Coronavirus Lockdown:14 दिन जो बता रहे हैं कि तुम और प्रकृति एक-मेक हो
कोरोना वायरस (Coronavirus ) के कारण 14 दिन के लॉकडाउन (Lockdown) के बाद अब वो वक़्त आ गया है जब हमें प्रकृति के बारे में सोचना चाहिए और ये मान लेना चाहिए कि हम और प्रकृति कई मायनों में एक दूसरे से मिलते जुलते हैं.
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मेरे प्रिय,
बंदी के इन दिनों में अजीब सी थिरता आने लगी है. एक अजीब सा चक्र बन गया है. जिसमें सोना है, जागना है, घर के ढेर सारे काम निपटाने हैं. और तुम्हें ख़त लिखना है. ऐसा नहीं था कि घर के काम पहले नहीं थे, या तुम्हें पहले याद नहीं करती थी. किन्तु अब जैसे रोबोट के माफ़िक चक्र चल रहा है और मैं किसी मशीन की तरह चलायमान हूं. ख़बरें देखती हूं. उन पर क्षणिक प्रतिक्रिया भी भीतर से कंपित होकर बाहर तक आती है. कुछ अच्छी होती हैं जिनमें सर्कार द्वारा की जा रही कोशिशें शामिल हैं. और कुछ बुरी, जैसे कि आज एक टाइगर भी कोरोना पॉजिटिव पाया गया. सच कहूं तो जब से यह ख़बर पढ़ी है मैं भय में हूं. प्रकृति के भी इस विषाणु में आने का भय. यदि यह विषाणु जानवरों में या किसी अन्य प्राकृतिक माध्यम में उतनी ही तेज़ी से फैला जितनी तेज़ी से यह इंसानों में फ़ैला तो संभवतः हम 2020 का अंत ना देख पाएं. पर फिर लगता है, जब इससे ठीक होने वाले मनुष्यों की संख्या भी इतनी अधिक है तो हम देर-सबेर ही सही जीत ज़रूर जाएंगे. बस दुआ इतनी है कि नुकसान हमारी सहन शक्ति से अधिक ना हो.
लॉक डाउन में जब हम अपने घरों में बंद है तो ये प्रकृति से ताल मेल बैठने का वक़्त है
मैं जाने क्यों आजकल प्रकृति और तुम्हें एक-मेक करने लगी हूं. लगता है जैसे तुम और प्रकृति एक ही हो. तुम्हारा होना और होकर भी ना होना जैसे जीवन की अबूझ पहेली बन गया है. कभी तुम ऊंची दरख़्त की सूखी टहनी पर बैठे उस पक्षी से लगते हो जो सारे जहान की हरियाली छोड़कर एक सूखी टहनी पर जाने क्या करने आ बैठता है, तो कभी उस तितली से जो हांफते हुए भी नीचे खिले बौर छोड़ दरख़्त के शिखर पर चमकते बौर से आकर्षित होती है.
तुम उस तितली, उस पक्षी जितने ही तो निराले हो. क्या करते हो, क्यों करते हो यह तुम्हारे अलावा कोई समझ नहीं पाता. जैसे समय, जैसे जीवन. क्या आजतक कोई बता पाया है समय क्या दिखाएगा? हज़ारों लोगों की हज़ारों तैयारियां, शादी-ब्याह, आना-जाना, सब कुछ ही तो धरा रह गया इस लॉक-डाउन में. जो नहीं रुका वो बस प्राकृतिक है, या फिर तुम्हारी याद.
पर प्रकृति और तुम्हारे उस हर काम के माने होते हैं यह तुम जानते हो. माने तो तुम्हारे हर ख़याल के भी होते हैं, बशर्ते उन्हें कोई समझ सके, समझने से ज़्यादा उनकी कदर कर सके. कितने मासूम हो कि छल तुम्हें छू भी नहीं पाता. तुम कितने सादा हो कि बड़े-बड़े से बड़ा रहीस भी तुम्हारी सादगी पर मोहित हो जाए और गरीब की आंखें भी तुममे अपना कोई मित्र पा जाए.
तुम सबके होकर भी सिर्फ अपने हो. जैसे बरगद का वह पेड़, जिसमें रहते हैं अनेक पंछी. वह उन सबका है, किन्तु फिर भी उसका अपना स्वतंत्र अस्तित्व कितना मजबूत है. सोचती हूं कि कितने वैरागी हो. पर, अनुराग तुम्हारे भीतर तक कहीं पैठ जमाए है यह भी सम्पूर्ण प्रकृति के लिए तुम्हारी परवाह जता ही देती है.
जैसे विशाल हिमालय के हृदय से पिघलकर पवित्र जलधारा निकलती है, ठीक वैसे ही तुम्हारे निर्मोही हृदय से मोह पिघलकर बहता रहता है और तुम्हारे अपने उसमें डुबकियां भरते हैं. कई दफ़े तुम्हारे स्पष्ट नज़रिए से तुम्हारे अपने तुमसे रूठ जाते हैं. जैसे मनुष्य रूठ जाता है जब अतिवृष्टि-अनावृष्टि, बादल फटने और भूकंप आने जैसी घटनाएं होती हैं.
किन्तु क्या यह निहित नहीं है कि ऐसा होगा? क्या यह स्पष्ट नहीं है? कुछ तो यह भी मानते हैं कि तुम स्वार्थी हो. पर, कोई मुझसे पूछे तो मैं बता दूं कि तुम सबके लिए स्वार्थी हो, तुम चाहते हो कि सबका भला हो, किसी को भी जीवन में चोट न लगने पाए. इस स्पष्टवादिता को तुम्हारे अपने भी तो कहां अपना पाते हैं.
तुम प्रेम में रहते हो 'हर वक़्त', तुम्हारा प्रेम कभी किसी पहर, किसी दिन, किसी भी घड़ी में कम-ज़्यादा नहीं होता. एकरसता तुम्हारे प्रेम में घुल गई है. वह है और सदा के लिए वैसा ही रहेगा यह मुझसे बेहतर कौन जानेगा?
सुनो, मैं और तुम एकमेक हैं मगर फिर भी बहोत अलग, परिणामतः हम उलझ जाएंगे कई दफ़े बेमतलब मसलों में, ऐसे में तुम संभाल लेना और धागों की गांठ पड़ने से पहले सारी उलझन सुलझा लेना. सुलझा लोगे ना? क्योंकि तुम्हारे बिन जीवन की कल्पना भी कल्पित नहीं होती.
इन दिनों जब हर तरफ उदासी की सूरत है वहां तुम्हें लिखना, तुमसे सब कुछ कह लेना, अपना प्रेम ज़ाहिर कर देने से सुन्दर और कुछ नहीं लगता.
तुम्हारी
प्रेमिका
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