हिंदी के आग्रह और विरोध में कुछ बुनियादी गलतियां, जो दोनों ओर से होती हैं
किच्चा सुदीप और अजय देवगन की वजह से हिंदी को लेकर बेवजह विवाद बनाने की कोशिश हुई. जबकि हिंदी अपनी प्रकृति में बिना प्रचार प्रसार के गैर हिंदी क्षेत्रों में जगह बनाते जा रही है. हिंदी को तमाम मिथकों से निकलकर जानने की जरूरत है. किच्चा सुदीप और अजय देवगन भी धारणाओं में ही जकड़े नजर आते हैं.
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अभी हिंदी को लेकर नई बहस छिड़ गई है, जिसकी बुनियाद कन्नड़ फिल्म उद्योग के अभिनेता किच्चा सुदीप और हिंदी फिल्म उद्योग के अभिनेता अजय देवगन की ट्विटर के माध्यम से की गई तकरार ने रखी है. जिसके मूल में यह तथ्य है कि हिंदी राष्ट्रभाषा है या नहीं? जाहिर है कि हिंदी तकनीकी रूप से राष्ट्रभाषा नहीं है. हां आजादी के आंदोलन और संविधान सभा की बहसों में इस बात की पुरजोर वकालत की गई थी कि हिंदी राष्ट्रभाषा बने और ऐसी मांग करने वालों में महात्मा गांधी से लेकर उस समय के तमाम ऐसे नेता थे, जिनकी मातृभाषा हिंदी नहीं थी. इसका मतलब यह कदापि नहीं है कि ये लोग हिंदी से कुछ अतिरिक्त प्यार करते थे, बल्कि इसका मतलब यह है कि उनकी दृष्टि में- किसी अंग्रेजी औपनिवेशिक विरासत वाले नए बनते राष्ट्र को चलाने के लिए हिंदी सबसे उपयोगी भाषा थी, जो आज भी है और आगे भी रहेगी.
जहां तक इसका तकनीकी पक्ष है, तो हिंदी देश के संघ की राजभाषा है, वह भी अंग्रेजी के साथ. ध्यान रहे कि विभिन्न राज्यों की अपनी अनेक राजभाषाएं हैं, जो राज्य के भीतर के सरकारी काम-काज के लिए उपयोग में लाई जा सकती हैं. अभी कुछ दिन पहले देश के गृहमंत्री के केंद्रीय राजभाषा विभाग के प्रमुख के रूप में इस आह्वान के बाद कि देश में अंग्रेजी के बदले हिंदी के प्रयोग को बढ़ाया जाय, हिंदी विरोध का एक स्वर तमिलनाडु से सामने आया था. जाहिर है राजनीति के स्तर पर तमिलनाडु या कर्नाटक से इस तरह के स्वर का उभरना कोई नया नहीं है, बल्कि तमिलनाडु की राजनीति में हिंदी विरोध हमेशा से एक केंद्रीय मुद्दा रहा है. लेकिन इस स्वर में देश के प्रतिष्ठित संगीतकार एआर रहमान और अभिनेता प्रकाश राज का अपना स्वर मिलाना चौंकाता है. निश्चित रूप से ये दोनों दक्षिणी राज्यों से हैं और उनके उभार में वहां की भाषा, समाज और संस्कृति का योगदान है. बहुभाषिक समाज का यह बड़ा यथार्थ है कि किसी की जातीय पहचान उसकी प्रथम भाषा से ही होती है और इसमें कोई बुराई भी नहीं है.
