फेसबुक - व्हाट्सऐप पर ये कंटेंट दिखे तो कभी न पढ़ें, क्योंकि इससे क्रांति नहीं आएगी
सोशल मीडिया के इस दौर में हर चीज़ शेयर करने के लिए पोस्ट करी जा रही है. हर कोई ज्यादा से ज्यादा शेयर होना चाहता है लेकिन हम भूल जाते हैं कि इसके कई दुष्परिणाम भी हैं, जो बेहद घातक हैं.
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रात को 11:30 बजे दफ्तर में कीबोर्ड तोड़ने के बाद, मैं थका हारा पसीने में तर, अपने घर पहुंचा. घर में न लाइट थी, न पानी. मैं बिस्तर पर लेट गया. चूँकि यहाँ दिल्ली में गर्मी बहुत है और बीती रात लाइट भी नहीं थी अतः नींद न आई और मैं इधर से उधर यहाँ से वहां करवट बदलता रहा. जब नींद ज्यादा देर तक न आई तो मैंने अपना मोबाइल उठा लिया. मोबाइल में बैटरी सिर्फ 15 परसेंट शेष थी. मोबाइल पर आदतन मैंने फेसबुक खोला और व्हाट्सऐप चेक किया. सबसे बड़ी और मज़ेदार बात इस पूरी प्रक्रिया के दौरान मैं जाग रहा था.
जी हां, बिल्कुल सही सुना आपने, 'मैं जाग रहा था'. जागने के अलावा मैं ये भी सोच रहा था कि आखिर क्या होता होगा जब असहिष्णुता के इस दौर में, फेसबुक से कॉपी किया गया कंटेंट पढ़कर देश का सोया हुआ हिन्दू या मुसलमान व्हाट्सऐप पर जागता होगा? क्या वो ऐसा कंटेंट पढ़कर दोबारा सो जाता होगा? क्या उसे बड़ी कस के, एकदम प्रेशर के साथ क्रांति लगती होगी? क्या उसे लगता होगा कि सोशल मीडिया पर क्रांति और बदलाव के इस युग में उसका एक ट्वीट, रिट्वीट या फिर फेसबुक शेयर, बोतल वाले राकेट में माचिस लगाकर दुश्मन के खात्मे की ओर बढ़ने का पहला कदम है.
सोशल मीडिया पर क्रांति यूं ही नहीं होती, लम्बा वक़्त लगता है
हमारे पास सवालों की भरमार है मगर जवाब बहुत लिमिटिड हैं. सवाल वही है कि फेसबुक से कॉपी किया गया कंटेंट व्हाट्सऐप पर पढ़कर, देश का सोया हुआ हिन्दू या मुसलमान करता क्या है? तो शायद जवाब हो 'कुछ खास नहीं, थोड़ी फेसबुकिया क्रांति के बाद अपने ज़रूरी काम.' जैसे उठते ही साथ लॉन या दरवाजे में अखबार की तलाश. पानी के लिए मोटर ऑन करना. बिजली का बिल कम आए इसके लिए आधी आंख खोल कूलर का स्विच ऑफ करना. बच्चों के गंदे जूतों को सूती कपड़े से साफ करने के बाद उनपर पॉलिश करना, बच्चे की यूनिफार्म की शर्ट में लगे आम के अचार के दाग को ड्राई क्लीन कर प्रेस से सुखाने के बाद बच्चों को पहनाना. उन्हें स्कूल बस तक छोड़ने जाना.
बच्चों को स्कूल बस तक छोड़ने और इतना सब करने के बाद देश का हिन्दू या मुसलमान ऑफिस जाने से पहले कुछ वक्त अपने लिए निकालता है. वो चाय पीते हुए अखबार पढ़ता है, नाश्ता करते हुए फेसबुक और ट्विटर की न्यूज फीड पढ़ता है और हर तीसवें सेकंड नाक भौं सिकोड़ता है. इस देश के हिन्दू या मुसलमान को इससे मतलब नहीं है कि घर में गैस खत्म होने वाली है, कमरे में लगे हुए एसी का कंडेंसर खराब है, बेटे के ट्यूशन टीचर की फीस बकाया किये 10 दिन हो चुके हैं, जनरल स्टोर वाले अग्रवाल जी ने भी हिसाब का परचा पकड़ा दिया है, दूध वाले से लेके अखबार तक सबसे अपने - अपने बिल दे दिए हैं.
