ब्रिगेडियर उस्मान को याद रखिए, या कश्मीर और जय हिंद पर इतराना भूल जाइये
ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान के बारे में यह तो सभी को पता है कि 1947-48 की कश्मीर को लेकर हुई भारत-पाक जंग में शहीद होने वाले वे सबसे सीनियर सेना अधिकारी थे. लेकिन, कम ही लोग जानते हैं कि इस शहादत से पहले हिंदू-मुस्लिम अविश्वास का साया उन पर भी पड़ा था. जिस पर उनका जवाब हमेशा स्मरण रखने लायक है.
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ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान के बारे में क्या लिखूं- भारत के लिए शहीद होने वाले सैनिक अफ़सर की बहादुरी का किस्सा?, या एक ऐसे मुसलमान की कहानी, जिसने पाकिस्तान से आए सेना अध्यक्ष बना देने के प्रलोभन को ठोकर मारकर भारत माता की सेवा चुनी?, या फिर देश के उस सच्चे सपूत की दास्तान जो प्रात: स्मरणीय होने के बावजूद अपनी पहचान कायम रख पाने के लिए संघर्ष कर रही है? तो आइए, कोशिश करते हैं उस महान सेनानी की जिंदगी में झांकने की, और जानते हैं कि 1948 में कश्मीर पर कब्जे की पाकिस्तानी कोशिश को नाकाम करने वाले ब्रिगेडियर उस्मान को भुलाकर हम क्या कुछ खो रहे हैं.
ब्रिगेडियर उस्मान को सेना में 'नौशेरा का शेर' कहा जाता है. 36 साल की उम्र में अपने प्राणों की आहूति देने वाले इस देशभक्त में कुछ तो खास रहा ही होगा, तभी तो दिल्ली आए उनके पार्थिव शरीर को खुद प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने रिसीव किया था. ब्रिगेडियर उस्मान मेरे दिल के इसलिए भी करीब हैं, क्योंकि उनका जन्म आजमगढ़ जिले के मेरे पैतृक गांव के नजदीक बीबीपुर में हुआ था. उनसे इतना नाता जुड़ जाना ही गर्व से माथा ऊंचा कर देता है. उस्मान की शुरुआती पढ़ाई बनारस में हुई. उनके पिता पुलिस में थे. लेकिन, उस्मान की इच्छा सेना में भर्ती होने की थी. ब्रिटिश शासनकाल में किसी भारतीय के लिए सेना में अफ़सर होने के अवसर सीमित थे लेकिन उन्होंने अपनी होशियारी से ये मुकाम पा लिया. उर्दू में सिद्धहस्त होने के कारण अतिरिक्त तरक्की भी मिली. बलोच रेजिमेंट की कमान के अलावा कई महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों को निभाते हुए उस्मान ने खूब नाम कमाया. वे ब्रिटिश आर्मी में रहते हुए सेकंड लेफ्टिनेंट से शुरू करते हुए, कैप्टन और फिर मेजर के ओहदे तक पहुंचे. अलग-अलग ऑपरेशंस में उनकी बहादुरी चर्चा का विषय बनती जा रही थी. यानी सबकुछ वैसा ही हो रहा था, जैसा कि एक बहादुर सैनिक अफ़सरके जीवन में होता है. लेकिन, देश के बंटवारे का समय नजदीक आते आते उस्मान पर दबाव बढ़ने लगा. पाकिस्तानी हुक्मरानों की उस्मान पर नजर थी. एक कुशल और बहादुर सैनिक अफसर, वो भी मुसलमान. उन्हें और क्या चाहिए था? उस्मान के पास प्रस्ताव भेजा गया कि वे पाकिस्तानी सेना का हिस्सा बन जाएं, उन्हें आगे चलकर सेना अध्यक्ष बना दिया जाएगा.
