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Updated: 28 मार्च, 2020 09:02 PM
अबयज़ खान
अबयज़ खान
  @abyaz.khan
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Coronavirus migration crisis in India: दोनों कांधों पर मासूम बच्चे. कमर पर बड़ा सा बैग. साथ में भारी सी दो गठरियाँ उठाए हुए महिला. 4 लोगों का छोटा सा कुनबा था. उलझे हुए से बाल, बिखरे हुए से कपड़े. चेहरे पर पसीने की बूंदे और बच्चों के सूखे हुए होंठ. अधेड़ से उस शख्स के हाथ में एक पुरानी सी प्लास्टिक की 2 लीटर की बोतल थी, जिसमें थोड़ा सा पानी भरा हुआ था. धूल से अटे पैरों में चलने से छाले पड़ गये थे. लग रहा था जैसे बहुत दूर से चलकर आ रहे हों. पिता के कंधों पर बैठे बच्चे ऊंघ रहे थे. शायद इस अनजान सफ़र की थकान में सोये भी नहीं थे. देखकर महसूस हुआ जैसे कई वक़्त से खाना भी नहीं खाया है.

कोरोना काल में दफ़्तर से पत्रकारिता का धर्म निभाने के बाद जब मैं नोएडा के लिए निकला तो दिल्ली से नोएडा के रास्ते में डीएनडी पर ये परिवार मिल गया. मैंने गाड़ी रोकी और पूछा भाई लॉक डाउन है. आप लोग कहाँ जा रहे हैं. इतना सुनते ही उस शख्स की जैसे रुलाई फूट पड़ी. रुंधे गले से उस शख्स ने इतना ही कहा भैय्या आगरा जा रहे हैं. लेकिन कोई गाड़ी तो चल नहीं रही है? कैसे जाओगे आगरा? और आगरा तो 250 किलोमीटर है? लॉकडाउन में जाने की जरूरत क्या है? कोरोना इतना खतरनाक वायरस है. मरना है क्या तुम्हें? मेरे इतने सारे सवालों के लिए वो शायद तैयार नहीं था. लेकिन उसका एक ही जवाब मेरे दिल पर हथौड़े की तरह लगा. बोला भैय्या कोरोना का तो पता नहीं लेकिन ऐसे ही बंदी रही तो भूख से जरूर मर जायेंगे. दिल्ली में किराये की झुग्गी में रहता था. बंदी के बाद काम से ठेकेदार ने निकाल दिया. मकान मालिक ने घर खाली करने को बोल दिया. साहब हम तो दिहाड़ी मजदूर हैं. रोज कमाते हैं. रोज खाते हैं. लेकिन जब काम ही नहीं मिलेगा तो इन बच्चों का पेट कहां से भरेगा. मैं अपनी बीवी-बच्चों के साथ बड़े सपने लेकर दिल्ली आया था. अब सब कुछ बिखर चुका है. आप ही बताइए इन मासूमों को लेकर कहां जाऊं. घर जाने के सिवा कोई चारा नहीं है. गाड़ी चल नहीं रही है. पुलिस निकलने नहीं दे रही है. बच्चे छोटे हैं पैदल भी चल नहीं सकते. उत्तमनगर से यहां तक तो आ ही गए हैं. ऊपर वाले ने जिंदा रखा तो अपने गांव भी पहुँच ही जायेंगे.

Coronavirus migrant labourerमुंह पर रुमाल लपेटे हाईवे पर सिर्फ कतार...

