पैगंबर मुहम्मद के बारे में कुछ भी बोलना क्या अभिव्यक्ति की आजादी है? एक बड़ा फैसला
इस्लाम की आलोचना के लिए पैगंबर मुहम्मद पर आपत्तिजनक टिप्पणी को अभिव्यक्ति की आजादी कहने वालों को धक्का लगा है. यूरोपियन कोर्ट ऑफ ह्यूमन राइट्स ने इस बारे में फैसला देकर कई बातें साफ कर दी हैं.
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अपने पैगम्बर को लेकर मुसलमानों का हमेशा ही यूरोप से छत्तीस का आंकड़ा रहा है. चाहे शार्ली ऐब्डो का पैगम्बर मुहम्मद को लेकर आपत्तिजनक कार्टून हो या फिर फ्रांस में आतंकवाद के मद्देनजर बुर्के पर बैन. मुसलमानों को आतंकवादी बताए जाने से लेकर पैगम्बर मुहम्मद के बाल यौन शोषण में लिप्त होने तक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर पूरे यूरोप में बहुत कुछ कहा गया. जिसने इस्लाम और पैगम्बर की छवि को दुनिया के सामने धूमिल किया. लेकिन अब इस कथित 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' को यूरोपियन कोर्ट ऑफ ह्यूमन राइट्स ने आईना दिखाया है.
कोर्ट ने कहा है कि 'पैगंबर को बदनाम करना अब एक उद्देश्यपूर्ण बहस की जायज सीमा से परे चला गया है.' साथ ही कोर्ट ने ये भी कहा है कि ऐसा होने से 'पूर्वाग्रह को बढ़ावा मिलेगा, जिससे धार्मिक शांति खतरे में पड़ सकती है.' एक ऐसे वक़्त में जब इस्लाम और उसके पैगंबर को लेकर सबसे ज्यादा कटाक्ष यूरोप से किया जा रहा हो, वहीं से इस फैसले का आना एक नई बहस को जन्म देता है.
इस्लाम के लिहाज से यूरोपियन कोर्ट ऑफ ह्यूमन राइट्स के पैगंबर पर फैसले को एक बड़ा फैसला माना जा रहा है
यूरोपियन कोर्ट ऑफ ह्यूमन राइट्स के 7 सदस्यीय पैनल को ये फैसला क्यों देना पड़ा इसकी वजह भी खासी दिलचस्प है. बात 2009 की है. ऑस्ट्रिया निवासी मिसेज एस (संभवत: महिला की पहचान छुपाने के लिए केस में इसी तरह नाम का उपयोग हुआ) ने 'इस्लाम पर मूलभूत जानकारी' विषय पर दो सेमिनार्स का आयोजन किया. और उसमें 56 साल के पैगम्बर मुहम्मद और 6 साल की आइशा की शादी और 9 साल की उम्र में संबंध बनाने को डिस्कस किया. पैगम्बर को बाल यौन शोषण में लिप्त बताया.
15 फरवरी 2011 को वियना क्षेत्रीय आपराधिक न्यायालय ने मिसेज एस पर लगे इन आरोपों को गंभीरता से लिया और उन पर धार्मिक मान्यताओं को अपमानित करने के लिए 480 यूरो और केस की सुनवाई पर हुए खर्च की लागत भी वसूली गई. दिसंबर 2011 में श्रीमती एस ने वियना कोर्ट ऑफ अपील में अपील की मगर उससे कोई फायदा नहीं मिला और निचली अदालत के फैसले को बरकरार रखा गया.
If you want to read the full decision (it's short), you can find it here: https://t.co/JG2YaqPgzE pic.twitter.com/KAzi1ei4gJ
— Amarnath Amarasingam (@AmarAmarasingam) October 25, 2018
अनुच्छेद 10 (अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता) का हवाला देते हुए मिसेज एस ने न्याय व्यवस्था पर कई गंभीर आरोप लगाए और कहा कि ऐसे फैसले अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन हैं. मामले की हालिया सुनवाई में यूरोपियन कोर्ट ऑफ ह्यूमन राइट्स ने कहा कि, स्थानीय अदालतों ने मामले की बिल्कुल सही सुनवाई की है. यदि मिसेज एस को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार मिले हैं तो वैसे ही दूसरों को भी मिले हैं. ख्याल ये रखना चाहिए कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता टकराव पैदा न करे. साथ ही ईसीएचआर ने ये भी कहा है कि इस फैसले से ऑस्ट्रिया में शांति कायम रखने में मदद मिलेगी.
दुनिया में लोगों की आजादी की सबसे ऊंचा झंडा यूरोपीय ही बुलंद करते आए हैं. वे ही दुनिया में ह्यूमन राइट्स की वकालत करते हैं और वे ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की भी. जिस यूरोप में पैगंबर पर आपत्तिजनक कार्टून छापे, उसी यूरोप की एक सवोच्च ह्यूमन राइट्स अदालत ने इसे बेतुका और शांति के लिए खतरा बताया है. इस फैसले के बाद कुछ भी बोलने की आजादी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कहने वाले खुद पर हमला बता रहे हैं. उनका मानना है कि यदि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमा में बांधा गया तो इसका फायदा ही क्या?
इस फैसले का असर यूरोप से निकलकर दुनिया के दूसरे देशों पर भी होगा. भारत में भी अलग-अलग धर्मों के बारे में उसके समर्थक और विरोधी बहस में उलझे रहते हैं. धर्मगुरुओं को लेकर आपत्तिजनक टिप्पणी और फिर उस पर होने वाला बवाल भारत के लिए भी अनूठा नहीं है. ऐसे में क्या यूरोप की अदालत में हुआ फैसला ऐसी नजीर बनेगा, जिसका उसमें हवाला दिया गया है. 'अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर कोई ऐसी बात न कही जाए, जिससे किसी मान्यता के लोगों की भावना को ठेस पहुंचे'. क्या ये संभव है?
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