दुनिया का दस्तूर है, इंसान पैसे और तरक्की की खातिर कहीं भी जाने के लिए सहर्ष तैयार हो जाता है. उस्मान के पास भी ये गोल्डन टिकट आया. वे पाकिस्तान जाने का फैसला ले सकते थे. उस दौरान कई मुसलमानों ने ऐसा किया भी. लेकिन, बलूचिस्तान से लेकर बर्मा तक अपनी सैन्य सेवाएं दे चुके उस्मान यही मानते थे कि वे अपने मुल्क भारत की सीमा में रहते हैं. और उसी की सेवा करते हैं. वही मुल्क जिसकी जमीन में उनके पुरखे दफन हैं. उस्मान के लिए फैसला लेना मुश्किल नहीं था. उन्होंने एक झटके में ऑफर ठुकरा दिया. पाकिस्तान के प्रस्ताव पर उनके असंतोष का सम्मान किया गया. पाकिस्तान के अधीन चली गई बलोच रेजिमेंट से उनका ट्रांसफर भारतीय सेना की डोगरा रेजिमेंट में कर दिया गया. जिसका शहादत देने तक वे हिस्सा रहे.
दिल्ली में ब्रिगेडियर उस्मान की कब्र की बेकद्री हमारी अहसानफरामोशी का सबूत है. जिन्होंने जान देकर हमारे वजूद की रक्षा की, उनके बलिदान को यूं नजरअंदाज कर देने का पाप कोई समाज कैसे कर सकता है?
भारतीय सेना का हिस्सा बनना ब्रिगेडियर उस्मान के लिए बहुत आसान था, लेकिन अपने साथियों का विश्वास अर्जित करने के लिए उन्हें अभी और अग्नि-परीक्षा देनी थी. उन्होंने न सिर्फ ये अग्नि-परीक्षा दी, बल्कि एक ऐसा इतिहास रच दिया, जिसके आगे सेना में धर्म-कर्म की बात सोचना बेमानी बना दिया. इस बात का संबंध ब्रिगेडियर उस्मान की कब्र के क्षतिग्रस्त होने की ताजा घटना से भी जुड़ता है. खबर आई कि जामिया के नजदीक बाटला हाउस कब्रगाह में उनकी कब्र की बेकद्री हो रही है. कब्र पर लगी उनकी नाम पट्टिका को तोड़ा गया है. सेना के एक पूर्व अफ़सर ने जब यह जानकारी सैनिक हाईकमान को भेजी तो सेना ने एक हफ्ते के भीतर उनकी कब्र की मरम्मत कर दी. साथ ही नाराजगी भी जताई कि यदि हमारे शहीदों की कब्र का कोई ख्याल नहीं रख सकता है, तो इस काम के लिए भी सेना सक्षम है. सेना इसलिए तिलमिलाई है, क्योंकि वह जानती है कि ब्रिगेडियर उस्मान अपनी जिंदगी, और फिर शहादत से उन्हें क्या दे गए हैं. सेना की भावना को समझने के लिए ब्रिगेडियर उस्मान की उस आखिरी लड़ाई को समझना होगा, जिसे उन्होंने अपने जीने-मरने का प्रश्न बना लिया था.
आजादी के तत्काल बाद भारत से अलग होकर बने पाकिस्तान की कश्मीर पर नीयत डोल गई थी. कश्मीर पर कब्जे की पाकिस्तानी योजना के लिए भारत बिल्कुल तैयार नहीं था. कबाइलियों और पाकिस्तानी सैनिकों ने मिलकर नवंबर 1947 में राजौरी और उसके आसपास के इलाकों को कब्जे में ले लिया. बड़ी तादाद में आए पाकिस्तानियों का मुकाबला करने के लिए भारतीय इंतजाम नाकाफी होते जा रहे थे. इतने कि मीरपुर, झंगर और कोटली की रक्षा में लगी ब्रिगेडियर परांजपे के अधीन 50 पैरा ब्रिगेड को पीछे हटना पड़ा. कुछ दिन में ब्रिगेडियर परांजपे बीमार हो गए. और ब्रिगेड की कमान मोहम्मद उस्मान के हाथ में आ गई. ब्रिगेडियर उस्मान ने रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण झंगर को भारतीय सेना के अधीन लाने का पहला प्रयास किया, लेकिन उन्हें नाकामी हाथ लगी. कबाइलियों ने बड़ी तादाद में हमला बोला, और फिर झंगर को कब्जे में ले लिया.
