'आंटी नेशनल': एक अखबार का शीर्ष(क) पतन
स्मृति इरानी के विरोध के सौ तरीके हो सकते हैं लेकिन क्या किसी व्यक्ति या किसी स्त्री के नाम को विकृत करना उचित है?
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देश के एक विख्यात 'उदारवादी' अखबार ने स्मृति इरानी के संसद में कल दिए गए भाषण के बाद शीर्षक लगाया है-"आंटी नेशनल". एक दशक पहले जब मैं बिहार से दिल्ली आया था तो ये मालूम नहीं था कि 'आंटी', बहनजी टाइप या हिंदी मीडियम टाइप(यानी HMT) कह कर किस तरह दिल्ली जैसे महानगरों में कस्बाई या ग्रामीण पृष्ठभूमि की लड़कियों का मजाक उड़ाया जाता है. यहां आने पर पता चला कि माहौल में एक महीन तीखापन है- जो सुविधाओं और चमक-दमक की परतों में कई बार स्पष्ट नहीं दिखता.
हालांकि स्मृति इरानी ग्रामीण या कस्बाई पृष्ठभूमि से नहीं हैं लेकिन अखबार का शीर्षक वहीं कहना चाहता है जो दरअसल वो चाहता है. साथ ही सोशल मीडिया पर इस अखबारी शीर्षक को साझा करने वाले और लहालोट होने वाले लोग भी अनायास ही वहीं कर रहे हैं जिसके विरोध में वे खड़े होते रहने का दावा करते हैं.
दिल्ली आने पर पहली बार मुझे पता चला था कि कोई 'चिंकी' शब्द भी होता है- जो उत्तर-पूर्व के लोगों के लिए अक्सर इशारों में और कई बार स्पष्ट रूप से प्रयुक्त होता था/है. नब्बे के दशक तक 'बिहारियों' ने व्यंग्य में अपने आपको बिहारी कहे जाने को झेलना सीख लिया था और धीरे-धीरे उनका संख्याबल और उनकी गुणवत्ता से लोग ऐसा कहने से डरने लगे थे. हालांकि लोग फिर भी कह देते थे कि आप बिहारी टाइप बोलते हैं या आप तो बिहारी जैसे नहीं लगते. चुनांचे किसी ने मेरे तमिल या मलयाली दोस्त से कभी ये नहीं कहा कि वो तमिल टाइप अंग्रेजी क्यों बोलता है. हालांकि एक जमाने में उन्हें भी 'मदरासी' कह कर अजीब ढ़ंग से देखा जाता था. आप गौर से विचार करेंगे तो प्रकारांतर में यह मजाक उन जैसे कई व्यंग्यों से अलग नहीं है जिसमें किसी आरक्षित समुदाय के डॉक्टर या अन्य पेशेवर का ये कहकर मजाक उड़ाया जाता है कि ये तो रिजर्वेशन वाले हैं.
समाजिक न्याय की पार्टी जनता परिवार के एक बुद्धिजीवी-विचारक नेता शरद यादव ने नब्बे के दशक में सीपीएम नेता बृंदा करात को 'परकटी' कहा था तो काफी हंगामा हुआ. पिछले ही साल कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह ने एक महिला नेता को 'टंच माल' कह दिया.
यहां पर पढ़े-लिखे लोग उस तरह व्यवहार कर रहे हैं जैसे कोई रुढ़िवादी करता है जब वह किसी स्त्री को महीने के 'खास दिन में अपवित्र कह देता है' या घर-परिवार संभालने तक सीमित रहने की नसीहत दे देता है.
स्मृति इरानी के विरोध के सौ तरीके हो सकते हैं लेकिन क्या किसी व्यक्ति या किसी स्त्री के नाम को विकृत करना उचित है? जद-यू सांसद और संयोग से शरद यादव के ही सबसे खास सहयोगी के सी त्यागी ने कहा कि वे स्मृति इरानी को मनु-स्मृति इरानी कहेंगे. जब एक पत्रकार ने इसका विरोध किया तो उन्होंने कहा कि वे ऐसा ही कहेंगे!
सोशल मीडिया में कई लोग हैदराबाद विश्वविद्यालय प्रकरण के बाद से स्मृति इरानी के नाम के पीछे मनु शब्द जोड़ रहे हैं. अगर मुझे ठीक से याद है तो ऐसा सबसे पहले मैंने एक वरिष्ठ वामपंथी प्रोफेसर के वाल पर देखा था. मैंने इसे औसत व्यंग्य समझा. लेकिन एक सांसद जब ऐसी भाषा बोलता है तो फिर इस पर विचार किया जाना चाहिए. राज्यसभा में पीठासीन सभापति ने उचित ही इस शब्द को रिकॉर्ड से हटा दिया.
इरानी पर मैं भी कई बार व्यंग्य में पोस्ट लिखता हूं. कई बार उनकी येल की कथित डिग्री पर भी मैंने आक्षेप लगाया है. हैदराबाद विश्वविद्यालय को लिखे लगातार पत्रों ने उनकी छवि खराब की, मेरा मानना है कि उनको ऐसा उत्साह नहीं दिखाना चाहिए था. साथ ही उनके मंत्रालय की कमेटियों में नियुक्त लोगों पर भी सवाल उठ सकते है. शिक्षा के व्यवसायीकरण, निजी और विदेशी विश्वविद्यालों को अबाध छूट देने की सरकार नीति, फेलोशिप राशि में कटौती और यहां तक कि भगवाकरण के आंशिक प्रयास कई ऐसे विषय हैं जहां उनकी आलोचना हो सकती है. इसमें कोई दो मत नहीं. लेकिन एक प्रसिद्ध अखबार को इस तरह का शीर्षक अगर लगाना था तो उसे अपने विवेक पर एक बार विचार करना चाहिए. पेशेवर भाग-दौड़ में गलतियां होती हैं और लोग कहते हैं कि ऑनलाइन और सोशल मीडिया की अनियंत्रित दुनिया में ये ज्यादा होती है. लेकिन यहां हम गलत हैं. ये गलती एक प्रसिद्ध अखबार की है जो अपने आपको उदारता, स्त्री अधिकारों का हितैशी और स्वतंत्रता का प्रकाश पुंज मानता है.
एक बार सोशल मीडिया के अपने टाइम लाइन में घुसे ट्रॉलों(या ट्रॉल्स?) या अनौपचारिक बातचीत में आ रहे उन अवमाननात्मक कथनों पर विचार कीजिए जो स्मृति इरानी के मंत्री बनने के 'कारण' के तौर पर गॉसिप में प्रयुक्त होता है. सायास या अनायास कई बार हमारे कथित या स्वघोषित उदारवादी मित्र भी उसका आनंद उठाने का मौका नहीं चूकते.लेकिन दुर्भाग्य की बात ये है कि इस बार वो ट्रॉल किसी अखबार का मुख्य शीर्षक बन गया है. मैंने पहले भी एक बार लिखा था कि न्याय की लड़ाई के हरावल दस्ते उन्हीं हथियारों का प्रयोग कर जंग जीतना चाहते हैं जिसमें उनका प्रतिपक्षी सिद्धहस्त है.
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