CAA का विरोध करने वाले पड़ोसी देशों में अल्पसंख्यकों पर हो रहे अत्याचार पर खामोश क्यो हैं?
भारत का कोई राजनेता या बुद्धिजीवी वर्ग तालिबान के इस कत्लेआम को लेकर अपनी 'एक्सपर्ट राय' देता नजर नहीं आया. इसके उलट जब तालिबान ने भारत के एक फोटो जर्नलिस्ट की नृशंस हत्या कर दी, तो लोगों ने तालिबान की आलोचना की जगह उस गोली को लानतें भेज दीं, जिससे पत्रकार को मौत के घाट उतारा गया.
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नागरिकता संशोधन कानून में पाकिस्तान (Pakistan), बांग्लादेश (Bangladesh) और अफगानिस्तान (Afghanistan) में धार्मिक प्रताड़ना और बर्बरता के शिकार हुए हिंदू , सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन और पारसी लोगों को भारत की नागरिकता देने की बात की गई थी. सीएए (CAA) के तहत धर्म के आधार पर नागरिकता देने के खिलाफ पूरे देश में मोदी सरकार (Modi Government) के खिलाफ धरना-प्रदर्शन हुए थे.
राजनीतिक दलों ने इस मुद्दे पर पूरी क्षमता के साथ अपनी सियासी रोटियां सेकीं. सीएए के सीएए के विरोध में खड़े भारत के कथित बुद्धिजीवी वर्ग ने लोगों के बीच जमकर प्रचार किया कि इसे राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC) के साथ जोड़कर देश के अल्पसंख्यकों यानी मुस्लिम समुदाय को निशाना बनाया जाएगा. जिसके बाद दिल्ली और उत्तर प्रदेश में दंगे भड़क गए और इनमें कई लोगों की मौत हुई. दरअसल, नेताओं और बुद्धिजीवी वर्ग को सीएए से ज्यादा समस्या भाजपा से थी और उन्होंने इस मौके को हाथ से जाने नहीं दिया.
मुस्लिम समुदाय के लोगों में डर भर दिया गया कि इस कानून के लागू होते ही अल्पसंख्यकों के तमाम के अधिकार छीनकर उन्हें डिटेंशन कैम्प में डाल दिया जाएगा. लोगों को देश से बाहर कर दिया जाएगा. हालांकि, करीब पौने दो साल बीत जाने के बाद भी ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है. लेकिन, इन राजनेताओं और कथित बुद्धिजीवी वर्ग को पड़ोसी देशों में अल्पसंख्यकों पर हो रहे अत्याचार पर सांप सूंघ जाता है.
भारत ने पाकिस्तान में हुई हालिया घटना के बाद पाकिस्तानी उच्चायोग के प्रभारी को तलब किया था.
अफगानिस्तान (Afghanistan) में हर बदलते दिन के साथ इस्लामिक कट्टरपंथी संगठन तालिबान (Taliban) का कहर बढ़ता जा रहा है. तालिबान के कब्जे वाले क्षेत्रों में इस आतंकी संगठन के लड़ाकों द्वारा महिलाओं को जबरन शादी के लिए मजबूर किया जा रहा है. अफगान सैनिकों को निर्ममता से मौत के घाट उतारने के साथ आम नागरिकों पर जबरन इस्लामिक कानून थोपा जा रहा है. अफगानिस्तान के दो-तिहाई से ज्यादा हिस्से पर तालिबान ने कब्जा करने का दावा किया है. अफगानिस्तान में स्थितियां इतनी भयावह हैं कि दुनिया के तमाम देशों ने अपने नागरिकों को वहां से निकलने के लिए एडवायजरी जारी कर दी है. साथ ही अमेरिका, ब्रिटेन, भारत जैसे देश वहां से लोगों को रेस्क्यू करने में जुटे हुए हैं. यहां गैर-मुस्लिमों के साथ ही अफगानियों के लिए भी हालात बुरे हो गए हैं. करीब दो दशकों तक अमेरिका की उपस्थिति के चलते अफगानिस्तान में अल्पसंख्यकों के अधिकारों का हनन उतना नहीं हुआ. लेकिन, अमेरिकी सेना की वापसी के साथ ही वहां के हाल बद से बदतर होने लगे हैं. लेकिन, भारत का कोई राजनेता या बुद्धिजीवी वर्ग तालिबान के इस कत्लेआम को लेकर अपनी 'एक्सपर्ट राय' देता नजर नहीं आया. इसके उलट जब तालिबान ने भारत के एक फोटो जर्नलिस्ट की नृशंस हत्या कर दी, तो लोगों ने तालिबान की आलोचना की जगह उस गोली को लानतें भेज दीं, जिससे पत्रकार को मौत के घाट उतारा गया.
