क्या उत्तर प्रदेश कि जनता को पसंद आएगा ये साथ?
अखिलेश संग राहुल. यूपी को ये साथ पसंद है! सपा और कांग्रेस भले ही इस गठबंधन के लिए नारा लगा रहे हों, लेकिन क्या वाकई ऐसा है? क्या है वर्तमान स्थिती आखिर क्यों अखिलेश को महंगा पड़ सकता है ये गठबंधंन?
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'यूपी को ये साथ पसंद है' के नारे के साथ मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने रविवार 29 जनवरी को एक साथ वोट मांगने की अपील की. यूपी के मुख्यमंत्री और राहुल गांधी ने लखनऊ में संयुक्त संवाददाता सम्मेलन को संबोधित किया. सीटों को लेकर खींचतान को किनारे कर आखिरकार अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी और राहुल गाँधी की कांग्रेस उत्तर प्रदेश के चुनावों में एक साथ आ ही गई. गठबंधन के बाद दोनों ही दल इसे अपने लिए फायदे का सौदा मान रहे हैं, हालाँकि उत्तर प्रदेश की जनता को ये साथ कितना पसंद आया इसका पता तो 12 मार्च को ही चल पायेगा.
बिहार में महागठबंधन में सम्मलित होकर जहाँ कांग्रेस ने समझदारी का परिचय दिया था तो वहीं उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी कांग्रेस की इज्जत बचाने के लिए सबसे बेहतर विकल्प साबित हो सकती है. हालाँकि, सीटों के बंटवारे में कांग्रेस को कुछ कम सीटों पर संतोष करना पड़ा मगर ये स्थिति भी कांग्रेस के लिए सुखद ही है क्योंकि 2014 के आम चुनावों के बाद जिस प्रकार से चुनाव दर चुनाव कांग्रेस की स्थिति हुई वैसे में पार्टी उत्तर प्रदेश के चुनावों में कुछ ख़ास कर जाय इसकी उम्मीद कम ही थी. कांग्रेस के पास वर्तमान परिस्तिथि में खोने के लिए कुछ ख़ास है नहीं ऐसे में कांग्रेस 105 सीटों के साथ भी खुश ही नजर आ रही है.
वैसे देखा जाय तो कांग्रेस के साथ गठबंधन समाजवादी पार्टी को उत्तर प्रदेश के चुनावों में लाभ पहुंचा सकता है मगर कई मामलों में इस मुद्दे पर अखिलेश विपक्ष के निशाने पर रहेंगे. जहाँ एक तरफ अपनी स्वच्छ छवि गढ़ने के लिए अखिलेश यादव ने अपने बाप चाचा से बगावत कर ली तो वहीं कांग्रेस के साथ गठबंधन पर उन्हें सफाई देनी पड़ सकती है. कभी देश की सबसे बड़ी पार्टी रही कांग्रेस हालिया दौर में अपने अच्छे कामों से ज्यादा अपने कार्यकाल में हुए घोटालों के लिए बदनाम है, ऐसे में विपक्ष एक तीर से दो निशाना साध सकता है, जहाँ कांग्रेस के भ्रष्टाचारों का साया अखिलेश पर भी पड़ना तय है. कुछ मामलों में जनता का कांग्रेस से नाराजगी का खामियाजा समाजवादी पार्टी को भी भुगतना पड़ सकता है.
वैसे इस गठबंधन के बाद चुनावी रणनीति में चाणक्य माने जाने वाले प्रशांत किशोर को थोड़ी राहत जरूर दी होगी, जो इस चुनाव में कांग्रेस के खेवनहार बने हैं. प्रशांत किशोर इससे पहले नरेंद्र मोदी और नितीश कुमार के चुनावी कैम्पेन में मुख़्य भूमिका में नजर आ चुके है, गठबंधन न होने की स्थिति में उनपर कांग्रेस को अकेले चुनावों में ले जाना कठिन हो सकता था. अब जबकि गठबंधन हो चुका है तो आने वाले कुछ दिनों में जनता का रुख इस बात की थोड़ी बहुत झलकी दे सकता है कि उनको ये साथ कितना भाया मगर यह गठबंधन किस-किस के लिए बेहतर रही यह मार्च के महीने में साफ़ हो पायेगा.
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