एक ग्लेशियर की मौत धरती को बचाने का अलार्म दे रही है !
Iceland के ओकजोकुल ग्लेशियर (Okjokull glacier) की मौत हमें चेतावनी दे रही है कि धरती को बचाने का समय आ गया है, अब देरी नहीं कर सकते नहीं तो हमारा अस्तित्व मिटने में ज्यादा समय नहीं लगेगा.
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Iceland पहली बार एक ग्लैशियर की कब्र बन रही है और पूरे विश्व के वैज्ञानिक ग्लैशियर की मौत का मातम मना रहे हैं. आइसलैंड का ओकजोकुल ग्लेशियर (Okjokull glacier) अपनी पहचान और अस्तित्व खोने वाला दुनिया का पहला ग्लेशियर बन गया है. ओकजोकुल से ग्लेशियर का दर्जा वापस ले लिया गया है. 700 साल पुराना यह ग्लेशियर आइसलैंड देश के सबसे प्राचीन ग्लेशियरों में से एक था. अब वहां बर्फ के कुछ टुकड़े ही बचे हैं. क्लाइमेट चेंज या कहें जलवायु परिवर्तन के कारण ही इस ग्लेशियर का अस्तित्व मिट गया है. वैज्ञानिकों ने ग्रीन हाउस गैसों को इसके लिए उत्तरदायी ठहराया है. स्थिति बहुत ही गंभीर होती जा रही है अगर हम ग्रीन हाउस गैसों का प्रयोग जीरो भी कर दें तो सामान्य स्थिति लाने में दो सदी लग जाएंगी.
इस ग्लेशियर की मौत हमें चेतावनी दे रही है कि धरती को बचाने का समय आ गया है, अब देरी नहीं कर सकते नहीं तो हमारा अस्तित्व मिटने में ज्यादा समय नहीं लगेगा.
नासा ने ओकजोकुल ग्लेशियर की ये तस्वीर ली हैं. पहली तस्वीर 14 सितंबर 1986 की है और दूसरी 1 अगस्त 2019 की.
जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग के कारण पर्यावरण को अत्यधिक नुकसान हो रहा है. हाल-फ़िलहाल के कुछ घटनाओं में नजर डालें तो ये हमें सोचने पर विवश कर देती है कि आने वाले समय में दुनिया का मिजाज क्या रहेगा. हाल ही में 2 अगस्त को ग्रीनलैंड में सिर्फ 24 घंटे में करीब 12.5 बिलियन टन बर्फ की चादर पिघल गई. ये इतिहास में किसी भी एक दिन में सबसे ज्यादा बर्फ पिघलने का रिकॉर्ड है. वैज्ञानिकों के अनुसार इसके परिणामस्वरुप एक महीने में समुद्र का जलस्तर 0.1 मिलीमीटर या 0.02 इंच बढ़ सकता है. हाल फिलहाल में चिली, चीन या फिर कोई और देश सब जगह से तेजी से बर्फ पिघलने की रिपोर्ट आ रही है.
ग्लेशियर क्यों पिघल रहे हैं?
1900 के दशक की शुरुआत से दुनिया भर के कई ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं. मानवीय गतिविधियां इसके लिए प्रमुख रूप से उत्तरदायी हैं. इंडस्ट्रियल रेवोलुशन के बाद से कार्बन डाइऑक्साइड और अन्य ग्रीनहाउस गैसों के अत्यधिक प्रयोग और उसके उत्सर्जन के कारण तापमान में वृद्धि हुई खासतौर पर दोनों पोल (ध्रुव) के पास ज्यादा और इसके परिणामस्वरूप ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं और समुद्र में मिल रहे हैं. साथ ही साथ भूमि से पीछे भी हटते जा रहे हैं. स्थिति हाथ से इस कदर निकलती जा रही है कि अगर हम आने वाले दशकों में उत्सर्जन पर बहुत अधिक अंकुश भी लगाते हैं, तो दुनिया के शेष ग्लेशियरों की एक तिहाई से अधिक संख्या वर्ष 2100 से पहले पिघल जाएगी. वैज्ञानिकों का मानना है कि यदि उत्सर्जन में अनियंत्रित वृद्धि जारी रहती है, तो वर्ष 2040 तक आर्कटिक गर्मियों में बर्फ मुक्त हो सकता हैं.
कहां दिख रहा ज्यादा प्रभाव?
पृथ्वी पर हर जगह बर्फ पिघल रही है या कहें तो घट रही है. किलिमंजारो पहाड़ों की बर्फ 1912 के बाद से 80 प्रतिशत से अधिक पिघल गई है. भारत में गढ़वाल हिमालय में ग्लेशियर इतनी तेजी से पिघल रहे हैं कि वैज्ञानिकों का मानना है कि अधिकांश मध्य और पूर्वी हिमालय के ग्लेशियर लगभग 2035 तक गायब हो सकते हैं. पिछले 50 साल में आर्कटिक समुद्री बर्फ की लेयर काफी पतली हो गई है और पिछले 30 वर्षों में इसके साइज में लगभग 10 प्रतिशत की गिरावट आई है. नासा के लेजर अल्टीमीटर द्वारा ली गयी रीडिंग से साफ प्रतीत हो रहा है कि ग्रीनलैंड की बर्फ की चादर सिकुड़ रही है. आर्कटिक से पेरू तक, स्विट्जरलैंड से इंडोनेशिया के इक्वेटोरियल ग्लेशियर मैन जया तक, बड़े-बड़े बर्फ के मैदान, विशाल ग्लेशियर और समुद्री बर्फ गायब, लुप्त होते जा रहे हैं और जिसका परिणाम बहुत ही भयंकर हो सकता है.
किलिमंजारो पहाड़ों की बर्फ 1912 के बाद से 80 प्रतिशत से अधिक पिघल गई है
ग्लेशियरों के पिघलने से क्या नुकसान?
पिघलते ग्लेशियर बढ़ते समुद्र के स्तर में वृद्धि करते हैं जिससे तटीय क्षरण (Coastal erosion) बढ़ता है. साथ ही साथ लगातार और तीव्र तटीय तूफान पैदा होते रहते हैं क्योंकि समुद्री तापमान में वृद्धि होती है और गर्म हवाएं बहुत वेग में रहती हैं. जैसे ही समुद्री बर्फ और ग्लेशियर पिघलते हैं और महासागर गर्म होते हैं, समुद्र की धाराएं दुनिया भर में मौसम के मिजाज को प्रभावित करती हैं. समुद्री जीव-जंतुओं को प्रभावित करती हैं. समुद्र से जुड़े व्यवसाय को भी प्रभावित करती हैं. ग्लेशियरों के पिघलने से जैव विविधता को नुकसान पहुंचता है और जीव-जंतुओं की दुर्लभ प्रजातियां खत्म होने लगती हैं. ग्लेशियरों के पिघलने से ताजे पानी की मात्रा में कमी आ सकती है, जो बढ़ती जनसंख्या की दृष्टि से बेहद चिंताजनक है. और इसके साथ-साथ समुद्र के किनारे बसे शहरों का पानी में डूबने का खतरा बढ़ जाता है.
ग्लेशियरों का धीरे-धीरे कम होना बढ़ते वैश्विक तापमान के सबसे भयावह परिणामों में से एक है. मनुष्य अपने हित या स्वार्थ के लिये अपने ही भविष्य से खिलवाड़ कर रहा है. ओकजोकुल ग्लेशियर की मौत इस खतरे से बचने का अलार्म दे रही है.
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