सोशल मीडिया वाली 'भक्ति' के लिए रिश्तों को दांव पर लगाने वाले और कितना गिरेंगे?
जैसा सोशल मीडिया (Social Media) पर लोगों का रवैया है अब हर चीज में राजनीति (Politics) है. बात मौजूदा वक़्त की हो तो चाहे फेसबुक (Facebook) हो या ट्विटर (Twitter) देश या तो प्रधानमंत्री मोदी (PM Modi Supporters) के समर्थन में है या फिर वो आलोचना के नाम पर राहुल गांधी (Rahul Gandhi Supporters) के साथ खड़ा है.
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इन दिनों, सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म लोगों को धीरे-धीरे डसने लगे हैं. 'उसकी शर्ट मेरी शर्ट से सफ़ेद कैसे?' के दिन अब लद चुके हैं. बीते एक दशक से अब इसके स्थान पर 'उसके Like, Comment, Followers मेरे से अधिक कैसे' ट्रेंड कर रहा है. प्रेमी-प्रेमिका से नाराज़ हो उठता है कि 'मेरी पोस्ट छोड़ तूने उसकी पोस्ट पर दिल क्यों बनाया?' शक़ को दूर करने के लिए पासवर्ड भी रख लेता है. कई पति भी अपनी पत्नी का पासवर्ड रखते हैं कि 'ये तो भोली है, मुझे ही इसका ध्यान रखना पड़ेगा'. जबकि उसका उद्देश्य नज़र रखने का रहता है. कहीं मित्र, रिश्तेदार भी मुंह फुलाये घूमते कि 'देखो! कितने भाव बढ़ गए, हम भी उसकी पोस्ट पर नहीं जाएंगे अब!' ऐसे कई किस्से आप रोज़मर्रा सुनते ही होंगे. ईर्ष्या, प्रतिस्पर्धा का ये आलम तब है जबकि इससे कोई आर्थिक लाभ ही नहीं! कोई न गिनने वाला! बस मन को संतुष्टि मिलती है कि इतने लोग हमें जानते हैं. चाल में एक ठसका आ जाता है. मुस्कान डेढ़ के बजाय दो इंच हो जाती है. अब उसके बाद क्या? वही तुम वही हम! जब मुसीबत में होंगे तो इनमें से कोई भी न आएगा. गिने-चुने करीबियों को छोड़ दिया जाए तो ये हजारों, लाखों की संख्या अचानक ही एक बड़े खोखले शून्य में परिवर्तित होती दिखेगी. आप फिर एक बार वहीं खड़े होंगे, जहां से ये सफ़र शुरू किया था.
मौजूदा वक़्त में सोशल मीडिया पर मोदी समर्थक और राहुल समर्थक में विभाजित है
बीते सालों से एक नया नाटक और प्रारम्भ हो चुका है. वो है भक्त और अभक्त में बहस का. बहस तो अत्यंत शालीन शब्द है, असल में तो बात जूतमपैज़ार तक पहुंचती है. अब यदि कोई सच में अपने आराध्य की भक्ति की बात करे, तब भी सामने वाले की नज़र में मोदी जी का चेहरा ही चमक उठेगा. ये ईश्वर की महिमा समझें या माननीय का प्रताप, ये आप पर निर्भर है. आप किसी को फेंकू कहें तो वह तुरंत आपको पप्पू कह देगा. संकेत दोनों पक्ष समझते हैं.
देश की डिक्शनरी बिना ऑक्सफ़ोर्ड हस्तक्षेप के, अपने-आप ही बदल चुकी है. 'भक्त' का अर्थ बना 'किसी की धुन में इतना अंधा हो जाना कि आंखों के सामने रखे सच को भी अपने कुतर्कों से नकारने लगें'. कुछ कट्टरों ने तुरंत एक तोड़ निकाला और 'सेक्युलर' को गाली की तरह परोस दिया. इसी दौरान 'देशद्रोही' शब्द का भी पुनर्जन्म हुआ और एक नई क़िस्म की नफ़रत अंगड़ाई लेने लगी. देश स्वतः ही दो खेमों में बंट गया. कल जो मित्र साथ हंसते-बोलते थे, वे अब अपने-अपने पालों में खड़े होकर नित हर शब्द का अनुवाद बनाते हैं, गोया हमारी रसोई मोदी जी या राहुल जी ही चला रहे.
