25 June के इतिहास की दो तस्वीरें: एक जितनी उजली, दूजी उतनी ही काली!
पहली तस्वीर अखबार के फ्रंट पर छपी एक खबर की कतरन हैं और दूसरी में भारतीय टीम के पूर्व कप्तान कपिल देव नजर आ रहे हैं. एक ही तारीख पर अलग-अलग सालों में हुई दो घटनाओं का साफ़ असर आज भी महसूस किया जा सकता है.
-
Total Shares
स्टोरी के साथ कवर पर दो तस्वीरों का एक कोलाज है. दोनों तस्वीरों की कहानी भारत के इतिहास का एक ऐसा पड़ाव हैं जिसने दक्षिण एशिया के सबसे बड़े देश पर ना सिर्फ गहरा असर डाला बल्कि उसके भविष्य को भी प्रभावित किया. दोनों तस्वीरें 25 जून की हैं और आज सोशल मीडिया पर खूब साझा भी हो रही रही हैं. पहली तस्वीर अखबार के फ्रंट पर छपी एक खबर की कतरन हैं और दूसरी में भारतीय टीम के पूर्व कप्तान कपिल देव नजर आ रहे हैं. एक ही तारीख पर अलग-अलग सालों में हुई दो घटनाओं का साफ़ असर आज भी महसूस किया जा सकता है.
25 जून को लागू हुआ आपातकाल:
पहली तस्वीर हैदराबाद से 26 जून की तारीख को प्रकाशित अंग्रेजी अखबार इंडियन हेराल्ड के पहले पन्ने की है. इसमें 25 जून 1975 की रात से इंदिरा सरकार की ओर से देश भर में आपातकाल लगाए जाने और जय प्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, लालकृष्ण आडवाणी, अशोक मेहता और अटल बिहारी वाजपेयी समेत तमाम दिग्गज नेताओं के गिरफ्तारी की जानकारी दी गई है. आजादी के बाद आपातकाल भारत की सबसे बड़ी राजनीतिक घटना थी. इंदिरा गांधी के निरंकुश और निर्मम तरीकों का समूचे देशभर में विरोध हो रहा था. इंदिरा प्रधानमंत्री थीं मगर सत्ता की कुंजी उनके बेटे संजय गांधी और उनके चुनिंदा वफादारों के हाथ थी जो संविधान और क़ानून को धता बताते हुए मनमर्जी देश पर थोप रहे थे.
लोकतांत्रिक प्रक्रियाएं घोर अराजकता की चपेट में थीं. बेरोजगारी, गरीबी, असमानता और उसपर जबरदस्ती नसबंदी की घटनाओं ने लोगों को गुस्से से भर दिया था. देशभर के विश्वविद्यालयों में छात्र संगठन कांग्रेस सरकारों का तीखा विरोध कर रहे थे. यहां तक कि इंदिरा और संजय गांधी की तानाशाही का विरोध उन्हीं की पार्टी के कुछ लोग भी कर रहे थे. आपातकाल से पहले विपक्ष बिखरा हुआ था और इंदिरा कुछ महीने पहले तक लोकप्रियता के सर्वोच्च शिखर पर काबिज थीं. 1971 के चुनाव में उन्होंने प्रचंड बहुमत के साथ सरकार बनाई थी. दूर-दूर तक उन्हें सीधी चुनौती देने वाला कोई कद्दावर नेता नजर नहीं आ रहा था. इंदिरा को तनिक भी इल्म नहीं था कि कुछ महीने पहले तक बिखरा नजर आने वाला विपक्ष उनकी सियासत को चौपट कर देगा.
आपातकाल क्यों लगा था?
दरअसल, इसकी जड़ में 1971 का लोकसभा चुनाव था. इंदिरा के नेतृत्व में कांग्रेस ने जोरदार जीत हासिल की थी. मगर कई विपक्षी नेता चुनावों में धांधली का आरोप लगा रहे थे. खासकर इंदिरा से चुनाव हारने वाले लोहियावादी नेता राजनारायण ने चुनाव के कई महीनों बाद इलाहाबाद हाईकोर्ट में उनके निर्वाचन को चुनौती दी थी. इसी केस में 12 जून 1975 को हाईकोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए इंदिरा के निर्वाचन को निरस्त कर दिया और राजनारायण को विजेता भी घोषित कर दिया. हाईकोर्ट ने अगले छह साल तक इंदिरा गांधी के चुनाव लड़ने पर पाबंदी भी लगा दी. इंदिरा ये बात पचा नहीं पाई. सुप्रीम कोर्ट में याचिका देकर इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश को मानने से मना कर दिया और आनन-फानन में तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने प्रधानमंत्री के कहने पर संविधान की धारा 352 के तहत आपातकाल की घोषणा कर दी.
