इनकी सेक्सी पहचान ही जानलेवा होती जा रही है
ब्रेस्ट नारीत्व की पहचान भी हैं और बिना इनके ममत्व भी अधूरा है. पर समाज में इसपर बात करना आज भी एक टैबू है. इसलिए ब्रेस्ट कैंसर का खतरा बढ़ता जा रहा है.
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भारत में जब बात ब्रेस्ट की होती है एक बहुत अजीब सा माहौल क्यों बन जाता है? महिलाएं झेंप जाती हैं और पुरुष मंद मुस्काने लगते हैं. शरीर में जैसे बाकी अंग हैं वैसे ही ब्रेस्ट भी हैं लेकिन क्यों महिला के ब्रेस्ट हमेशा सेक्स से रिलेट किए जाते हैं? ब्रेस्ट नारीत्व की पहचान भी हैं और बिना इनके ममत्व भी अधूरा है. पर समाज में इसपर बात करना आज भी एक टैबू है.
पर अब समय आ गया है कि इस टैबू को खत्म किया जाए और खुलकर ब्रेस्ट कैंसर पर बात की जाये. ये करना ज़रूरी इसलिए भी है क्योंकि अब ब्रेस्ट कैंसर के मामले सौ, दो सौ या हज़ार नहीं बल्की लाखों में पहुंच चुके हैं. हर साल भारत में करीब डेढ़ लाख महिलाओं में ब्रेस्ट कैंसर डिटेक्ट किया जाता है, और हर साल करीब 70,000 महिलाओं को अपनी जान से हाथ धोना पड़ता है. निश्चित तौर पर ये बात हमारी आंखे खोलने के लिए काफी है कि भारत की हर 22 में से एक महिला में ब्रेस्ट कैंसर की शिकायत पाई जाती है. 1990 से 2013 के बीच महिलाओं में ब्रेस्ट कैंसर के मामले दोगुने से भी ज्यादा हो गए हैं. पहले यह संख्या 57,374 थी जो अब 154,261 तक आ पहुंची है।
इन मामलों की बढ़ती संख्या को देखते पूरी दुनिया में इसकी जागरुकता के लिए बिगुल बज चुका है. भारत ही नहीं दुनिया भर में ब्रेस्ट कैंसर अवेयरनेस प्रोग्राम चलाए जा रहे हैं. विदेशों में अवेयरनेस के तरीके अलग होते हैं और बड़ी बेबाकी के साथ वहां खुलकर इन मुद्दों पर चर्चा की जाती है. हर तरीके से वहां महिलाओं को ब्रेस्ट कैंसर के प्रति जागरुक करने की कोशिशें की जा रही हैं. भारत में कई एनजीओ ब्रेस्ट कैंसर अवेयरनेस प्रोग्राम चला रहे हैं. पर अक्सर पेज 3 के लोग ही इन कैंपेन का हिस्सा बनते नजर आते हैं. भारत में इसकी अवेयनेस कैंपेन चलाते वक्त खासा ख्याल भी रखा जाता है कि इससे हमारे समाज के मूल्यों का हनन न हो. मतलब कैंपेन अशिष्ट भी न लगें और महिलाएं जागरुक भी हो जाएं. इसलिए हमारे यहां अवेयरनेस प्रोग्राम के नाम पर चर्चाएं और मेराथॉन रेस की जाती हैं. इससे ज्यादा कुछ करने की कोशिश भी की जाए तो विवाद हो जाते हैं. 13 अक्टूबर को 'नो ब्रा डे' दुनिया भर में मनाया गया लेकिन ये दिन लोगों की आलोचनाओं का शिकार हुआ. इस हैशटैग को लोगों ने अश्लील तक कह डाला. इस तरह के कई कैंपेन विवादों के घेरे में आ गए.
हम हाथ, पैर, मुंह के बारे में बात नहीं कर रहे, बात ब्रेस्ट की है तो उसे ब्रेस्ट ही कहेंगे न. ये सिर्फ लोगों की सोच है और उनके देखने का नजरिया जो किसी भी चीज को अशिष्ट और अश्लील कहता है. ब्रेस्ट न होकर अगर ये कोई और अंग होता तो इसकी जागरुकता का अंदाज अलग होता, शायद जागरुक लोगों की संख्या भी ज्यादा होती. पर यहां शील अश्लील के फेर में पड़कर सरकार खुद कोई कदम नहीं उठा पा रही. सरकार की पहुंच सीमित है, अवेयरनेस प्रोग्राम सिर्फ शहरों और सोशल मीडिया पर नज़र आते हैं. और वहां भी उनकी निंदा की जाती है. ब्रेस्ट कैंसर से मौत के सबसे ज्यादा मामले ग्रामीण इलाकों से ही हैं. शहर में फिर भी जागरुकता है पर ग्रामीण महिलाएं ब्रेस्ट कैंसर को जानती तक नहीं. ऐसे में दौड़ करवाना और ए सी कमरों में बंद होकर चर्चाएं करने से इंटरनेट न इस्तेमाल करने वाली महिलाएं और गांवों में बसने वाली महिलाएं भला कैसे जागरुक होंगी?
जिस तरह भारत में पोलियो कैंपेन चलाया गया, आए दिन महानायक अमिताभ बच्चन दो बूद जिंदगी की बांटते नज़र आते थे, आज उसका नतीजा ये है कि भारत पोलियो फ्री देश घोषित हो चुका है. शौचालय बनवाने के लिए आज गांव गांव में विज्ञापन हो रहे हैं, गर्भ निरोधकों और कन्डोम पर भी अब लोग बात करने लगे हैं. ये प्रयास सरकार ने किए और उनमें सफलता भी मिली. क्या हम सरकार से ब्रेस्ट कैंसर अवेयनेस प्रोग्राम में भी कुछ ऐसी उम्मीद नहीं कर सकते? सरकार अगर खुलकर सामने आएगी तो इससे पीड़ितों की संख्या में कमी आएगी.
ब्रेस्ट स्त्री के शरीर का अहम हिस्सा है, ये हमारे हैं और हमें ही इसपर बोलना होगा..इसे बचाने की कोशिशों में अगर विवाद होते हैं तो हों...
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