पति-पत्नी की लड़ाई के बीच अब बच्चे या घर-खर्च नहीं आता, मोदी जी आते हैं! क्योंकि एक समर्थक और दूसरा घोर विरोधी. अब बताइए, जिसके लिए लड़ रहे उसे तो पता तक नहीं और इधर आपने रिश्ते ही दांव पर लगा दिए. रिश्तेदारों के मुंह भी आपको देख टेढ़े होने लगे हैं या वो खुन्नस भरी नज़र से देखते हैं. काहे को? क्योंकि तुम्हें वो पसंद हैं और इन्हें कोई और. इतना तो कॉलेज के लड़के भी अपनी प्रेमिका के लिए नहीं लड़ते होंगे जितना युद्ध आजकल लोगों की पोस्ट पर दिख जाता है.
देश में विकास की ये लहर सचमुच अजीब और ख़तरनाक है. ऐसा राजनीतिकरण सदियों बाद देखने को मिला है जहाँ आम लोग बेवज़ह भिड़ रहे. लोगों को राजनीति जैसे नीरस विषय में अचानक ही दिलचस्पी होने लगी है, ऐसा भी नहीं! दरअसल सोशल मीडिया की अंधाधुंध दौड़ में हमारे पास कोई विकल्प ही नहीं बचा, किसी एक को चुनने के सिवाय. अगर चुना नहीं तो आप ढोंगी कहलाये जाएंगे. व्हाट्स एप्प, टीवी, रेडियो, अख़बार सब जगह इन्हीं के जोक्स...!
अब इंसान हैं तो कभी-कभार हंसी निकल भी जाती है. बस, इधर आप हंसे, उधर आप पर भाजपाई या कांग्रेसी होने का ठप्पा लग गया. विरोधी हो तभी तो फॉरवर्ड किया तुमने! ऐसे-कैसे हंस सकते हो जी! पिछली बार जब हमने चुटकुला सुनाया, तब तो ऐसी खींसें नहीं निपोरी थीं तुमने? ब्लाह, ब्लाह, ब्लाह! आप सिर पीटते रहें (अपना ही) पर आक्षेप का ये दौर अंतहीन ही रहेगा. आप कोई भी एक वाक्य बोलें, उसे किसी एक खेमे का ही माना जाएगा.
इस सबमें वे लोग टूटते रिश्ते या ख़ुद अपनी ही मौत मारे जाते हैं जिन्हें केवल 'देश' से मतलब. जो किसी भी क़िस्म की कट्टरता को देश पर हावी नहीं होने देना चाहते, जो 'हत्या' में धर्म नहीं टटोलते, जिनके लिए 'एक भारत' ही 'श्रेष्ठ भारत' है. ये इस देश का दुर्भाग्य है कि इन चंद लोगों पर ही सबसे ज्यादा प्रश्न उठते हैं. और वे हर वक़्त अपनी सफ़ाई देते नज़र आते हैं. उन्हें बिन पेंदी का लोटा, धर्मनिरपेक्षता की पूंछ और कई निम्नस्तरीय अपशब्दों से भी नवाज़ा जाता है.
भारत के इस रूप की कल्पना हमने कभी नहीं की थी. आख़िर ये राजनीतिक दल हमें भिड़ाकर अपना उल्लू सीधा करने के सिवाय और कर ही क्या रहे हैं? उस पर दिक़्क़त ये कि लोग उल्लू बनने को नतमस्तक हैं. उन्हें अपने आक़ा को खुश करके ईनाम जो लूटना है! आज लूट लीजिए और बाद में अपने भाग्य पर बुक्का फाड़ रोइएगा. पर उससे पहले एक सूची भी बनाते चलिए कि इन निर्मोही, स्वार्थी नेताओं के समर्थन के चक्कर में आपने कितने अपने खो दिए हैं. अब इसकी भरपाई कौन करेगा? ये long distance से वोट बैंक भरने वाले निष्ठुर आक़ा? जिन्हें आपका नाम तक पता नहीं.
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