लेकिन बहुभाषिक समाज के भाषिक प्रबंधन में मातृभाषा के समक्ष उस समाज की व्यावहारिक भाषा की उपेक्षा आसान नहीं है, यदि मामला लोकतंत्र का हो तो यह असंभव है. ऐसे में गृहमंत्री का अंग्रेजी के मुक़ाबिल हिंदी को खड़ा करना, उसी व्यावहारिकता और भाषिक प्रबंधन का तकाजा है. इसके विस्तार के रूप में ध्यातव्य है कि तमिलनाडु से ही संबंध रखने वाले पूर्व गृहमंत्री पी चिदम्बरम के भोजपुरी को आठवीं अनुसूची में शामिल कराने के लिए संसद में प्रतिरोध कर रहे बहुदलीय सांसदों को शांत कराने के लिए एक वाक्य – ‘हम राउर सभे क भावना समझत बानी’ भोजपूरी में बोला था, वर्तमान प्रधानमंत्री देश के अलग-अलग हिस्सों के सार्वजनिक रैलियों में एक-दो वाक्य वहां की स्थानीय भाषा में बोलते हैं. या फिर त्रि-भाषा सूत्र की पहल हो, सरकारों के द्वारा अनेक भाषाओं को राजभाषा को दर्जा दिया जाना हो, बहुभाषिक सूचना-प्रसारण की व्यवस्था हो, 22 भाषाओं को संविधान की अनुसूची में स्थान दिया जाना हो या 6 भाषाओं को शास्त्रीयता का दर्जा.
यही नहीं अपनीकल्पना में जो प्रस्तावित ‘हिंदी एवं भारतीय भाषा विश्वविद्यालय’ था, वह कार्यान्वयन के शुरुआत में ही ‘भारतीय भाषा विश्वविद्यालय’ हो गया. यह सब बहुभाषिकता के प्रबंधन और लोकतंत्र की मांग और दबाव के अनुसार होता है.
अजय देवगन.
1600 मातृभाषाओं में हिंदी की स्थिति क्या है?
बहरहाल यह भी ध्यान रहे कि वर्तमान गृहमंत्री अंग्रेजी के विरोध और हिंदी के पक्ष में आह्वान अपनी खुद की मातृभाषा गुजराती की बुनियाद पर और देश की जरूरत की दृष्टि से कर रहे हैं. ठीक वैसे ही जैसे फिल्म निर्माता एसएस राजामौली, रोहित शेट्टी आदि अपनी फिल्मों का निर्माण या पुनर्निमाण हिंदी में करते हैं और प्रकाश राज उसमें अभिनय और एआर रहमान उसका संगीत निर्देशन करते हैं. इसका मतलब यह नहीं कि हिंदी को किसी ने इन लोगों पर थोपा है, बल्कि व्यावहारिकता के धरातल पर इन लोगों ने हिंदी को किसी ना किसी रूप में अपनाया है. देश में 1600 से अधिक मातृभाषाएं हैं, तो न तो सबमें देश चल सकता और न ही सबमें फिल्म का अकूत बाजार बन सकता है. इसीलिए न सिर्फ देश की दूसरी भाषाओं की, बल्कि हॉलीवुड की भी फिल्में हिंदी में डब होकर आती हैं. लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि अल्पसंख्यक या दूरस्थ भाषा एवं संस्कृतियों को बचाने और समृद्ध करने की जिम्मेदारी से राज्य को छूट दी जा सकती है, ऐसे में उचित ही है कि नई शिक्षा नीति में शुरुआती कक्षाओं तक मातृभाषा में शिक्षण की बात की गई है और उसका धरातल पर पालन होना चाहिए. साथ ही जैसा कि घोषित है आगामी जनगणना में मातृभाषा के न्यूनतम आंकड़ों का संग्रहण और प्रकाशन हो. इस प्रकार देश की भाषाओं का संरक्षण और संवर्धन के लिए अंग्रेजी की तुलना में हिंदी कहीं अधिक उपयोगी है. हिंदी यहां उस छाता की तरह दिखती है, जहां सबके लिए छाया है. जाहिर है यह काम अंग्रेजी में तो सोचा भी नहीं जा सकता है. यह आश्वस्ति सिर्फ हिंदी की छांव में सहज और संभाव्य है.
