योगी आदित्यनाथ vs अखिलेश यादव: यूपी चुनाव में इस मुकाबले की कितनी गुंजाइश है
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को टक्कर देने वाला सबसे बड़ा चैलेंजर सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव को ही माना जा रहा है. इसकी वजह भी बहुत हद तक स्पष्ट नजर आती है. कांग्रेस तीन दशकों से सत्ता से दूर है और बसपा सुप्रीमो मायावती का ग्राफ 2012 के बाद से ऐसा गिरा है कि उठ ही नहीं रहा है.
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भारत में चुनाव WWF फाइट नहीं है, तो उससे कम भी नहीं. हर चुनाव में एक बड़े मुकाबले की उम्मीद दर्शकों, माफ कीजिये वोटरों को रहती है. वैसे ही जैसे क्रिकेट प्रेमी भारत-पाक मुकाबले का इंतजार करते हैं. कांटे वाला मुकाबला. महामुकाबला टाइप कुछ. जहां दो दिग्गज आमने सामने हों. चुनाव प्रचार में आग उगली जा रही हो. जब वोटों की गिनती हों, तो सांस थाम लेने वाला सस्पेंस बने. कभी एक नेता आगे, तो कभी दूसरा. जैसे हाल ही में नंदीग्राम में ममता बनर्जी औेर सुवेंदु अधिकारी के बीच देखने को मिला. उससे पहले 2019 में अमेठी में राहुल गांधी और स्मृति इरानी में. 2014 में मोदी बनाम केजरीवाल. हालांकि, ऐसे चुनाव नतीजों से तुलनात्मक जनसमर्थन के अलावा कुछ भी अंदाजा नहीं मिलता. जमीन पर बदलता कुछ नहीं है. सुवेंदु अधिकारी से हार जाने के बावजूद ममता बंगाल की मुख्यमंत्री हैं. राहुल गांधी के मुकाबले स्मृति ईरानी को एक प्रतिशत भी मीडिया कवरेज नहीं मिलता है. मोदी केंद्र के सूरमा हैं, तो केजरीवाल दिल्ली विधानसभा के ही सही. यानी महा-मुकाबला निवर्तमान सम्राट और प्रमुख चैलेंजर के बीच एक सीधासादा मैच होता है. पर, ये मुकाबला किस सीट पर हो, हो भी या न हो, जैसे कई सवाल खड़े होते हैं. आइये, विवेचना करते हैं ऐसे ही एक चुनाव की, जहां आमने-सामने योगी आदित्यनाथ और अखिलेश यादव हों.
यूपी विधानसभा चुनाव हर लिहाज से सीएम योगी और अखिलेश यादव के लिए बहुत जरूरी नजर आता है.
क्या योगी आदित्यनाथ या अखिलेश यादव चुनाव लड़ने की इच्छा रखते भी हैं?
2024 के लिहाज से भाजपा के लिए उत्तर प्रदेश में अपना पिछला प्रदर्शन दोहराना बहुत जरूरी है. अगर ऐसा नहीं हो पाता है, तो जो हालात काफी हद तक अभी भाजपा के पक्ष में नजर आ रहे हैं, वो बदल सकते हैं. वहीं, सपा की बात करें, तो पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव की साख दांव पर लगी है. 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ गठबंधन कर हार का बोझ उन्हें अपने ही कंधों पर उठाना पड़ा. क्योंकि, कांग्रेस तो वैसे ही प्रदेश में तकरीबन खत्म हो चुकी थी. वहीं, 2019 के लोकसभा चुनाव में बसपा सुप्रीमो मायावती के साथ गठबंधन का नुकसान भी सपा के खाते में ही गया था. खैर, इस नफे-नुकसान से इतर बड़ा सवाल तो यही है कि क्या योगी आदित्यनाथ और अखिलेश यादव विधानसभा चुनाव लड़ेंगे? हाल ही में योगी आदित्यनाथ के अयोध्या से चुनाव लड़ने की खबरें सामने आई थीं. कहा जा रहा है कि भाजपा इस बार प्रदेश के कई बड़े नेताओं को विधानसभा चुनाव लड़ाकर बड़ा संदेश देना चाहती है. वैसे, भाजपा जो संदेश देना चाहती है, वो शायद सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव तक नहीं पहुंचा है. क्योंकि, सपा की ओर से अभी तक अखिलेश के चुनाव लड़ने की कोई खबर सामने नहीं आई है.
संभावना ये भी है कि दोनों ही चुनाव न लड़ें
योगी आदित्यनाथ और अखिलेश यादव ये दोनों ही नेता मुख्यमंत्री बनने के बाद उत्तर प्रदेश विधान परिषद के सदस्य निर्वाचित हुए थे. तो, इस बात की संभावना बहुत हद तक बढ़ जाती है कि योगी और अखिलेश चुनाव ही न लड़ें. और जनता की अदालत में जाने की जगह फिर से उच्च सदन की राह पकड़ लें. हालांकि, राजनीतिक परिप्रेक्ष्य से देखा जाए, तो दोनों ही नेताओं के सामने खुद को साबित करने की चुनौती नही है. क्योंकि, ये दोनों ही सांसद रहे हैं, तो योगी और अखिलेश के लिए विधानसभा चुनाव जीतना कोई बड़ी बात नजर नहीं आती है. लेकिन, राजनीति में कुछ भी असंभव नही है, तो इस बात की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है कि दोनों चुनाव ही न लड़ें और पिछली बार की ही तरह विधान परिषद की राह पकड़ लें.