बंटवारे के कारण देश में सांप्रदायिक ताना-बाना पूरी तरह बिखरा हुआ था. ऐसे में झंगर में भारतीय सेना की नाकामी ने ब्रिगेडियर उस्मान को कठघरे में ला खड़ा किया. उस समय ब्रिगेडियर उस्मान एकमात्र मुस्लिम थे, जो सेना के इतने बड़े ओहदे पर अपनी सेवाएं दे रहे थे. लेकिन इधर अफवाह उड़ रही थी कि ब्रिगेडियर उस्मान की निष्ठा भारत के लिए कम, पाकिस्तान के लिए ज्यादा है. यह खबर आम थी कि पाकिस्तान ने उन्हें अपना सेनाध्यक्ष बनाने का ऑफर दिया है. इन सब चर्चाओं और अफवाहों को नजरअंदाज करते हुए ब्रिगेडियर उस्मान ने अपने उद्देश्य पर फोकस रखा. अपने साथियों के बीच आपसी विश्वास कायम करने के लिए उन्होंने कुछ ऐसे फैसले लिए, जो इतिहास का हिस्सा बन गए.
-उन्होंने कसम खाई कि जब तब झंगर को जीत नहीं लेते, वो बेड पर नहीं बल्कि जमीन पर सोएंगे.
-उन्होंने ब्रिगेड के सभी साथियों से कहा कि वे जब भी आपस में एक दूसरे से मिलें, 'जय हिंद' का घोष करें. कह सकते हैं कि भारतीय सेना में जय हिंद के नारे को प्रचलित करवाने वाले ब्रिगेडियर उस्मान ही थे.
-इतना ही नहीं, उन्होंने ब्रिगेड के हर लेवल पर संवाद की भाषा के रूप में हिंदी का इस्तेमाल करने का आदेश दिया. कभी अपनी उर्दू जानकारी के लिए अंग्रेजों से तरक्की पाने वाले ब्रिगेडियर उस्मान के नाम सेना की अधिकारिक भाषा के रूप में हिंदी को लागू करवाने का भी श्रेय जाता है.
ब्रिगेडियर उस्मान के तीनों फैसलों में इतनी तेजी और दूरदर्शिता थी, जिसके आगे पर उन पर शंका करने वाले नतमस्तक रह गए. अपने मिशन को लेकर दृढ़संकल्प लिए ब्रिगेडियर उस्मान ने नौशेरा से बढ़कर फिर हमला बोला, और झंगर फतेह कर लिया. वे अपनी ब्रिगेड को सबसे आगे रहकर नेतृत्व देते रहे. उन्हें 'नौशेरा का शेर' कहा जाने लगा. ब्रिगेडियर उस्मान को आर्मी चीफ बनाने का लालच दे रहा पाकिस्तान इतना बौखला गया था कि उसने उन्हें मारने वाले को 50 हजार रु. ईनाम देने की घोषणा कर दी थी. झंगर फतेह के बाद अग्रिम चौकी का मुआयना करने निकले ब्रिगेडियर उस्मान दुश्मन की गोलीबारी की जद में आ गए. और मौके पर ही शहीद हो गए. 1912 में जन्मे ब्रिगेडियर उस्मान ने 3 जुलाई 1948 को आखिरी सांस ली. पूर्ण राजकीय सम्मान के साथ उनका दिल्ली में अंतिम संस्कार हुआ, जिसमें प्रधानमंत्री नेहरू, उनकी पूरी कैबिनेट के अलावा उस दौरान भारत में ब्रिटिश सरकार के आखिरी गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबैटन भी शामिल हुए. उन्हें मरणोपरांत महावीर चक्र से भी सम्मानित किया गया.