इस क्रम में हिंदी को लेकर कुछ बने-बनाए भ्रम से जितना जल्दी हो सके, देश उतना जल्दी निकल जाए तो अच्छा होगा. सर्वप्रथम ‘हिंदी पट्टी’ जैसी कोई चीज वास्तविक धरातल पर नहीं है. यह सिर्फ ग्रियर्सन के द्वारा प्रस्तावित ‘हिंदी बेल्ट’ का अनुवाद भर है, जिसे रामविलास शर्मा आदि ने हिंदी में जड़भूत कर दिया. जिस बड़े क्षेत्र को ग्रियर्सन ने ‘हिंदी बेल्ट’ कहा था, उसी में से बिहार को ‘बिहारी भाषा’ वाला क्षेत्र बताया था. आज यदि इस भाषा को खोजा जाएगा, तो न तो वास्तव में कोई ‘बिहारी भाषा’ का अस्तित्व है और न ही ‘हिंदी बेल्ट’. वास्तव में इस पट्टी में हिंदी से अधिक प्यार पाने वाली दूसरी सैकड़ों भाषाएं हैं और ये सभी लोग हिंदी को उसी व्याहरिकता के धरातल पर खड़ा होकर स्वीकार करते हैं, जैसे देश के दूसरे हिस्सों के लोग. आज देश में हिंदी के नाम पर घोषित सरकारी-गैरसरकारी नौकरियों की अखिल भारतीयकरण तेजी से हुआ है. अब देश को जोड़ने, चलाने, यहां जातीय संस्कृति को अक्षुण्ण रखने के लिए एक संवाहक भाषाओं की जरूरत होगी और इस क्षेत्र में हिंदी सर्वाधिक उपयोगी है और इसीलिए महात्मा गांधी ने हिंदी की वकालत की थी और देश के प्रतिनिधित्व की दृष्टि से इसे ‘हिन्दुस्तानी’ बनाने पर जोर दिया था और यह रुख गृहमंत्री के वर्तमान आह्वान में भी दिख रहा है, क्योंकि वह साथ में यह जोड़ते हैं कि भारतीय भाषाओं से हिंदी में शब्द लिए जाएं.
तमिलनाडु में हिंदी की लोकप्रियता का मतलब क्या है?
यदि जनगणना के 2001 और 2011 की रिपोर्टों के आधार पर निकले निष्कर्ष को देखा जाएगा, तो वह यह सिद्ध करने के लिए काफी होगा कि तमिलनाडु की राजनीति में मुद्दों को चुनने का ढर्रा अब बदल देना चाहिए. दरअसल हिंदी बोलने वालों की जो जनसंख्या सन् 2001 में थी, उसमें 2011 तक अखिल भारतीय स्तर पर 25.18 प्रतिशत की वृद्धि हुई, लेकिन यही विस्तार किसी पूर्ण राज्य के रूप में तमिलनाडु में सबसे ऊपर है, जो 107.61 प्रतिशत है. आगे यह केरल में 96.80, गोवा में 95.39, गुजरात में 78.53 और कर्नाटक में 49.70 प्रतिशत है. हिंदी-विस्तार का यही आंकड़ा उत्तर प्रदेश में 23.85, बिहार में 33.08 और मध्यप्रदेश में 22.15 प्रतिशत है, ध्यान रहे कि ये क्षेत्र ‘कथित’ रूप से हिंदी प्रदेश हैं और यहां इन दस वर्षों के अंतराल में जनसंख्या के कुल विस्तार वाले प्रतिशत की अवहेलना नहीं की जा सकती है. स्पष्ट है कि धारणा से विपरीत हिंदी का मूल विस्तार उन्हीं क्षेत्रों में अधिक हुआ है, जहां परंपरागत रूप से हिंदी का प्रभाव नहीं था और उसमें भी तमिलनाडु सबसे ऊपर है. गौरतलब है कि वहां हिंदी को किसी ने थोपा नहीं है, बल्कि अंतर-राज्यीय रोजगार, शिक्षा और मनोरंजन आदि की चाहत में लोगों ने हिंदी सीखी है.
