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Updated: 15 दिसम्बर, 2016 03:25 PM
पारुल चंद्रा
पारुल चंद्रा
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आजकल टीवी पर चल रहे एक विज्ञापन ने आपका ध्यान अपनी तरफ जरूर खींचा होगा. वही, जिसमें अतिश्योक्ति की सारी सीमाएं लांघ दी गईं हैं. वैसे तो अमूमन सभी विज्ञापनों का यही हाल है, बस तोले मासे का ही फर्क है वरना विज्ञापनों का आधार अति‍श्योक्ति ही होता है. जो नहीं होता उसे वही और सही बताने के लिए विज्ञापनों में अलग अलग तरीके के प्रयोग किए जाते हैं, पर मकसद सिर्फ लोगों का भरोसा जीतकर अपना प्रोडक्ट बेचना होता है. और इस दौड़ में जो आपको सबसे ज्‍यादा झकझोर दे, वह सफल.

विज्ञापनों की रणनीति होती है, जिसके तहत पहले ये आपकी दुखती रग पर उंगली रखते हैं, आपकी चिंताओं से आप ही को डराते हैं, और फिर भरोसा दिलाते हैं कि ये प्रोडक्ट सिर्फ और सिर्फ आपके लिए ही बने हैं. कभी बच्चों की क्यूटनेस दिखाकर, कभी डॉक्टर्स की चिंता दिखाकर, तो कभी खूबसूरती दिखाकर आपको शर्मिंदा करके आपकी भावनाओं से खेलते हैं और सीधे आपके सोचने समझने की शक्ति पर अटैक करते हैं. आप फिर भी न मानें तो, छूट, दुगना फायदा, एक पर एक फ्री, 100 ml ज्यादा, फ्रीबीज़, लकी विनर, फ्री होम डिलिवरी, मोबाइल रीचार्ज, नो कैश नो प्रॉब्लम, और तो और पसंद न आने पर पैसे वापस जैसे ऑफर्स दे देकर लोगों को पटाते हैं. और मजे की बात, कंडिशन्स फिर भी एप्लाइड रहती हैं.

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विज्ञापन के दावे के मुताबिक कोई चार सप्‍ताह में गोरा हुआ है?

मने ग्राहकों की ऐसी तैसी करने के लिए ये विज्ञापन एकदम तैयार रहते हैं. सच कहूं तो दुनिया की सबसे बकवास चीज यही हैं. किसी भी प्रोडक्ट को बेचने के लिए अगर विज्ञापन करना पड़ रहा है, तो समझ लेना चाहिए कि प्रोडक्ट में खुद का दम नहीं है, वो तभी बिकेगा अगर उसे कोई सेलिब्रिटी बेचेगा. तभी तो विज्ञापन के लिए एक्टर्स पर पानी की तरह पैसा बहाया जाता है और नए-नए ऑफर्स दिए जाते हैं. प्रोडक्ट बेचने के लिए ये लोग कुछ भी दिखा रहे हैं, किसी भी सीमा तक जा रहे हैं, अति मचा रहे हैं. विज्ञापन न हो गए, जादू की छड़ी हो गई, कि बस दिन में पचास बार दिखाया तो जादू चल गया समझो.

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क्‍या वाकई आपको लगता है कि शाहरुख खान लक्‍स इस्तेमाल करते होंगे?

जरूरी नहीं है कि शाहरुख खान लक्स का एड करते हैं तो वो लक्स से ही नहाते होंगे, अरे, वो जिस ब्रांड के साबुन से नहाते हैं उसे तो विज्ञापन की जरूरत भी नहीं होगी. ठीक वैसे ही जैसे आगरा का पेठा और हैदराबाद की बिरयानी को किसी विज्ञापन की जरूरत नहीं पड़ती. अब अमिताभ बच्चन के इस विज्ञापन को ही ले लीजिए, जिसमें वो मसाला बेच रहे हैं. विज्ञापन खूब चल रहा है, लेकिन आलोचनाएं भी हो रही हैं, वो इसलिए कि अमिताभ बच्चन जैसे गंभीर एक्टर इस तरह की बात कैसे कर सकते हैं.

नहीं सुना तो आप भी सुनिए-

कोई मसाला मां कैसे हो सकता है? मां के खाने में सिर्फ प्यार ही नहीं होता, मेहनत होती है, फिक्र छुपी होती है, हाइजीन होती है, अच्छे और बुरे की समझ होती, ममत्व होता है. इतनी सारी चीजें भला एक हथेली बराबर डब्बे में डालकर कैसे बेची जा सकती हैं, और उसपर ये कहना कि ये मां के हाथ का खाना होता क्या है? स्वाद तो मसाले से आता है.

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अब यहां अमिताभ बच्चन के अलावा कोई भी होता तो बात उतनी ही चुभती क्योंकि बात मां के हाथ के खाने के बारे में है, और जैसा कि अमिताभ बच्चन खुद कह रहे हैं कि मां को लेकर लोग थोड़ा सा टची हो जाते हैं, तो हां भई क्यों न हों... हम तो गौ माता, भारत माता और न जाने कितनी माताओं को लेकर टची हो जाते हैं, तो फिर ये तो जन्म देने वाली मां है. कोई भी इतनी घृणा के साथ किसी की भी मां के खाने को बेस्वाद कैसे कह सकता है. खाना आपको नहीं पसंद, आपका अपना स्वाद है, लेकिन उसके लिए एक मां के प्यार, उसकी मेहनत और सबसे बड़ी बात उसके ममत्व को अपमानित करना कौन सी एक्टिंग है. घटिया स्क्रिप्टिंग.

यहां विज्ञापनों के बारे में कॉमेडियन जॉर्ज कार्लिन ने काफी खुलकर बोला है, जो काफी चर्चित रहा है. आप भी सुनिए-

जॉर्ज कार्लिन को सुनने के बाद अमिताभ बच्चन या इस मसाले के विज्ञापन की स्क्रिप्ट लिखने वाले पर से गुस्‍सा हट जाता है. दरअसल, यह हम ही हैं जो विज्ञापन की चमक-दमक से प्रभावित होते हैं. यदि उसमें कुछ आपत्तिजनक है, तो जान लीजिए कि वह आपको भड़काने के लिए ही डाला गया है. यदि आप भड़क गए तो समझिए विज्ञापन सफल हो गया.

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लेखक

पारुल चंद्रा पारुल चंद्रा @parulchandraa

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं

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