सपा-कांग्रेस गठबंधन की काट के लिए बीजेपी और बसपा में हो सकता है गुप्त समझौता !
सपा और कांग्रेस का गठबंधंन अन्य पार्टियों के लिए यूपी में भारी पड़ सकता है. वोटरों का गणित इस ओर इशारा कर रहा है कि एक और छुपा हुआ गठबंधंन सामने आकर खेल पलट सकता है. तो क्या है वो गणित?
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समाजवादी पार्टी + कांग्रेस गठबंधन से यह तय हो गया है कि उत्तर प्रदेश में इस बार मतदाताओं के पास जाति और धर्म से अलग जाकर मतदान करने का विकल्प सीमित या समाप्त हो गया है. विकास का नारा सिर्फ़ नारा रहेगा, लेकिन मतदान करने के लिए जाति और धर्म ही सबसे बड़ा इशारा रहेगा.
अब वहां मुख्य रूप से राजनीति के तीन ध्रुव बन गए हैं- 1. समाजवादी+कांग्रेस, 2. भारतीय जनता पार्टी 3. बहुजन समाज पार्टी.
सपा और कांग्रेस के गठबंधंन से अब वोटरों के लिए एक नई मुश्किल खड़ी हो गई है. |
इसी तरह मतदाताओं के छह वर्ग बन गए हैं, जो अपनी-अपनी जातीय और धार्मिक प्रतिबद्धताओं के हिसाब से अपना पाला तय करेंगे.
1. यादव - 10%
2. ग़ैर यादव पिछड़े - 30%
3. मुस्लिम - 20%
4. जाटव (मायावती की जाति) दलित - 10%
5. ग़ैर-जाटव दलित - 10%
6. सवर्ण - 20%
राज्य में जब चतुष्कोणीय मुक़ाबला होता है, तो जिसे 30% वोट मिलते हैं, उसकी सरकार बन जाती है, लेकिन त्रिकोणीय मुकाबले की स्थिति में जिसे 35% वोट मिलेंगे, उसकी सरकार बनेगी.
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सतही तौर पर मुस्लिम-यादव समीकरण में करीब 30% वोट हैं. ये दोनों ही वर्ग उत्तर प्रदेश में सबसे प्रतिबद्ध और प्रभावशाली वर्ग हैं. जैसे, यादवों की प्रतिबद्धता समाजवादी पार्टी के साथ अक्षुण्ण है, उसी तरह मुसलमानों की प्रतिबद्धता बीजेपी के ख़िलाफ़ अटूट है. अगर समाजवादी-कांग्रेस गठबंधन नहीं होता, तो बीजेपी के ख़िलाफ़ उनके वोट तीन जगह जाते, लेकिन अब उनके वोट दो ही जगह जाएंगे और फायदा गठबंधन को ही मिलेगा. यह स्पष्ट है कि जिन सीटों पर समाजवादी-कांग्रेस गठबंधन बीजेपी को हराने की हैसियत में होगा, वहां वे इस गठबंधन के साथ खड़े होंगे. और जिन सीटों पर बीएसपी में बीजेपी को हराने का माद्दा अधिक होगा, वहां वे बीएसपी के साथ जाएंगे. यानी यह तय है कि मुसलमानों के सारे वोट समाजवादी पार्टी - कांग्रेस गठबंधन को नहीं जा रहे और बहुजन समाज पार्टी भी इसमें सेंध लगाने वाली है. इस प्रकार मुस्लिम-यादव समीकरण से समाजवादी-कांग्रेस गठबंधन को 30 में से 20% वोट ही मिलेंगे. बाकी के 15% वोटों का जुगाड़ वह कैसे करेगा? क्या ग़ैर-यादव पिछड़े, ग़ैर-जाटव दलित और सवर्ण वोटर मिलकर उसकी 15% की इस ज़रूरत को पूरा करेंगे?
मतदाताओं के सामने दूसरा विकल्प है भारतीय जनता पार्टी का. जैसे यादव समाजवादी पार्टी के साथ फेविकॉल की तरह चिपके हैं, उस तरह से तो नहीं, लेकिन बदली हुई राजनीतिक परिस्थितियों में सवर्णों के लिए भी बीजेपी के साथ जाना मजबूरी है. कांग्रेस समाजवादी के साथ चली गई, इसलिए उसके साथ वे जा नहीं सकते. मायावती ने बड़ी संख्या में ब्राह्मणों को टिकट देकर उन्हें ललचाने का प्रयास किया है, लेकिन आरक्षण के इर्द-गिर्द राजनीति जब ध्रुवीकृत होगी, तो बीएसपी के साथ वे उन्हीं सीटों पर जाएंगे, जहां बीजेपी सीधी फाइट में नहीं होगी. यानी सवर्णों के 75-80% वोट बीजेपी को मिल सकते हैं. यानी बीजेपी के पास यूपी में 15% प्रतिबद्ध वोट हैं. बाकी के 20% वोट वह कहां से लाएगी? मुस्लिम उसे वोट देंगे नहीं और क्या आरक्षण विवाद के बाद गैर-यादव पिछड़ों और ग़ैर-जाटव दलितों से इतने वोटों का इंतज़ाम हो पाएगा? वैसे इन जातियों में अब तक उसकी अच्छी पैठ रही है. लोकसभा चुनाव में भी इन मतदाताओं ने उसका भरपूर साथ दिया था.
