येचुरी को 'मोदी केयर' इसलिए पसंद नहीं आ रहा - क्योंकि एजेंडा ही आंख मूंद कर विरोध जताना है
आयुष्मान भारत को लेकर सीपीएम नेता सीताराम येचुरी का विरोध बिलकुल वैसे ही लगता है जैसे राहुल गांधी सर्जिकल स्ट्राइक को खून की दलाली से जोड़ रहे थे - अरविंद केजरीवाल सबूत मांग रहे थे.
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'मोदी केयर' असल में 'आयुष्मान भारत' यानी राष्ट्रीय स्वास्थ्य संरक्षण योजना का ही फैंसी नाम है - जिसे डोनाल्ड ट्रंप द्वारा खारिज किये जा चुके ओबामा केयर की तर्ज पर गढ़ा गया माना, समझा और समझाया जा रहा है.
विपक्षी दल आयुष्मान भारत को भी सिरे से खारिज कर रहे हैं. किसी ने इस स्कीम के लिए फंड को लेकर सवाल खड़े किये हैं, कोई इसे लागू करने के तरीके पर. कांग्रेस ने मोदी सरकार के ट्रैक रिकॉर्ड के आधार पर इसे बेकार करार दिया है. सीताराम येचुरी भी इसके खिलाफ हैं, लेकिन उनकी दलील बिलकुल अलग है.
सीपीएम महासचिव येचुरी की राय में ये योजना राज्यों पर बोझ बढ़ाने वाली स्कीम है. येचुरी का बयान तब आया है जब केरल विधानसभा के स्पीकर का ₹ 50 हजार के चश्मे पर बवाल मचा हुआ है.
₹ 50 हजार का चश्मा!
जिस दिन केरल सरकार ने राज्य के बजट में कड़े वित्तीय अनुशासन की बात कही, उसके अगले ही दिन स्पीकर के महंगे चश्मे की खबर सुर्खियों में छा गयी. कोच्चि के वकील डीबी बीनू ने आरटीआई के जरिये विधानसभा अध्यक्ष पी रामकृष्णन के लिए चश्मा खरीदने में हुए खर्च की जानकारी मांगी थी. आरटीआई आवेदन के जवाब में विधानसभा सचिवालय ने बताया कि अध्यक्ष के चश्मे पर ₹ 49,900 रुपये खर्च हुए. इसमें ₹ 4,900 रुपये चश्मे के फ्रेम पर और ₹ 45,000 रुपये लेंस पर खर्च किये गए. इतना ही नहीं स्पीकर को अक्टूबर 2016 से जनवरी, 2017 के बीच ₹ 4.25 लाख रुपये मेडिक्लेम के तहत भुगतान किया गया.
आखिर राज्य सरकारें होती किसलिए हैं?
बचाव में स्पीकर रामकृष्णन का कहना है कि चश्मा डॉक्टरों की सलाह पर खरीदा गया. सही तो कह रहे हैं स्पीकर. अब कोई खुद ही अपनी आंख चेक कर चश्मा तो लेगा नहीं. लेकिन स्पीकर क्या ये भी बताएंगे कि डॉक्टरों ने प्रिस्क्रिप्शन में कीमत भी ₹ 50 हजार लिख कर दी थी क्या? फिर तो किसी को शिकायत नहीं होनी चाहिये क्योंकि ₹ 100 रुपये कम ही खर्च हुए हैं.
स्पीकर के चश्मे की रकम जरूर ज्यादा है लेकिन विवाद तो स्वास्थ्य मंत्री केके शैलजा के चश्मे को लेकर भी हो चुका है. उनका चश्मा भी सरकारी खजाने से ही खरीदा गया था जिसकी कीमत थी - ₹ 28,000.
जब विरोध फितरत बन जाये
ये समझने के लिए कि मोदी सरकार की मेडिक्लेम स्कीम को लेकर येचुरी ने ऐसी बात क्यों कही, मैंने एक वामपंथी साहित्यकार से उनकी राय जाननी चाही.
उनकी पहली प्रतिक्रिया रही, "ये उनके 15 लाख अकाउंट में डालने वाले जुमले जैसा ही है." मैंने कहा - 'उसे तो वो खुद ही बता ही चुके हैं कि चुनावी जुमला था, लेकिन ये तो चुनी हुई सरकार के आम बजट का हिस्सा है. भला ये भी जुमला कैसे हो सकता है?
उनकी टिप्पणी थी - 'इसमें कोई ट्रांसपेरेंसी नहीं है. इनकी किसी भी योजना में कोई ट्रांसपेरेंसी नहीं होती.'
अगला सवाल था - 'क्या लेफ्ट पार्टियों की सरकार में सब कुछ ट्रांसपेरेंट होता है और बाकियों में नहीं? क्या केरल सरकार में सब कुछ ट्रांसपेरेंट होता है?