विरोध कर रहे नेताओं को जेलों में ठूस दिया गया. प्रेस पर पूरी तरह से पाबंदी लगा दी गई. विपक्षी पार्टियों के दफ्तरों पर ताला लग गया. जो नेता गिरफ्तारी से बाख गए थे उन्हें भूमिगत होना पड़ा. ये घटना 25-26 जून के दरमियानी रात की है.
भूदान जैसे आंदोलनों के जरिए राजनीति से दूर जा चुके जय प्रकाश नारायण ने इंदिरा के खिलाफ नेतृत्व की कमी को दूर किया. उन्होंने देशभर के छात्र नेताओं, विपक्षी नेताओं का नेतृत्व स्वीकार किया और विपक्ष को भी एकजुट किया. हालांकि कई वामपंथी पार्टियां विपक्ष के एका से दूर बनी रहीं. कुछ ने आपातकाल का विरोध तो किया मगर आंदोलनों में नहीं उतरे. इंदिरा के सामने जेपी के रूप में एक ऐसा नेतृत्व खड़ा हो गया जिसमें लोगों का भरोसा कायम हुआ. देश में 21 महीने तक आपातकाल रहा. 21 मार्च 1977 में इसे ख़त्म करने की घोषणा हुई. बाद में चुनाव कराए गए. जनता पार्टी ने प्रचंड बहुमत हासिल किया और मोराराजी देसाई ने देश में पहली गैरकांग्रेसी सरकार की कमान संभाली.
ये अलग बात है कि व्यापक जनआंदोलन से उपजी गैरकांग्रेसी सरकार, अपने ही नेताओं की महत्वाकांक्षा का शिकार हुई और उसका बुरा अंत हुआ. इंदिरा फिर सत्ता में वापस आईं. मगर इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि आपातकाल ने राजनीति पर गहरा असर डाला. उसके मुद्दों और मकसद को बदला. साथ ही साथ देशभर में दूसरी और तीसरी पीढ़ी के कद्दावर नेताओं की फ़ौज को मजबूती से आगे बढ़ाया. अटलबिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, जोर्ज फर्नांडीज, बीजू पटनायक, मधु लिमये, चन्द्रशेखर, नरेंद्र मोदी, लालू यादव, शरद यादव, नीतीश कुमार, मुलायम सिंह यादव जैसे कई दर्जन नेता उसी आंदोलन के बाद शीर्ष पर पहुंचे. आपातकाल देश में पहली घटना भी है जिसने गैरकांग्रेसी राजनीति के लिए देश में जमीन तैयार की और उसमें लोगों का भरोसा बढ़ा.
25 जून 1983 को भारतीयों ने उम्मीदों से उलट जीत ली दुनिया:
दूसरी तस्वीर भी विश्व क्रिकेट की सबसे अहम घटनाओं में से एक है. सौरव गांगुली, महेंद्र सिंह धोनी से होते विराट कोहली के नेतृत्व तक भारतीय किकेट टीम जिस मुकाम पर पहुंची सही मायने में उस नींव का पत्थर 25 जून की तारीख पर ही पड़ी थी. 25 जून 1983 को लॉर्ड्स में भारत ने ना सिर्फ क्रिकेट का विश्वकप जीता था बल्कि समूचे देश को गौरव और क्रिकेट के धागे में एक कर दिया था. वाकई वो दिन अनिश्चित खेलों में शुमार किए जाने वाले विश्व क्रिकेट के लिए सबसे महान दिन था.
वो जीत किस लिहाजा से गौरवशाली है इसे बताने की जरूरत नहीं. तब क्रिकेट खासकर एकदिवसीय मुकाबलों में भारत की गिनती फिसड्डी टीमों में होती थी. इग्लैंड, ऑस्ट्रेलिया यहां तक कि पाकिस्तान भी बहुत हद तक हमसे बेहतर नजर आ रहा था. खूंखार गेंदबाजों और एक से बढ़कर एक धुरंधर बल्लेबाजों से सजी वेस्टइंडीज की टीम खैर दो विश्वकप जीत कर उस वक्त अपराजेय थी ही. विश्वकप मुकाबलों से पहले टीम इंडिया से बहुत उम्मीद नहीं थी. एक युवा ऑल राउंडर कपिल देव को टीम की कमान सौंपी गई थी. युवा और वरिष्ठ खिलाड़ियों की टीम थी, मगर ऐसी भी नहीं थी उससे विश्वकप जीतना तो दूर सेमीफाइनल और फाइनल में भी पहुंचने की उम्मीद पाली जाए.