वो इन सभी बातों को इग्नोर करते हुए इस बात पर ज्यादा फिक्रमंद रहता है कि युगांडा में आयोजकों ने मोदी जी को गुलदस्ते में डहेलिया के फूल दिए, जबकि उन्हें मोदी जी की महिमा देखते हुए सफ़ेद या पीले गुलाब के फूल देने चाहिए थे. या फिर आखिर क्यों फ़्रांस में रहने वाले मुस्लिम युवा बिलांग भर की दाढ़ी रखने लग गए हैं. क्यों बेल्जियम में रहने वाली मुस्लिम महिलाओं ने अचानक से बुर्का पहनना शुरू कर दिया.
सोशल मीडिया पर क्रांति यूं ही नहीं होती, लम्बा वक़्त लगता है
कुल मिलाकर उसे इस बात का कोई फर्क नहीं पड़ता कि हमारे अपने घर में क्या हो रहा है बल्कि उसे इस बात की ज्यादा टेंशन है कि पड़ोस में रहने वाले शर्मा जी की बीवी ने अरहर की दाल जीरे और करी पत्ते से छौंक दी है. ऐसी क्या बात हो गयी जो आज उसकी खुशबू उनके घर तक नहीं आई. कहीं आज भाभी जी ने दाल के लिए मिलावटी जीरे का तो इस्तेमाल नहीं किया है.
ये एक बेहद कॉमन सीन है कि मेट्रो या फिर सिटी बस से सफर कर इस देश का आम हिन्दू या मुसलमान लेट ऑफिस पहुंचता है. लेट पहुचंने के बाद वो टारगेट के पूरा न होने को लेके बॉस की गाली खाता है. इन गालियों से फ्रस्ट्रेट जब वो कैफेटेरिया में खाने की मेज पर टिफिन खोलता है और उसमें रखी ठंडी रोटियों संग लंच बॉक्स के किनारे में टिंडे, लौकी, करेले वाली मिक्स वेज देखकर उसका फ्रस्ट्रेशन अपने चरम पर पहुचं जाता है.
इस स्थिति तक आते - आते इस देश के हिन्दू या मुसलमान के अन्दर फेसबुक का कंटेंट व्हाट्सऐप पर पढ़कर जागने और फिर जागकर क्रांति करने की इच्छा लगभग मर सी जाती है.
सोशल मीडिया पर क्रांति यूं ही नहीं होती, लम्बा वक़्त लगता है
याद रखिये, मरे हुए लोग या फिर मरने की इच्छा रखने वाले लोग ठेकेदारी तो कर सकते हैं मगर क्रांति की बिल्डिंग का कंस्ट्रक्शन नहीं करते. अगर पढ़ने मात्र से ही क्रांति की इबारतों की रचना होती तो आज जो हमारी स्थिति है वो वैसी न होती. ध्यान रहे हम अपने बचपन से लेके आजतक कई बातों को पढ़ चुके हैं और उन्हें इग्नोर कर चुके हैं. आज शायद हम शायद सच्चाई देख नहीं रहे या फिर उसे देखना ही नहीं चाहते.
सच्चाई ये है कि फेसबुक का कंटेंट व्हाट्सऐप पर पढ़ने के बाद हमारे अन्दर का हिन्दू या मुसलमान बिलकुल नहीं जागता. हम परेशान लोग हैं, हम परेशानी में भी सुख खोजते हैं. हमें दिखावा करना आता है. हम असल जीवन से लेकर सोशल मीडिया तक दिखावा कर रहे हैं, करते आ रहे हैं. हम अपनी मूल समस्याओं को भुलाकर उन समस्याओं में दिलचस्पी ले रहे हैं जिनका हमारे दैनिक जीवन में कोई महत्त्व नहीं है.
अपनी बात खत्म करते हुए बस यही कि यदि आपको वाकई फेसबुक वाला कंटेंट व्हाट्सऐप पर पढ़कर जागना है तो उससे पहले उन सभी बकाया कामों को खत्म कर लीजिये. याद रखिये ये काम न जाने कब से रुके पड़े थे इन्हें आपको खत्म करना है. इन रुके हुए काम काफी लम्बे समय से आपका इंतजार कर रहे थे. जीवन छोटा और दुनिया गोल है, प्रयास करिए कि आप खुश रहें. ये खुशी आपको केवल आपका परिवार ही दे सकता है.
वास्तव में आप जागे हुए और जागरूक तभी माने जाएंगे जब आप अपने रिश्ते सहेज के रख पा रहे हों. यदि आप ऐसा नहीं करते हैं तो न तो आप जागे ही हुए हैं और न ही जागरूक. अंत में इतना ही परिवार को समय दीजिये घर में फेसबुक, ट्विटर से दूरी बनाकर चलिए. ऐसा करने के बाद जीवन सुख से बीतेगा.
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