परंपरा ये है कि दोनों अपने कंफर्ट वाली सीट से चुनाव लड़ें
योगी और अखिलेश दोनों ही लंबे समय तक सांसद रहे हैं. सीएम योगी गोरखनाथ मठ के पीठाधीश्वर हैं और गोरखपुर संसदीय सीट से 1998 से सांसद बनते आ रहे हैं. वहीं, सपा प्रमुख अखिलेश यादव कन्नौज लोकसभा सीट से चुनाव लड़ते रहे हैं. हालांकि, 2019 में उन्होंने अपने पिता मुलायम सिंह यादव की लोकसभा सीट आजमगढ़ से लोकसभा चुनाव लड़ा था. अगर दोनों नेताओं को चुनाव लड़ना होगा, तो ये तय है कि वो अपने कंफर्ट वाली सीट से ही चुनाव लड़ेंगे. कंफर्ट वाली सीट को आसान शब्दों में कहा जाए, तो योगी आदित्यनाथ गोरखपुर संसदीय सीट के अंदर आने वाली किसी भी विधानसभा से चुनाव लड़कर आसानी से जीत हासिल कर सकते हैं. वहीं, अखिलेश यादव भी निश्चित तौर पर ऐसा ही करेंगे. आजमगढ़ जो कभी मुलायम का गढ़ था, उस सीट से अखिलेश के लिए चुनाव जीतने में शायद ही कोई बड़ी बाधा सामने आएगी.
चैलेंज तो ये है कि दोनों एक सीट तय कर लें, और वहां से आमने सामने हों
योगी आदित्यनाथ और अखिलेश यादव एक-दूसरे को जुबानी चुनौती देते रहे हैं. 'बाबाजी जाने वाले हैं' और 'उनके अब्बाजन कहते थे' जैसे शब्दबाणों के बीच दोनों ही नेता बयानों के सहारे बढ़त हासिल करने की कोशिश करते नजर आते हैं. अगर सीएम योगी और अखिलेश विधानसभा चुनाव लड़ने का मन बनाते हैं, तो अपने कंफर्ट सीट से ही चुनाव लड़ेंगे. लेकिन, असली चैलेंज तो ये है कि ये दोनों नेता आपस में एक सीट तय कर लें, और वहां से आमने-सामने का चुनाव लड़ें. दोनों नेताओं के बीच होने वाले इस चुनावी संग्राम से काडर में भी जोश बढ़ेगा और मतदाताओं का आनंद भी दोगुना हो जाएगा.
चूंकि, चैलेंजर अखिलेश यादव हैं तो क्या वे योगी को मैदान में आने के लिए ताल ठोंकेंगे?
उत्तर प्रदेश में भाजपा के सामने सबसे बड़े चैलैंजर के तौर पर समाजवादी पार्टी का नाम ही सामने आ रहा है. और, वैसे भी योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री हैं, तो उनके सामने सपा के मुखिया होने के नाते मुख्य चैलेंजर अखिलेश यादव ही हैं. अखिलेश यादव भी सपा को भाजपा के सामने मुख्य प्रतिद्वंदी पार्टी के तौर पर पेश कर रहे हैं. अखिलेश ने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में किए गए विकास कार्यों के सहारे वो भाजपा को केवल अपनी सरकार के प्रोजेक्ट्स का उद्घाटन करने वाली पार्टी साबित करने में उन्होंने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है. चूंकि, चैलेंजर अखिलेश यादव हैं तो क्या वे योगी आदित्यनाथ को मैदान में आने के लिए ताल ठोंकेंगे? अगर ऐसा हो जाता है, तो इस बार के यूपी विधानसभा चुनाव की रोचकता कई मायनों में अन्य चुनावों के महत्व को शून्य कर देगी.
क्या योगी खुद अखिलेश के गढ़ में आकर खुद को यूपी के चक्रवर्ती साबित करना चाहेंगे?
सीएम योगी आदित्यनाथ ने मुख्यमंत्री बनने के साथ ही अपराधियों को प्रदेश छोड़ने की चुनौती दे दी थी. भ्रष्टाचार से लेकर माफियाओं तक के खिलाफ सीएम योगी की जीरो टॉलरेंस नीति काफी सुर्खियों में रही है. एंटी रोमियो स्कवॉड से शुरूआत कर वो अब जनसंख्या नियंत्रण कानून तक आ चुके हैं. सीएम योगी का मानना है कि उन्हें हर तबके के लोग पसंद करते हैं. इस स्थिति में अगर योगी और अखिलेश दोनों नेता चुनाव लड़ते हैं, तो क्या योगी खुद अखिलेश के गढ़ में जाकर खुद को यूपी के चक्रवर्ती साबित करना चाहेंगे? इस सवाल पर कल्पना के घोड़े दौड़ाते ही सियासी थर्मामीटर का पारा फेल होता नजर आने लगता है. अगर योगी आदित्यनाथ ऐसा करते हैं और हार या जीत में कुछ भी होता है, तो प्रदेश के साथ ही देश की राजनीति की दशा और दिशा बदलने में ज्यादा समय नहीं लगेगा.
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