भारत भले ही टेस्ट खेलने वाले पुराने देशों में था मगर विश्वपटल पर उसकी मौजूदगी कुछ चुनिंदा खिलाड़ियों के व्यक्तिगत कौशल और उपलब्धियों की वजह से थी. कुल मिलाकर टीम को जीतने की आदत नहीं थी. लेकिन कपिल की टीम अलग नजर आ रही थी. लीग मुकाबलों तक भारत एक सामान्य टीम दिख रही थी. यहां तक कि जिम्बाब्वे जैसी टीम से भारत को जूझना पड़ा था, तब कपिल ने एक दिवसीय मैचों में अपनी सर्वोच्च पारी (175 रन) से भारत की जीत सुनिश्चित की. जब भारत की टीम एक-एक कर अपने पड़ाव पार करने लगी लोगों की दिलचस्पी बढ़ने लगी. सेमीफाइनल के यादगार मैच ने हर भारतीय को उम्मीद और जोश से भर दिया. तब एकदिवसीय मैच 60 ओवरों का होता था. मोहिंदर अमरनाथ के हरफनमौला खेल और टीम भावना से भारत ने सेमीफाइनल में जीत हासिल कर दुनिया को चौंका दिया था.
कोई उम्मीद साफ़-साफ़ नहीं दिख रही थी, इतिहास अपनी गति से चल रहा था
हालांकि फाइनल में पहुंच जाने के बावजूद किसी को यह भरोसा नहीं था कि भारत लॉयड के नेतृत्व को परास्त कर पाएगा. लगातार दो विश्वकप जीतने वाली वेस्टइंडीज और सबसे खराब प्रदर्शन करने वाली भारत में जमीन आसमान का फर्क नजर आ रहा था. ये दूसरी बात है कि भारतीयों के लिए फाइनल में पहुंचना ही गौरव की बात हो गई थी. फाइनल नतीजों से बेफिक्र लॉर्ड्स भारतीय दर्शकों से भरा पड़ा था. देश में हर कोई ट्रांजिस्टर सेट से कान चिपकाए बैठा था. पहली पारी में भारत की बैटिंग के साथ लोगों की आशंकाएं सच साबित हुईं. वेस्टइंडीज की तूफानी बॉलिंग लाइनअप के आगे भारतीय धुरंधर बिखर गए. भारतीय टीम कोटे का पूरा ओवर खेलने से पहले ही 54.4 ओवरों में महज 183 रनों पर ढेर हो गए. श्रीकांत ने सबसे ज्यादा 38 रन बनाए थे.
क्रिकेट को धर्म बनाने वाली जीत
पहला झटका समय पर देने के बावजूद विवियन रिचर्ड्स की ताबड़तोड़ बल्लेबाजी से भारत की रही सही उम्मीदें भी ख़त्म होने लगीं. लेकिन कपिल ने एक अद्भुत कैच लेकर खतरनाक बन चुके विव को आउट करवाया. उसके बाद तो वेस्टइंडीज पर भारतीय गेंदबाज टूट पड़े और बेहद मजबूत दिख रहा टॉप ऑर्डर एक एक कर 76 रन तक पहुंचते-पहुंचते ख़त्म हो गया. वो बैटिंग ऑर्डर धराशायी हो चुका था जिसके आगे दुनिया के खतरनाक गेंदबाज भी पानी मांगते थे. माइकल होल्डिंग के रूप में आख़िरी विकेट चटकाते ही भारत अविश्वसनीय कारनामा कर चुका था. पैवेलियन में मौजूद लोग दर्शक दीर्घा लांघकर खिलाड़ियों के पास पहुंच गए और उन्हें कंधों पर बिठा लिया. देश का हर कोना जीत के उन्माद में डूब गया. जिस क्षण कपिल ने लॉर्ड्स की गैलरी में विश्वकप हाथों में थामा, उसने देश को गौरव से भर दिया. आगे जाकर इसी क्षण ने युवा क्रिकेटरों की फ़ौज तैयार की. उस जीत ने भारतीय क्रिकेट को जुनून दिया- "हम किसी को भी हरा सकते हैं." उस जीत ने हमें अनगिनत हीरो दिए जिसकी वजह से क्रिकेट देश में एक ऐसे धर्म के रूप में खड़ा हुआ जो समूचे राष्ट्र को एकता के सूत्र में बांधता है. उस जीत ने दूसरे खेल और खिलाड़ियों को भी जज्बा दिया. जज्बा जीतने का.
आपकी राय