क्या 'इंदिरा' के लिए नीतीश जेपी को भुला देंगे!
हाल तक बिहार सरकार की एक वेबसाइट भी जेपी का उसी अंदाज में गुणगान कर रही थी. लेकिन मीडिया में मामला उछलने के बाद साइट को अपडेट कर दिया गया है - और विवादित हिस्से में तब्दीली कर दी गई है.
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बस तीन महीने पहले की बात है. 11 अक्टूबर 2015 को कई बरस बाद लगा कि अमिताभ बच्चन के अलावा भी किसी का जन्म दिन है. अगले दिन बिहार में पहले चरण के लिए वोटिंग होनी थी.
लोकनायक
तब बीजेपी तो जेपी का जिक्र जोर शोर से कर ही रही थी, बिहार के तमाम नेताओं में लोकनायक जयप्रकाश नारायण के असली चेले होने के होड़ मची थी. क्या लालू प्रसाद, क्या नीतीश कुमार, क्या सुशील मोदी और क्या जीतन राम मांझी - सब के सब जेपी के विचारधारा के असली वारिस होने की दावेदारी करते नहीं थक रहे थे.
लेकिन अब न वो दौर रहा, न अब वो शोर रहा. अब उन्हीं नेताओं के नजरिये में फर्क आ गया है.
साइट पर अपडेट
हाल तक बिहार सरकार की एक वेबसाइट भी जेपी का उसी अंदाज में गुणगान कर रही थी. लेकिन मीडिया में मामला उछलने के बाद साइट को अपडेट कर दिया गया है - और विवादित हिस्से में तब्दीली कर दी गई है.
खबरों के मुताबिक साइट पर इंदिरा गांधी के शासन को ब्रिटिश शासन से भी खराब बताया गया था. बिहार के आधुनिक इतिहास वाले हिस्से में इंदिरा गांधी के निरंकुश शासन और आपातकाल के समय बढ़े दमन का विस्तार से जिक्र था. लेकिन साइट को अपडेट कर दिए जाने के बाद उस हिस्से से इंदिरा गांधी का नाम हटा दिया गया है.
रिपोर्ट के मुताबिक, पहले लिखा था, "यह जेपी ही थे जिन्होंने निरंतर और मजबूती से इंदिरा गांधी के निरंकुश शासन और उनके छोटे बेटे संजय गांधी का विरोध किया था."
अपडेट में इंदिरा का नाम तो हटा दिया गया है लेकिन जेपी का जिक्र जरूर है. ये बात अलग है कि जेपी का योगदान भी अब कमतर हो गया है. लेख को अपडेट करते हुए बताया गया है, "यह जेपी ही थे जिन्होंने ऐसे आंदोलन का नेतृत्व किया जिसकी बदौलत जनता पार्टी को भारी जीत मिली ओर केंद्र में गैर कांग्रेसी सरकार बन सकी. जेपी के आशीर्वाद से मोरारजी देसाई देश के चौथे प्रधानमंत्री बने."
बिहार में महागठबंधन की सरकार है जिसमें कांग्रेस भी हिस्सेदार है. वैसे देखा जाए तो कांग्रेस के ही दबाव के चलते ही लालू ने नीतीश कुमार को महागठबंधन के नेता के तौर पर स्वीकार किया. जहर पीने की बात कह कर लालू ने जाहिर भी कर दिया कि किन परिस्थितियों में वो नीतीश को नेता मानने को राजी हुए हैं.
चुनाव से पहले कांग्रेस का नीतीश पर दबाव तो रहा ही, चुनाव जीत कर कांग्रेस ने भी इतनी सीटें हासिल कर ली कि सरकार में उसका दबदबा कायम रहे. और कुछ न सही तो लालू के प्रभाव को बैलेंस करने में तो नीतीश को हर कदम पर जरूरत महसूस हो.
अब कांग्रेस के नीतीश सरकार में भागीदार रहते कैसे मुमकिन था कि बिहार की साइट पर जेपी का यशगान इस रूप में हो कि इंदिरा की तौहीन हो. पिछले दिनों कई मौकों पर नीतीश ने रहीम के दोहे सुनाए. रहीम का ही एक दोहा है, "जाल परे जल जात बहि, तजि मीनन को मोह, रहिमन मछरी नीर को तऊ न छाड़त छोह." ये दोहा नये संदर्भ में काफी प्रासंगिक प्रतीत हो रहा है.
गठबंधन की मजबूरी के चलते संभव है नीतीश को भी इस मामले में लालू के जहर पीने जैसा ही अनुभव हुआ हो. लेकिन जेपी को लेकर नीतीश के मन में जो अमिट छाप है उसे उनसे कौन गठबंधन छीन सकता है.
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