वैसे, पाकिस्तान और बांग्लादेश में धार्मिक अल्पसंख्यकों के हालात किसी से छिपे नही हैं. इन मुस्लिम बहुल देशों में अल्पसंख्यकों के साथ दोयम दर्जे के नागरिकों सा बर्ताव किया जाता है. दशकों से बंदूक की नोंक पर धर्मांतरण से लेकर नाबालिग लड़कियों से शादी करने तक की घटनाएं सामने आती रही हैं. लेकिन, सीएए का विरोध करने वालों ने इस पर गजब की चुप्पी साध रखी है. इन लोगों के साथ समस्या ये भी मानी जा सकती है कि इनके कुछ कहने के बाद भी वहां फर्क क्या पड़ने वाला है? पाकिस्तान या बांग्लादेश इन लोगों के दबाव में आकर अल्पसंख्यक हिंदू और सिखों का धार्मिक उत्पीड़न बंद तो नहीं ही कर देंगे. हाल ही में पाकिस्तान की एक घटना ने दुनियाभर में सुर्खियां बटोरी. रहीम यार खान जिले के भोंग कस्बे के रहने वाले महज आठ साल के एक बच्चे पर ईशनिंदा कानून (blasphemy law) के तहत मुकदमा दर्ज किया गया. इस मामले में बच्चे को जमानत मिलने पर स्थानीय मौलवी के नेतृत्व में एक गणेश मंदिर में उन्मादी भीड़ ने हमला कर तोड़-फोड़ की. दरअसल, बच्चे पर आरोप था कि उसने मदरसे में जानबूझकर पेशाब की और मजहबी किताबों का अपमान किया. ये बच्चा पाकिस्तान में ईशनिंदा कानून का सबसे कम उम्र का पहला शिकार बना. वैसे, पाकिस्तान के ईशनिंदा कानून के बारे लोग अच्छी तरह से वाकिफ हैं. इस कानून का इस्तेमाल पाकिस्तान में मुख्य तौर पर धर्मांतरण के लिए किया जाता है. इसी तरह बांग्लादेश में भी उन्मादी भीड़ आए दिन मंदिरों और हिंदू अल्पसंख्यकों को निशाना बनाती रहती है. इन दोनों देशों के आजाद होने के समय अल्पसंख्यकों की आबादी और आज की आबादी में जमीन-आसमान का अंतर है. इस दौरान हिंदू और सिख अल्पसंख्यकों का डरा-धमकाकर जबरन धर्मांतरण करवाया गया. जो नहीं माने, वो मौत के घाट उतार दिए गए या फिर जान बचाकर भारत भाग आए.
पाकिस्तान और बांग्लादेश में धार्मिक अल्पसंख्यकों के हालात किसी से छिपे नही हैं.
मोदी सरकार जब सीएए को लाई थी, तो उसने साफ किया था कि मुस्लिम बहुल देशों में हिंदू, सिख, ईसाई, पारसी, बौद्ध, जैन अल्पसंख्यकों का धर्म के आधार पर उत्पीड़न होता है. लेकिन, इन देशों में किसी भी मुस्लिम का धर्म के आधार पर उत्पीड़न नहीं होता है. लेकिन, भाजपा-विरोधी लोगों और सियासी दलों को ये बात आसानी से हजम नहीं होनी थी. आखिर उनके वोट बैंक का सवाल था. तो मुस्लिम समुदाय के दिमाग में जहर भरा गया. जिसकी वजह से फरवरी 2020 में दंगे भड़के. 'चिकेन नेक' जैसे जहरीले भाषण देने वाले कई लोगों की गिरफ्तारियां हुईं, तो सीएए विरोधी राजनेताओं और बुद्धिजीवी वर्ग ने मोदी सरकार की तानाशाही बताने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी. वैसे, यहां ये बताना जरूरी है कि भारत ने पाकिस्तान में हुई हालिया घटना के बाद पाकिस्तानी उच्चायोग के प्रभारी को तलब किया था. भारत सरकार की ओर से पाकिस्तान में अल्पसंख्यक समुदाय की आजादी और उनके धार्मिक स्थानों पर हमले की लगातार बढ़ती घटनाओं पर कड़ा विरोध दर्ज कराया. ये भारत सरकार का दबाव ही है, जिसके आगे पाकिस्तान को झुकना पड़ा और तोड़े गए मंदिर की मरम्मत करायी गई.
वैसे, धार्मिक उत्पीड़न को लेकर अगर आप भारत से बाहर नहीं निकलना चाहते हैं, तो जम्मू-कश्मीर का ही रुख कर लीजिए. घाटी में धारा 370 और 35A के तहत लंबे समय तक दलित समुदाय के लोगों पर अत्याचार हुए. करीब सात दशकों तक दलित वर्ग के वाल्मीकि समुदाय को उनके अधिकारों से वंचित रखा गया. वाल्मीकि समुदाय के इन लोगों को मैला ढोने के घृणित कार्य के अलावा और कोई काम या नौकरी नहीं दी जाती थी. आलम ये था कि वाल्मीकि समुदाय के इन लोगों के पास राज्य की नागरिकता तक नहीं थी. घाटी में उग्रवाद की आंधी में कश्मीरी पंडितों का हाल भी किसी से छिपा नहीं है. लेकिन, इन तमाम बातों पर सीएए का विरोध करने वाले शुतुरमुर्ग बन जाते हैं. ये सभी लोग कश्मीरों पंडितों और वाल्मीकि समुदाय की बात करते भी हैं, तो केवल भाजपा या मोदी विरोधी एजेंडा साधने के लिए ही इसका इस्तेमाल करते हैं. अपने ही देश में हुए अत्याचारों पर जब ये लोग दशकों तक चुप्पी साधे रहे, तो इन लोगों से पड़ोसी देशों में अल्पसंख्यकों पर हो रहे अत्याचारों पर बोलने की उम्मीद क्या ही की जा सकती है.
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