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Updated: 16 दिसम्बर, 2015 05:08 PM
पीयूष बबेले
पीयूष बबेले
  @piyush.babele.5
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यह 16 दिसंबर फिर एक बार दिल्ली में 2012 में चलती बस में हुए निर्भया बलात्कार और हत्याकांड की कड़वी यादें लेकर आया है. इस बार टीस इस बात को लेकर भी है कि बलात्कार कांड में दोषी पाया गया एक लड़का जल्द रिहा हो जाएगा, क्योंकि घटना के समय वह नाबालिग था और नाबालिग को कई सभ्य समाजों की तरह हमारे देश का कानून भी अपराधी नहीं मानता. नाबालिग की रिहाई के खिलाफ हममें से बहुत से लोग एक भावुक विरोध का माहौल बना रहे हैं. और रिहाई का दिन करीब आते-आते इस भावुकता को सरकारी और राजनैतिक समर्थन मिलता भी नजर आ रहा है. तो ऐसे में, क्या ठहर कर यह नहीं सोच लेना चाहिए कि कहीं भावुकता और आवेग में हम न्याय के साथ बलात्कार तो नहीं कर रहे हैं.

जब से यह बलात्कार कांड सामने आया है और उसके बाद इसी तरह की कुछ और मर्मस्पर्षी घटनाएं हुईं, तभी से देश में बलात्कार के लिए बेहद सख्त कानून बनाने की मांग होने लगी. टीवी पर बैठने वाले पैनलिस्ट जहां फांसी की मांग करते रहे, वहीं सड़क की भीड़ बलात्कारी का लिंग काटने से लेकर उसे चौराहे पर फांसी देने जैसी बदले की कार्रवाई को उचित ठहराती रही. अब जिस तरह से सरकार और समाज इस लड़के के बंधन से बाहर आने से घबराने का अभिनय कर रहा है, वह भी बहुत खतरनाक है. प्रतिष्ठित बुद्धिजीवी तक यह कह रहे हैं कि उसका बाल सुधार गृह से बाहर आना समाज के लिए खतरा है. निर्भया के मां-बाप ने तो उसकी पहचान सार्वजनिक करने की मांग की है, ताकि सामाजिक निंदा के कारण वह दोबारा ऐसी हरकत करने की जुर्रत करने से डरे और लोग उससे सावधान रहें.

लेकिन सवाल यह है कि इस विषय में कानून बनाने का काम अपराध शास्त्र, समाज शास्त्र और अन्य मानविकी के विद्वानों की राय से होगा या फिर नारे उछालती गुस्साई भीड़ यह काम कर सकती है. क्या मीडिया में इस आवेशित भीड़ की भावनाओं को प्रमुखता से दिखाकर, सरकारों पर लोकलुभावन या असल में भीड़ लुभावन फैसले लेने का दबाव नहीं बनाया जा रहा है.

दुनिया की महान न्याय प्रणालियों में भारतीयता का समावेश करने के बाद ही हमने अपनी जेलों को सुधार गृह कहना शुरू किया. यह लड़का भी जेल नहीं भेजा गया था, बल्कि बाल सुधार गृह भेजा गया था, यहीं से उसे बाहर आना है. सवाल यह है कि अगर हमने उसे सुधार गृह भेजा तो फिर हम उसके बाहर आने से पहले ही उसके सुधरने की सारी संभावनाओं को क्यों खारिज करना चाहते हैं. क्या बापू को राष्ट्रपिता मानने वाले देश को इस तरह की बातें करने का अधिकार है. अगर दूर की बात छोड़ें और अपने-अपने जीवन में झांकें तो आपको क्या ऐसे दोस्त याद नहीं आते जिन्होंने बचपन में चोरी की हो, छेड़छाड़ की हो, सहमति या असहमति से यौन संबंध बनाए हों या कोई दूसरा अपराध किया हो. याद करिए कि उनमें से ज्यादातर को सिर्फ नैतिक दंड मिला और आज उनमें से कई अपना जीवन सही ढंग से जी रहे हैं. उनमें से कई को इसका प्रायश्चित भी होगा. उन्हें न्याय के औपचारिक कठघरे तक न ले जाकर समाजिक बहिष्कार न कर, समाज उन्हें बालिग अपराधी बनने से बचा लेता है. ऊपर से देखने में यह दकियानूसी लग सकता है, लेकिन समाज हमेशा उम्मीद पर जीता है. उसके पास अगर सजा का दंड है तो क्षमा की शक्ति भी है. गांधी जी अपने बड़े बेटे हरीलाल गांधी के मामले में कुछ इसी तरह का आचरण करते थे.

उसके उलट आप अपने पड़ोस में देखिए कि अगर एक बार कोई आदमी जेल चला जाता है तो अगली बार उसके और पक्का अपराधी बनकर बाहर आने की मिसालें मितली हैं. इसीलिए बच्चों को जेल नहीं भेजते.

हो सकता है, ये दलीलें आपको बहुत सैद्धांतिक और आदर्शवादी लगें. ऐसे में निर्भया बलात्कार कांड के बाद की कुछ और बातें भी दोहरा लें. मसलन, मामले के मुख्य आरोपी राम सिंह ने जेल में ही आत्महत्या कर ली थी. क्या इस आत्महत्या की एक वजह उसके मन में आया अपराध बोध नहीं रहा होगा? हो सकता है कि जेल में मिली जलालत के अलावा उसकी आत्मा ने भी उसे झकझोरा हो और शर्म के मारे उसने आत्महत्या कर ली हो. इस घटना से कम से कम इतना तो कहा जा सकता है कि बेहद क्रूर घटना को अंजाम देने के बावजूद उसके भीतर इंसान पूरी तरह मिटा नहीं था.

अब इस नाबालिग की बात करते हैं. इसका भी दावा है कि बचपन से ही उसका यौन शोषण होता रहा है. वह समाज की गरीबी से उपजा ऐसा बच्चा था, जिसे अपने परिवार का पेट भी भरना था. इसलिए जो उसे रोटी देते थे, वही उसका यौन शोषण भी करते थे. अन्याय सहना उसके जीवन की बुनियादी शर्त बन गई थी. अब वह फिर फरियाद कर रहा है कि उसकी पहचान उजागर न की जाए, क्योंकि ऐसा करने से उसके लिए दो रोटी कमाना नामुमकिन हो जाएगा. अब इस राज्य और प्रजा को यह सोचना है कि इस लड़के साथ न्याय करना है, उसे सजा देना है या उससे बदला लेना है. अंगुलिमाल और वाल्मीकि की कथाओं को अपनी प्रेरणा का हिस्सा बनाने वाले समाज को बड़े दिल का परिचय देना चाहिए. हमें ऐसा कोई आचरण नहीं करना चाहिए जिससे उसकी जिंदगी जीते जी मौत से बदतर हो जाए. नए कानून को भी इस बारे में सतर्क रहना चाहिए.

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लेखक

पीयूष बबेले पीयूष बबेले @piyush.babele.5

लेखक इंडिया टुडे में विशेष संवाददाता हैं.

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