मैंने पूछा खाना खाया है? बोला हाँ साहब रात खाया था. अब सुबह से नहीं खाया है. गुड़-चना खा लिया है. बच्चों को भी वही खिला दिया है. सब बंद है. खाना कहां मिलेगा? उसकी बात सुनकर मैंने इतना ही कहा भैय्या मेरे पास खाने को तो कुछ नहीं है. मगर इस मुश्किल वक़्त में कुछ पैसों से मैं आपकी मदद कर सकता हूं. लेकिन उस शख्स ने साफ़ इंकार कर दिया. अलबत्ता उसने मुझे फोटो लेने से भी मना कर दिया. बोला..साहब फोटो मत लीजिए हम गरीबों का वैसे ही बहुत तमाशा बन जाता है. मुझसे अब उसके बच्चों की तरफ देखा नहीं जा रहा था. उन बच्चों की मासूम निगाहों में कुछ सवाल थे. जिनका जवाब देने की हिम्मत मुझमें नहीं थी. मेरा दिमाग़ जैसे सुन्न हो गया था. लग रहा था जैसे कोई बहुत बड़ा गुनाह हो गया हो. कल तक लॉक डाउन तोड़ने वालों को मैं खुद कोस रहा था. लेकिन आज इस शख्स की मजबूरियों ने मुझे अंदर तक झकझोर दिया था.

Coronavirus migration updateजिसे जैसी व्यवस्था मिली, अपने देश चल पड़ा

ऐसी इक भीड़ देश के तमाम शहरों में सड़कों के किनारे चली जा रही है. लश्कर के लश्कर अपनी जान की परवाह किए बिना सिर से कफ़न बांधकर निकल चुके हैं. मगर इन तस्वीरों ने मुझे कोरोना से भी ज्यादा डरा दिया. लोगों की आंखों में मानों बहुत से सवाल हों मगर पूछ नहीं पा रहे थे. अपने अपने घरों से दूर अंजान बड़े शहर में उनकी रोजी-रोटी का जरिया भी छिन चुका था. कोई खोमचे पर सामान बेचता था, कोई सब्जी की रेहड़ी लगाता था, कोई घरों में झाड़ू पोछा करता था, कोई दिहाड़ी पर बड़े साहबों के लिए घर बनाता था. मगर सब एक झटके में जैसे छिन गया था. एक ऐसा खौफनाक वायरस चुपके से हम सबकी जिंदगी में सेंध लगा चुका था. सभी लोग जानना चाहते थे कि अब क्या होगा? कल उनके बच्चों का पेट कैसे भरेगा? घर में दवाई के पैसे कहां से आयेंगे. कहाँ से देंगे वो अपने घरों का किराया? और कहां से चुकाएंगे राशन वाले लाला का उधार? मगर इन सवालों का जवाब जैसे किसी के पास भी कहां था? सब चुप थे अपने अपने सवालों के साथ.

Coronavirus migrating familyपलायन करते परिवार गवाही हैं कि इन्हें सरकारों पर भरोसा नहीं

डरा हुआ सा मैं गाड़ी चलाते हुए घर लौट आया था. दिमाग जैसे काम करना बंद कर चुका था. दिनभर गुलज़ार रहने वाली मेरी सोसाइटी में श्मशान जैसा सन्नाटा पसरा हुआ था. थोड़ी थोड़ी देर में सड़क पर एम्बुलेंस की आवाज़ें और डरा देती थीं. बालकनी से दिखने वाला सड़कों का सन्नाटा, दुकानों पर जड़े हुए बड़े से ताले एहसास करा रहे थे कि कुछ भी अच्छा नहीं है. लोग एक दूसरे को देख जरूर रहे थे मगर बोल नहीं रहे थे. लिफ्ट में सवाल जवाब करने वाले दूरियां बनाकर खड़े हो गए थे. सबको एक अनजान सा डर था उन्हीं लोगों से मिलने में जिनके साथ होने पर वो बेख़ौफ़ रहते थे. डर भी वाजिब था. क्या पता कल हों ना हों. हम एक दूसरे से मिल पायें भी या ना मिल पायें. मन किसी अपने से बात करने का था, मगर इस दौर में कोई अपना कहां था.

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लेखक

अबयज़ खान अबयज़ खान @abyaz.khan

लेखक पत्रकार हैं

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