बहुजन समाज पार्टी भी उत्तर प्रदेश की राजनीति की एक महत्वपूर्ण धुरी है. मायावती की जाति के दलित यानी जाटव पूरी तरह से बीएसपी के साथ हैं. गैर-जाटव दलितों से भी कम से कम 50% वोट उसे ज़रूर मिलेंगे. इसके अलावा मुसलमान वोटर उन सीटों पर उसका साथ देने से पीछे नहीं हटेंगे, जिन सीटों पर वह बीजेपी से सीधी फाइट में होगी. इनके अलावा ब्राह्मण वोटरों को भी उसने ललचाने का दांव चला है, और ये वोटर भी उसे उन सीटों पर वोट दे सकते हैं, जहां बीजेपी सीधी फाइट में नहीं होगी. कुल मिलाकर, बहुजन समाज पार्टी के पास भी 25% तक प्रतिबद्ध/स्पष्ट वोट दिखाई दे रहे हैं. बाकी के 10% वोटों का जुगाड़ वह कैसे करेगी? क्या मुसलमानों, सवर्णों, गैर-जाटव दलितों और ग़ैर-यादव पिछड़ों में वह थोड़ी-थोड़ी सेंधमारी और कर पाएगी?
ज़ाहिर है कि मौजूदा समीकरणों के हिसाब से प्रतिबद्ध/स्पष्ट वोटों के मामले में बीएसपी 25% पर, सपा-कांग्रेस गठबंधन 20% पर और बीजेपी 15% पर खड़ी दिखाई दे रही है. ऐसे में बड़ा खेल बाकी बचे वे 40% मतदाता करेंगे, जो किसी की कठपुतली नही हैं, लेकिन इस गणित के कारण मुमकिन है कि त्रिशंकु विधानसभा की भी स्थिति बने और सरकार बनाने के लिए चुनाव बाद नए गठबंधनों की ज़रूरत पड़े. पर चुनाव बाद गठबंधन की उस ज़रूरत में भी बीजेपी और बीएसपी तो समाजवादी-कांग्रेस गठबंधन में जुड़ नहीं सकती. इसलिए इस गठबंधन के विस्तार की संभावना अब राष्ट्रीय लोक दल, अन्य छोटी पार्टियों और निर्दलीय तक ही सीमित है.
बहुजन समाजवादी पार्टी अपने लिए बीजेपी के जरिए रास्ता साफ कर सकती है |
दूसरी तरफ़, अगर बहुजन समाज पार्टी पूर्ण बहुमत से कुछ दूर रह जाए, तो उसे सरकार बनाने के लिए ज़रूरत अनुसार बीजेपी या कांग्रेस- दोनों पार्टियों का साथ मिल सकता है, लेकिन दोनों पार्टियों का साथ एक साथ नहीं मिल सकता. या तो उसे बीजेपी का समर्थन लेना होगा या कांग्रेस का. ऐसे में स्पष्ट है कि चुनाव बाद कांग्रेस का समर्थन लेना बहुजन समाज पार्टी के लिए तभी फलदायी होगी, जब वह बहुत थोड़े सीट से बहुमत से दूर रह जाएंगी. अगर अधिक सीटों से बहुमत से पीछे रहती हैं, तो उसे बीजेपी के साथ की ज़रूरत पड़ेगी. इसलिए बहुजन समाज पार्टी के लिए सही रणनीति यह हो सकती है कि चूंकि कांग्रेस समाजवादी पार्टी के साथ चुनाव-पूर्व गठबंधन बना चुकी है, इसलिए वह भी बीजेपी के साथ एक चुनाव-पूर्व स्ट्रैटेजिक हिडेन एलायंस कायम करे.
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वैसे भी, बीएसपी और बीजेपी के मतदाता जानते हैं कि इन दोनों पार्टियों को कभी भी एक-दूसरे के साथ की ज़रूरत पड़ सकती है और ना-ना करते इन दोनों के बीच इकरार और प्यार भी हो ही जाता है. इसलिए इन दोनों के बीच चुनाव-पूर्व गठबंधन न होते हुए भी एक ऑटोमेटिक हिडेन एलायंस तो काम करेगा ही. यानी जिन सीटों पर बीएसपी कमज़ोर होगी, उन सीटों पर उसके ग़ैर-मुस्लिम मतदाता भारतीय जनता पार्टी को वोट करेंगे और जिन सीटों पर भारतीय जनता पार्टी कमज़ोर होगी, उन सीटों पर उसके मतदाता बहुजन समाज पार्टी को वोट करेंगे. पर इस बात को दोहराना ज़रूरी है कि अगर इस ऑटोमेटिक हिडेन एलायंस को दोनों पार्टियां स्ट्रैटेजिक हिडेन एलायंस की शक्ल दे सकें, तो समाजवादी पार्टी-कांग्रेस गठबंधन की पराजय सुनिश्चित हो सकती है.
मायावती क्यों चाहेंगी कि भाजपा से गठबंधन हो:
पर क्या, नोटबंदी के बाद की परिस्थितियों में मायावती बीजेपी के साथ स्ट्रैटेजिक हिडेन एलायंस बनाएंगी? इसकी संभावना सतही तौर पर तो कम लगती है, क्योंकि माना जा रहा है कि नोटबंदी से सबसे ज़्यादा नुकसान उन्हें ही हुआ है, लेकिन और नुकसान न हो और सत्ता वापस हाथ में आ जाए, इसके लिए सब कुछ होने के बावजूद बीजेपी के साथ रणनीतिक छिपा गठबंधन कायम करने में उन्हे अधिक हिचक नहीं होनी चाहिए. ऐसा करने से उन्हें अपने दुश्मन नंबर वन समाजवादी पार्टी को धूल चटाने में मदद मिलेगी और त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में सत्ता में लौटने की संभावना भी प्रबल हो जाएगी. पर अगर वह ऐसा नहीं करती हैं, तो यह समाजवादी-कांग्रेस गठबंधन को मज़बूत करने जैसा ही होगा, जो शायद वे न चाहें.
(नोट- प्रतिशत में दिए गए सारे आंकड़े अनुमानित और करीबी हैं)
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