदी अरब को फायदा पहुंचाने की कवायद भी हो रही है. गनी भविष्य में अफगानिस्तान की राजनीतिक और आर्थिक स्थिरता के लिए पाकिस्तान को महत्वपूर्ण मानते हैं. क्योंकि वो नए सिरे से पाकिस्तान के साथ रिश्तों का गणित लगा रहे हैं. पुर्ननिर्माण में पाकिस्तान उन्नत माध्यमों से अफगानिस्तान के काम आ सकता है और बेहतर व्यापार और पारगमन व्यवस्था के जरिए आर्थिक रूप से अफगानिस्तान की मदद भी कर सकता है. नतीजे के तौर पर अफगानिस्तान का ध्यान भारत की तरफ से हट सकता है. पहले ही गनी ये तय कर चुके हैं कि वो भारत से सैन्य सहयोग नहीं लेंगे. वो सीधे पाक सेना प्रमुख से बात कर चुके हैं कि वे पाक सैन्य अकादमी में अफगानिस्तान के सेन्य अफसरों को ट्रेनिंग दें. पाकिस्तानी सेना और खुफिया विभाग के अधिकारियों की निरंतर काबुल यात्राओं से साफ हो जाता है कि पाक-अफगान किस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं. चीन ने अफगानिस्तान में अमेरिका के प्रभाव को कम करने के लिए तालिबान के साथ मध्यस्थता की बात कही है. ऐसे में स्थिर अफगानिस्तान के पीछे चीनी और पाकिस्तानी हित साफ दिखाई दे रहे हैं. जिसकी वजह से अफगानिस्तान के लिए भारत की महत्ता कम हो जाती है. जैसा कि अफगानिस्तान अब पाकिस्तान के हाथों में खेलने वाला है तो भारत की चुनौतियों में वृद्धि होने की संभावना है, गनी शासन तालिबान से टकराव कर अपने देश में आंतरिक दरारें पैदा नहीं करना चाहता. वैसे गनी को पाकिस्तान के शासक की महत्वाकांक्षाओं का मुकाबला करने में भारत की भूमिका का एहसास है.

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लेखक

कंवल सिब्बल कंवल सिब्बल

लेखक भारत के पूर्व विदेश सचिव हैं.

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