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Updated: 01 सितम्बर, 2021 10:41 PM
देवेश त्रिपाठी
देवेश त्रिपाठी
  @devesh.r.tripathi
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के खिलाफ साझा विपक्ष की रणनीति लगातार जोर पकड़ रही है. कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने भी ब्रेकफास्ट डिप्लोमेसी के जरिये 15 से ज्यादा विपक्षी दलों के नेताओं के समर्थन से मोदी सरकार को घेरने में कोई कोताही नहीं बरती थी. संसद के मानसून सत्र में सभी विपक्षी दलों ने एकसुर में मोदी सरकार और उसकी नीतियों का विरोध किया था. मानसून सत्र के दौरान ही तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो ममता बनर्जी भी विपक्षी एकता को मजबूती देने के लिए दिल्ली दौरे पर आई थी. इस दौरे पर उन्होंने आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल समेत कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी के साथ राहुल गांधी से भी मुलाकात की थी.

कुछ दिनों पहले ही सोनिया गांधी ने 19 विपक्षी दलों के नेताओं के साथ ऑनलाइन मीटिंग के सहारे विपक्षी एकता की ताकत का प्रदर्शन किया था. 2014 और 2019 में जो विपक्ष बुरी तरह से बिखरा हुआ नजर आ रहा था, वो मिशन 2024 के लिए पूरी तरह से तैयार नजर आ रहा है. इस मीटिंग के दौरान सोनिया गांधी ने कहा था कि सबकी अपनी मजबूरियां भी हैं, लेकिन राष्ट्र हित की मांग है कि हम सब उससे ऊपर उठें. सोनिया गांधी ने जिन मजबूरियों की बात कही है, वो साझा विपक्ष की कवायद के सामने चेहरा कौन होगा, महंगाई जैसे मुद्दों पर वैकल्पिक मॉडल क्या होगा जैसी तमाम मुश्किलें से बिल्कुल अलग है. ये वही मजबूरियां हैं, जिन्हें लेकर कहा जा सकता है कि साझा विपक्ष की कोशिश में सभी सियासी दलों का साथ आना 'असंभव' लगता है.

ऐसा लगता है कि साझा विपक्ष बनाने की कोशिशें केवल कांग्रेस ही कर रही है.ऐसा लगता है कि साझा विपक्ष बनाने की कोशिशें केवल कांग्रेस ही कर रही है.

नेताओं का 'राजनीतिक शिकार'

हाल ही में कांग्रेस छोड़कर तृणमूल कांग्रेस के खेमे में शामिल हुई सुष्मिता देव ने पार्टी छोड़ने के सवाल पर कहा था कि उन्‍हें कांग्रेस नेतृत्‍व से कोई शिकायत नहीं है. हालांकि, कोई शिकायत न होने के बाद भी उन्होंने तृणमूल कांग्रेस का दामन समान विचारधारा होने की बात कह कर थाम लिया. दरअसल, बीते कुछ समय में तृणमूल कांग्रेस में कांग्रेस के कई नेता शामिल हुए हैं. असम और त्रिपुरा में तृणमूल कांग्रेस हर संभव कोशिश कर रही है कि वो भाजपा के सामने खुद को कांग्रेस के विकल्प के तौर पेश करे. उत्तर प्रदेश में भी कांग्रेस और बसपा के कई नेता और विधायक समाजवादी पार्टी में शामिल हो रहे हैं. हालांकि, इसे अन्य सियासी दलों की ओर से 'राजनीतिक शिकार' की तरह पेश नहीं किया जा रहा है. कांग्रेस छोड़कर अन्य पार्टियों में शामिल हो रहे तमाम नेता इसे विचारधारा की राजनीति कहकर कांग्रेस से किनारे हो रहे हैं.

खैर, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि लगातार दो बार लोकसभा चुनाव और कई राज्यों में हार का सामना कर चुकी कांग्रेस के नेताओं की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं उनकी विचारधारा पर हावी हो रही हैं. लेकिन, सोनिया गांधी की हालिया मीटिंग से उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव गायब रहे थे. ऐसा तब हुआ है, जब कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा ने खुद अपनी ओर से अखिलेश यादव की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाया था. लेकिन, इस गठबंधन को लेकर अखिलेश यादव की तरफ से कोई खास प्रतिक्रिया नहीं दी गई थी. कहना गलत नहीं होगा कि साझा विपक्ष के फॉर्मूले की असल परीक्षा यूपी विधानसभा चुनाव में ही होनी है. लेकिन, सोनिया गांधी की मीटिंग से गायब रहकर समाजवादी पार्टी ने संदेश दे दिया कि मिशन 2024 में कांग्रेस के साथ गठबंधन के मूड में नही हैं.