फिर वो कहने लगे, "अभी मैंने इसे ठीक से देखा नहीं है. मेरी कुछ और व्यस्तताएं थीं. मैं देखकर आपको बताता हूं."
बहरहाल, मुझे उनसे कुछ और जानने की जरूरत नहीं थी. मुझे जो मालूम करना था वो तो उन्होंने पहली बार में ही बता ही दिया था.
सत्ता पक्ष का विरोध, विपक्ष का धर्म हो सकता है. विपक्ष को मिले विरोध के इस अधिकार से न तो कोई वंचित कर सकता है और न ही विपक्ष को विरोध करने के कर्तव्य से कभी पीछे हटना चाहिये. लेकिन विरोध विपक्ष की फितरत बन जाये तो? फिर क्या समझा जाये?
नीतिगत विरोध के बावजूद कांग्रेस नेता शशि थरूर ने सरकारी स्वास्थ्य बीमा की तारीफ की है. हालांकि, कांग्रेस ने मोदी सरकार के चार साल के कार्यकाल के प्रदर्शन के आधार पर इस पर सवाल उठाया है.
One good thing in #Budget2018 is the health insurance scheme to cover 500 million Indians. But the budget figures show no serious allocation for it, &the Fasal Bima Yojana has already proved a boon for insurance companies more than the insured. Will it prove another #jumla?
— Shashi Tharoor (@ShashiTharoor) February 1, 2018
कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सूरजेवाला कहते हैं, "फरवरी, 2016 के बजट में राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना बतायी गयी जिसमें ₹ 1 लाख का बीमा कवर था. दिसंबर, 2016 तक कुछ भी नहीं हुआ." सूरजेवाला ने 2017 में बीपीएल कार्डधारकों की योजना का वादा हुआ लेकिन हासिल सिफर ही रहा - और अब एक और झूठ का पुलिंदा पेश किया गया है.
सवाल ये जरूर उठाया जा सकता है कि इस स्कीम को किस हद तक लागू किया जा सकता है? सवाल ये जरूर है कि क्या इस स्कीम का फायदा उन लोगों को वास्तव में मिल सकेगा जिनके लिए इसे बनाया गया है? कहीं ऐसा तो नहीं कि सरकार के सारे इंतजामात के बावजूद पैसा बिचौलियों की जेब में पहुंच जाये.
एनडीटीवी के अनुसार, सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी ने प्रस्तावित बीमा योजना को अव्यवहारिक बताया है. उनका कहना है कि इसका बोझ राज्य सरकारों पर नहीं डालना चाहिए.
समझ में ये नहीं आ रहा कि सीपीएम नेता येचुरी को दिक्कत किस बात से है?
अगर उन्हें लगता है कि इस योजना से राज्यों पर बोझ पड़ेगा तो राज्य होते किस लिए हैं? जनता की भलाई का काम राज्य नहीं करेगा तो कौन करेगा? लोगों की सेहत का ख्याल अगर केंद्र सरकार रखना चाहती है तो राज्य सरकारों के विरोध का क्या आधार हो सकता है? सिर्फ ये कि उनकी आइडियोलॉजी अलग है.
मोदी से शिकवा हो, लेकिन लोगों से क्या गिला?
ये तो वैसे ही है जैसे राहुल गांधी सर्जिकल स्ट्राइक को खून की दलाली बताते हैं और केजरीवाल कहते हैं कि मोदी जी सबूत पाकिस्तान के मुंह पर दे मारिये. इसे इस आधार पर भी खारिज करना कहां तक ठीक होगा कि बीजेपी भी तो जब विपक्ष में थी, ऐसी ही हरकतें किया करती थी. क्या किसी की गलती दोहराकर बदला ले लेने से देश का हित पूरा होगा? अगर राजनीतिक दल सारी ऊर्जा इन्हीं कामों में खपा देंगे तो आम आदमी को क्या मिलेगा? भई कब तक 15 लाख जपते रहेंगे? कभी उससे बाहर निकल कर आगे की दुनिया भी देखेंगे या नहीं? या फिर जो भी अच्छा बुरा सामने आएगा, उसे सिर्फ और सिर्फ 15 लाख वाले चश्मे से ही देखने की कसम खा रखी है?
केरल के स्पीकर के चश्मे को लेकर येचुरी क्या कहना चाहेंगे? जब आपके नेता फायदा उठाएंगे तो आप नजर घुमा लेंगे - और जनता की बात होगी तो सरकारी खजाने पर बोझ बताएंगे? स्पीकर को दिया गया चश्मा क्या किसी की जेब से निकला है - वो भी सरकारी खजाने से ही निकला है - और लोगों के वेलफेयर के लिए स्टेट काम नहीं करेगा तो ऐसे स्टेट की जरूरत क्या है?
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