यदि हिंदी को थोपना होता तो यह संविधान की मूल मंशा के अनुरूप आज देश की सर्वस्वीकार्य और अनिवार्य राजभाषा होती. वास्तव में हिंदी एक बहुभाषिक भाषा है. अपनी संरचना और कलेवर में लचीलापन ही इसकी अपनी पूंजी है और इसी से इसकी स्वीकार्यता बढ़ी है, न कि किसी के थोपने से. भारतीय लोक और लोकतंत्र को हिंदी में सबसे सहज ढंग से चरितार्थ किया जा सकता है. अंग्रेजी में न तो तमिलनाडु की आम जनता से संवाद संभव है और न ही कहीं और. भाषा एक सामासिक परिसंपत्ति होती है, इस क्षेत्र में आत्मनिर्भरता की बात सोचना भी मूर्खता है. दो अलग-अलग भाषाओं से दो व्यक्ति, दो समाज, दो कमरे बन सकते हैं, जबकि इनमें संवाद के लिए किसी एक भाषा की जरूरत होगी, दो बंद कमरों से निकलकर एक आंगन की जरूरत होगी. हिंदी ने यह काम वर्षों से किया है और यही कारण है कि बिना मातृभाषाई आधार के देश में इसके जानने वालों की संख्या आंकड़ों में 43 प्रतिशत से अधिक है. यह भी ध्यान रहे कि ये सभी आंकड़े 2011 की जनसंख्या की रिपोर्ट से निकलें है जबकि आज 10 वर्ष से अधिक हो गए हैं. निश्चित रूप से हिंदी विस्तार के आंकड़े वास्तव में आज बहुत आगे होंगे, क्योंकि सूचना-तकनीक, मनोरंजन, व्यापार, निवेश आदि क्षेत्रों में खुली अर्थव्यवस्था का हस्तक्षेप बढ़ा है.
अजय देवगन को हिंदी की चिंता है तो वह विवाद में पड़ने की बजाय एक काम कर सकते हैं
बहरहाल एक देश और एक भाषा मूलत: पश्चिमी मॉडल है, जबकि भारतीय स्थितियां इस मायने में काफी भिन्न है, इसलिए यहां किसी एक भाषा को राष्ट्रभाषा का दर्जा देना कहीं से उचित नहीं होगा, बल्कि जिसको भी ऐसी परिस्थितियों में हिंदी की चिंता सता रही हो, वह उसे ढंग से राजभाषा ही बना दे तो उचित होगा. जहां तक इसके फिल्मी संबंध और दक्षिण और मुंबई के फिल्म-निर्माताओं के संबंध का सवाल है तो यह बहुत स्पष्ट है कि ये लोग हिंदी की सेवा नहीं कर रहे हैं, न तो मुंबइया फिल्म उद्योग हिंदी में फिल्म बनाकर और न ही दक्षिण के फिल्म निर्माता हिंदी में वहां की फिल्मों को डब करके. बल्कि यह सब सिर्फ इसलिए किया जाता है कि उनकी फिल्मों को अखिल भारतीय बाजार का लाभ मिल सके. यदि आज ‘पुष्पा झुकेगा नहीं’ वाला संवाद देश भर में फैला है तो सिर्फ इसलिए कि वह हिंदी में है. यदि हाल की कई दक्षिण की फिल्में देशभर में हजारों करोड़ का व्यापार की हैं, तो उसका एक कारण उनका हिंदी में उपलब्ध होना भी है. इसलिए अजय देवगन को हिंदी की चिंता नहीं करनी चाहिए, उनको सही में हिंदी की चिंता है तो बालीवुड में हिंदी को जो रोमन में लिखने की परंपरा है, उसी को बंद कराना चाहिए, जैसा कि अभी हाल में नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने अपील की है.
लोकतंत्र में किसी को इतना शक्तिशाली नहीं होना चाहिए कि वह समाज का एकमेव निर्धारक बन जाए. भाषाएं तो वैसे भी बहुभाषिक समाज के लोकतंत्र की नियामक होती हैं. ध्यान रहे कि यदि अंग्रेजी का शक्तिशाली होना भारतीय लोकतंत्र की मूल भावना के खिलाफ है, तो इसकी संभावना हिंदी के साथ भी बनी रहेगी. लेकिन हिंदी और अंग्रेजी की आपस में तुलना की जाए, तो हिंदी निश्चित रूप से भारतीय लोकतंत्र के लिए सर्वाधिक उपयोगी रही है. वह इसलिए भी अपने इतिहास से ही हिंदी ने समायोजन पर ज़ोर दिया है, बहिष्कार पर नहीं. यही कारण है कि इसमें अरबी, फारसी, उर्दू और अंग्रेजी आदि के सैकड़ों शब्द सहज स्वीकार्य हैं और यही इसकी शक्ति है, जिससे इसने अपना रास्ता खुद बनाया है और आगे भी बनाएगी और भारतीय बहुभाषिकता के मूल चरित्र की रक्षा करेगी, जिसमें देश की सभी भाषाएं शामिल हैं.
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