वहीं, तृणमूल कांग्रेस की मुखिया ममता बनर्जी साझा विपक्ष की सभी बैठकों में बराबर हिस्सा लेने के बावजूद कांग्रेस को कमजोर करने का कोई मौका नहीं छोड़ रही हैं. आम आदमी पार्टी के अध्यक्ष अरविंद केजरीवाल ने साझा विपक्ष के लिए कांग्रेस की अब तक की गई तमाम कोशिशों से दूरी बना रखी है. लेकिन, वो ममता बनर्जी के साथ मेल-मुलाकातों में पीछे नही हैं. आम आदमी पार्टी भी उत्तर प्रदेश, पंजाब, गोवा, गुजरात, राजस्थान, उत्तराखंड समेत अन्य राज्यों में तेजी से पैर पसार रही है. उसकी रणनीति भी इन राज्यों में तृणमूल कांग्रेस से मिलती-जुलती है. भाजपा के सामने विकल्प के तौर पर अरविंद केजरीवाल की पार्टी कांग्रेस से ऊपर खुद को प्रोजेक्ट कर रही है. साथ ही कांग्रेस के नेताओं को भी पार्टी में शामिल कर रही है.

बिखरा हुआ नजर आता है साझा विपक्ष

अगले साल होने वाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में साझा विपक्ष के फॉर्मूले का कोई असर नजर नहीं आ रहा है. पंजाब में कांग्रेस के सामने आम आदमी पार्टी मुख्य विपक्षी दल है. उत्तराखंड में भी कमोबेश यही हाल है. वहां कांग्रेस के सामने भाजपा से बड़ी चुनौती आम आदमी पार्टी बनकर उभर रही है. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के खुले ऑफर को भी अखिलेश यादव ने नकार दिया है. कुल मिलाकर इस लिस्ट में गुजरात, राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, झारखंड और महाराष्ट्र भी है. यहां कांग्रेस को चुनौती देने के लिए भाजपा के साथ ही सपा, बसपा, आम आदमी पार्टी भी अपनी हिस्सेदारी लेने पहुंचेंगे. कांग्रेस शासित राज्यों के साथ ही अन्य राज्यों में ये सियासी दल अपनी पकड़ मजबूत कर रहे हैं. कहना गलत नही होगा कि साझा विपक्ष का फॉर्मूला सियासी दलों की राजनीतिक महत्वाकांक्षा के आगे 'असंभव' ही नजर आता है.

क्या कांग्रेस का इतना बड़ा दिल है?

समाजवादी पार्टी. आम आदमी पार्टी, बसपा और तृणमूल कांग्रेस सरीखे दल लगातार कांग्रेस को नुकसान पहुंचा रहे हैं. प्रियंका गांधी वाड्रा उत्तर प्रदेश में मृतप्राय हो चुकी कांग्रेस में फिर से जीवन फूंकने की कोशिश कर रहीं हैं. लेकिन, उनकी राह में सबसे बड़ा रोड़ा अखिलेश यादव ही नजर आ रहे हैं. पंजाब में आम आदमी पार्टी दूसरा सबसे बड़ा दल होने के नाते कांग्रेस के लिए चुनौती पेश करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रही है. कहना गलत नहीं होगा कि नवजोत सिंह सिद्धू और कैप्टन अमरिंदर सिंह के बीच चल रही सियासी खींचतान का फायदा अगर आम आदमी पार्टी को मिल जाता है. तो, राष्ट्रीय राजनीति का चेहरा बदलने में ज्यादा देर नहीं लगेगी. गुजरात, राजस्थान, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में कांग्रेस के लिए भाजपा से बड़ी सियासी मुश्किल अरविंद केजरीवाल बन जाएंगे.

महाराष्ट्र में कांग्रेस गठबंधन सरकार का हिस्सा है. लेकिन, यहां एनसीपी और शिवसेना लगातार कांग्रेस को कमजोर करने की पटकथा लिखने में व्यस्त नजर आते हैं. साझा विपक्ष की कवायद के सहारे सोनिया गांधी कोशिश कर रही हैं कि राहुल गांधी के लिए प्रधानमंत्री पद तक का रास्ता बनाया जा सके. लेकिन, उनकी इस कवायद को फिलहाल ममता बनर्जी की ओर से परोक्ष रूप से चुनौती मिल रही है. अगर अरविंद केजरीवाल पंजाब जीत जाते हैं, तो इस रेस में वो भी शामिल हो जाएंगे. क्या कांग्रेस का इतना बड़ा दिल होगा कि वो मिशन 2024 के लिए साझा विपक्ष बनाने की कोशिश में तमाम राज्यों में खुशी-खुशी अन्य सियासी दलों के सामने हथियार डाल देगी.

लेखक

देवेश त्रिपाठी देवेश त्रिपाठी @devesh.r.tripathi

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं. राजनीतिक और समसामयिक मुद्दों पर लिखने का शौक है.

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