Coronavirus Lockdown: अठारहवां दिन और लॉकडाउन रिज़ॉल्यूशन
लॉकडाउन (Coronavirus Lock down) को 18 दिन हो चुके हैं और लोग भी अपने अपने घरों में पड़े बोर हो गए हैं. सवाल हो रहा है कि क्या अब आने वाले दिनों में हम लोगों को लॉक डाउन पर भी रिज़ॉल्यूशन (Lockdown Resolutions) लेते देख पाएंगे.
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मेरे प्रिय,
किसने सोचा था कि साल के बीच में भी ऐसा कोई मौका आएगा जब सारी दुनिया एकबार फिर एकसाथ ‘रिजोल्यूशन’ ले रही होगी. यूं तो यह नेककाम लोग अंग्रेजी नववर्ष यानी एक जनवरी को करते हैं. किन्तु अब जब धरती पर मौत के बादल मंडरा रहे हैं तब हर दूसरा व्यक्ति मुझे यह कहता दिख रहा है कि ‘लॉकडाउन ख़त्म होगा तो सबसे पहले ये करेंगे, वो करेंगे’. जैसे-जैसे दिन बीत रहे हैं, लोग एक अलग ही उत्साह और जोश से भरते जा रहे हैं. ख़ुशी इस बात की कि वे अब तक जीवित हैं, जहां दुनियाभर में मरने वालों की संख्या लाख को पार करने को है. और जोश इस बात का कि अब अगर जीवित बच गए हैं तो बचा हुआ जीवन कुछ सार्थक करने में बिताएंगे. अब यह कहां लिखा है कि जो आज सोच रहे हैं वह कल हो ही जाएगा, या ख़ुद भी कर ही लेंगे.
अब लोग घरों में बोर हो गए हैं और यही चाह रहे हैं कि जल्द से जल्द ये लॉक डाउन खत्म हो जाए
हालांकि जिसे में उत्साह और जोश कह रही हूं वह उदासीनता की भीषण गर्मी के बीच आया कोई ठंडी हवा का झोंका होता है. क्योंकि घरों से बाहर, अधिक समय बिताने वाला प्राणी यदि अचानक ही कैद कर दिया जाए तो घबराहट होना स्वाभाविक है. ऐसे में वे क्षण-क्षण अपने आपको कुछ और दिन बिताने हैं कहकर प्रोत्साहित कर रहे हैं. एक-एक दिन किसी छोटी सी ख़ुशी के नाम पर बिता रहे हैं.
इन दिनों कैद में रहते इन लोगों को देखते हुए, मैं यह समझने की कोशिश कर रही हूँ कि हताशा और उदासीनता से आत्महत्या करने वाले लोग जितना भी जीवन जीते होंगे तो किसी उम्मीद में, किस ख़ुशी में जीते होंगे? इन दिनों में मैं कोशिश कर रही हूं अपने भीतर के सत्य की खोज की. उन सवालों की, या उस ऊहापोह को मिटाने की जो अधिकतर ही बेचैन करती है. जब सब कुछ निरर्थक लगे. अपना अस्तित्व भी.
हम क्यों आते हैं इस दुनिया में? बस पैदा होने, स्कूल जाने, कॉलेज जाने, फिर शादी करने, घर-बच्चे-नौकरी, फिर बूढ़े होने और मर जाने. जब मरना ही अंतिम सत्य है तो फिर उतना जीना क्यों? इतनी लंबी उम्र तक हर दिन एक उबाऊ जीवन क्यों जीते हैं? क्या है दुनिया में मनुष्य के आने का, उसके होने का कारण? फिलहाल की दुनिया में कुछ लोग इसलिए भी एक दिन जी लेते होंगे क्या, कि आज फेसबुक पर कोई नया लाइक आ जाए? या कोई नई मूवी देखने मिल जाए? या कोई नया गाना? या शायद इसलिए कि कल जो रिश्ता 'लड़की सांवली है' या 'लड़के की तनख्वा कम है' कहकर ठुकरा दिया गया था वो आज वापस कोई उम्मीद दिखा दे.
या शायद इसलिए कि कल रात लाइट जाने से सो नहीं पाए थे तो आज रात लाइट रहने से सोने मिल जाए. या शायद कल नगर निगम के टैंकर से पानी मिलने का हमारा नम्बर है. या शायद कल की कमाई इतनी हो जाए कि बच्चों को गन्ने का 10 रुपए वाला जूस पिला सकूं, उन्हें मीना बाजार में झूला झूला सकूं.
हर रोज़ कितनी ही अरबों खरबों उम्मीदों की ऊर्जा इस वातावरण में घुलती होगी जो हम-सभी को भी किसी न किसी रूप में मिलती होगी. तब भी क्या इन निरर्थक उम्मीदों के लिए जीते रहना और जीते चले जाना, दुःख महसूस करते हुए सुख का नाटक करना और रोज़ इन्हीं उम्मीदों के न पूरा होने पर उस नकारात्मक ऊर्जा से लड़ते रहना ही जीवन का अंतिम सत्य है? और यदि यही जीवन है तो फिर हमें अपने इस झूठे और मिट्टीमय जीवन के लिए इतना अहम क्यों?
मनुष्य मृत्यु से भय खाता है और मृत्यु की और ही बढ़ा चला जाता है. मैं यह तो नहीं कहती कि मेरे पास इसके लिए कुछ बेहतर उपाय हैं, किन्तु हां मेरे अब तक के अनुभवों में मुझे सबसे सरल उपाय प्रेम लगा. प्रेम करने जितना सरल ख़ुश रहने, जीवन के माने समझने और जीवन जीने के लिए और कुछ नहीं है.
अब देखो ना मैं अगर यह फ़िक्र करूं कि क्या होगा, कब होगा, कैसे होगा, फलां दिन यह हुआ, वह हुआ, इस सबसे परे मैं यदि तुम्हें प्रेम करने के बारे में सोचूं, तुम्हारे साथ रहने के बारे में सोचूं, तुम्हारे सीने से लगकर कोई सुन्दर गीत सुनने के बारे में सोचूं, या अपने माथे पर तुम्हारा प्रेम अंकित होने के बारे में सोचूं.
यह सोचना, महसूस करना किसी भी फ़िक्र को सोचते हुए वक़्त और तबियत दोनों ज़ाया करने से कई गुना बेहतर है ना. काश कि जब दुनिया नाउम्मीदी से घिरी है, जीवन डूब रहा है, तब हर दिल में प्रेम व्याप्त हो सके, और जीवन के जितने भी सुन्दर क्षण बचे हों वह मनुष्य प्रेम नाम की इस सकारात्मक ऊर्जा के सहारे बिता सके. मैं अपने लिए भी यही दुआ करती हूं .
तुम्हारी
प्रेमिका
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