ब्रिगेडियर उस्मान की क्षतिग्रस्त कब्र को सेना ने एक हफ्ते में मरम्मत करके दुरुस्त कर दिया, लेकिन उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि तभी मिलेगी, जब इस देश का हर बाशिंदा उनके उसूल और इमान पर चलने की कोशिश करेगा.
किस काम आना चाहिए ब्रिगेडियर उस्मान की कब्र
अपनी बदहाली को लेकर चर्चा में आई ब्रिगेडियर उस्मान की कब्र क्या सिर्फ दुरुस्त रखे जाने की ही पात्र है? इस रणबांकुरे ने पाकिस्तानी दुश्मनों को ही धूल नहीं चटाई है, उन्होंने सांप्रदायिक बिखराव की उन चुनौतियों को भी परास्त किया, जो आज भी सिर उठाए घूम रही हैं. ब्रिगेडियर उस्मान का जीवन ध्रुवीकरण के दोनों सिरे पर खड़े हिंदू और मुसलमानों को पैगाम देता है:-
1. मुसलमानों की निष्ठा पर शंका करने वाले हिंदुओं के लिए सबक:
पाकिस्तान से आर्मी चीफ बनाए जाने का ऑफर होने के बावजूद ब्रिगेडियर उस्मान ने अपने पुरखों की जमीन पर ही जीना-मरना चुना. और उसी की सेवा करते हुए अपनी जान दे दी. वे जिस ब्रिगेड को नेतृत्व दे रहे थे, वह हिंदू-बहुल थी. एक मुखालिफ इस्लामिक मुल्क के सामने सीना आगे करके खड़े ब्रिगेडियर उस्मान के जहन में जरा भी ख्याल नहीं था कि वे हिंदू बहुल देश की रक्षा कर रहे हैं. वो उनका देश था, उनके पुरखों का देश था. उनकी आने वाली नस्लों का देश था. जिसकी रक्षा करना उनका फर्ज था. आज जिस कश्मीर को हम हमारे देश का ताज मानकर इतराते हैं, उसके लिए जान की बाजी तो ब्रिगेडियर उस्मान ने लगाई थी. यदि मुसलमानों को लेकर कोई कड़वाहट मन में आए तो यह याद कर लिया करें कि एक मुसलमान अफसर ने अपना खून दिया है इस ताज की रक्षा में.
2. खुद को अलग-थलग और बेचारा बताने वाले मुसलमानों के लिए सबक:
हिंदू-मुसलमानों के बीच अविश्वास, बंटवारे के दौर में अब के मुकाबले सौ गुना ज्यादा था. ब्रिगेडियर उस्मान ने इस अविश्वास से उदास होने के बजाए खुद पर विश्वास किया. उनके पास पूरा मौका था, खुद को पीड़ित मान लेने का. लेकिन, उन्होंने अपनी धार्मिक पहचान से ऊपर अपनी सैनिक पहचान को रखा. एक देशभक्त तो यही चाहेगा कि उसके साथी सिर्फ भारत माता की सेवा का जज्बा लिए आगे बढ़ें. उनकी निष्ठा पर शंका करने वालों के सामने न तो ब्रिगेडियर उस्मान ने कोई याचना की, और न ही सफाई दी. उन्होंने एक देशभक्त के रूप में अपनी पहचान को इतना ऊंचा उठा दिया कि उनके सामने धार्मिक पहचान की बातें बेमानी हो गईं. ब्रिगेडियर उस्मान वो मुसलमान हैं, जिनका धर्म है देशसेवा. ऐसे सपूत किसी और पहचान के मोहताज नहीं होते. ब्रिगेडियर उस्मान को हिंदू या मुसलमान बनकर याद नहीं किया जा सकता. सिर्फ भारतीय बनकर ही सैल्यूट किया जा सकता है.
जय हिंद!!
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