मोबाइल की 4 लत जिसके शिकार लोगों की संख्या करोड़ों में है
लोगों की जिंदगी में मोबाइल फोन आने के बाद इन्हें चार लत लग चुकी हैं. जिससे इनकी जिंदगी नर्क समान हो गई है.
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बिहार में नीतीश कुमार और डीजीपी एक सेमिनार में अफसरों को शराब बंदी आदि को लेकर संबोधित कर रहे थे तभी कोई आईपीएस अफसर मोबाइल पर कैंडी क्रश गेम खेल रहा था तो कोई व्हाट्सएप पोस्ट टटोल रहा था. एक पुलिस ऑफसर के मोबाइल स्क्रीन पर ट्रंप और उनकी पत्नी की तस्वीर नजर आ रही थी. अब इन अफसरों को नोटिस दिया जा रहा है. सजा मिलना भी लाजमी है. लेकिन, सवाल यह उठता है कि जिन तीन अफसरों को यह नोटिस दिया गया है, वे इतने गंभीर मौके पर आखिर मोबाइल पर गेम कैसे और क्यों खेल थे. जवाब है- 'लत' या 'चस्का'.
इसे समझने के लिए हमें पहले मोबाइल की जेनरेशन को समझना होगा:
1. मोबाइल फोन बनाने वालों ने तो यही सोचा होगा कि इससे लोग चलते-फिरते लोगों से बात कर सकेंगे. मैसेजिंग का मोबाइल से जुड़ना अतिरिक्त था. नोकिया और सैमसंग के फोन मोबाइल की इन्हीं सुविधाओं और कुछ सांप आदि वाले सामान्य गेम्स की बदौलत खूब बिके.
2. मोबाइल कैमरों ने फोन के इस्तेमाल में थोड़ा बदलाव लाया.
3. फिर ब्लैकबेरी आया और उसने मोबाइल में इंटरनेट साधकर इमेल आदि को जोड़ा और फोन को स्मार्ट बनाया.
4. लेकिन, उसके बाद जो स्मार्टफोन को और स्मार्ट बनाने की होड़ मोबाइल कंपनियों में लगी तो मामला जहर हो गया.
वक्त तेजी से बदला और मोबाइल सर्व गुण संपन्न हो गया. मोबाइल में हर चीज आ गई. जो लोगों के लिए मजा बन गई. अब फोन पर कॉलिंग ही नहीं सब कुछ होता है. गेम्स, सोशल मीडिया, वॉट्सएप, कैमरा और ना जाने क्या-क्या. इतना सब आने के बाद लोगों को इसका चस्का लग गया. चस्का भी ऐसा कि जरूरी काम छोड़कर लोग मोबाइल में लगे रहते हैं.
जिस फोन के जरिए लोग सिर्फ कॉल या मैसेज किया करते थे. अब इसके उलट लोग सबसे ज्यादा सोशल मीडिया और गेम्स खेलते हैं. स्टेटक्रंच के सर्वे से तो यही निकल कर आया है कि लोग सबसे ज्यादा (42.06%) सोशल मीडिया का इस्तेमाल करते हैं. चैट (40.48%) और 11% लोग गेम्स खेलते नजर आते हैं.
गेम खेलने की लत
एक वो दौर था, जब लोग फुर्सत के क्षणों में नोकिया फोन पर एक गेम में सांप को खिला-पिलाकर उसकी लंबाई बढ़ाने में लगे रहते थे. लेकिन एंड्रॉयड और आईफोन के जमाने में गेम्स बनाने वाली कंपनियां ज्यादा नशीले गेम्स लेकर आई हैं. एंग्री बर्ड, टेंपल रन, सबवे सर्फर्स और कैंडी क्रश कुछ जाने-माने नाम हैं. जी हां, लोग वहीं हैं, बस दौर बदलने के साथ उनके गेम्स बदलते चले गए हैं. शायद छात्र जीवन में यह गेम्स खेलने की लत लगी होगी. अब आईपीएस बन गए तो क्या हुआ.
वॉट्सएप
सिर्फ गेम्स ही नहीं, वॉट्सएप लोगों की जिंदगी में पूरी तरह घुस चुका है. सुबह के गुड मॉर्निंग से लेकर गुड नाइट मैसेज तक सभी चीजें वॉट्सपए से होती हैं. दफ्तर हो या घर में हर कोई मोबाइल अपने हाथ में रखता है और वॉट्सएप खोलकर फनी मैसेज और फोटो देखने लगता है, जिसे देखकर इन लोगों को हंसी तो बहुत आती होगी, लेकिन शायद इनको पता नहीं कि ये मजा उनके लिए सजा भी बन सकता है.
इसी साल कर्नाटक में भाजपा के एमएलसी महंतेश कवातागीमथ ने सरकारी अधिकारियों और मीडिया के बीच सूचना साझा करने को लेकर बनाए गए एक व्हाट्सऐप ग्रुप में कथित तौर पर अश्लील तस्वीरें साझा कर दीं. जिसके लिए उनको सभी के सामने माफी मांगनी पड़ी थी. यानी वॉट्सएप का ऐसा चस्का कि भूल ही गए कि किसको क्या भेजना है. गजब है...
पॉर्न
इंटरनेट पर इससे बड़ी कोई लत नहीं है. और जब मोबाइल जैसा पर्सनल डिवाइस हो तो क्या कहना. बिहार के आईपीएस अफसर तो कैंडी क्रश गेम ही खेल रहे थे, कर्नाटक विधानसभा में 2012 में सीसी पाटिल, लक्ष्मण सावदी और कृष्ण पालेमर अश्लील वीडियो देखते पाए गए थे, जिसके चलते उन्हें इस्तीफा देना पड़ा था. यही नहीं, 2015 में ओडिशा में कांग्रेस के एक विधायक को विधानसभा के अंदर पॉर्न देखते हुए पकड़ा गया था. कांग्रेस विधायक नबा किशोर दास को मोबाइल पर पॉर्न देखने पर विधानसभा से निलंबित कर दिया गया.
फेसबुक
आज कल सभी मोबाइल यूजर्स के पास फेसबुक अकाउंट है. पान ठेले की दुकान हो... ऑफिस हो... या फिर घर पर... लोग फेसबुक खोलते हैं और स्क्रीन को ऊपर नीचे करके फोटो देखते दिखते हैं. फोटो देखने का चस्का ऐसा कि सारे काम भाड़ में जाएं. लोगों का पहला काम फेसबुक चेक करना बनकर रह गया है.
अब ऐसा कैसा टाइमपास जो सजा बना जाए. लेकिन अब क्या करें ये तो लत है. तब तक नहीं जाएगा जब तक इन पुलिस ऑफसरों की तरह लोगों को नोटिस न मिल जाए. दरअसल, सूचना क्रांति के इस दौर में हम आदी हो गए हैं हर वक्त किसी न किसी आहट के. यदि कुछ देर तक हमारा मोबाइल शांत रहे तो हमें ही बेचैनी होने लगती है कि कहीं यह खराब तो नहीं हो गया. या कोई बड़ी बात हुई और यह नोटिफिकेशन देना तो नहीं भूल गया.
विशेषज्ञ अब इस लत को बीमारी मानने लगे हैं. यह सिर्फ बिहार के अफसरों को ही भारी नहीं पड़ी है. इसके शिकार लाखों-करोड़ों की संख्या में हैंं. ऐसे लोगों को सजा नहीं, इलाज की जरूरत है. या फिर शायद सजा ही इलाज हो. आपको क्या लगता है ?
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