एक नोट फेल होकर सुसाइड नोट लिखने वालों के नाम...
यदि आप बार बार फेल हो रहे हैं तो मान लीजिए कि कोई बड़ी सफलता आपका इंतजार कर रही है - सी.एस. लुइस (फिलॉसफर, साहित्कार)
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डोन्ट ब्लेम एनी वन. मैं अच्छी बेटी नहीं बन पाई. पास होऊंगी तो ही जिन्दा रहूंगी. मेरी आखिरी इच्छा है की मेरे जाने के बाद मेरे शरीर के अंग दान कर दिए जाए. पापा आप गुस्सा कम करना. बहन तुम ठीक से पढना. भाई तू ठीक से पढाई में मन लगाना.
फ्यूचर की डॉक्टर रीमा सूद.
ये खत एक बेटी का है. अपने पिता के नाम, बहन के नाम..भाई के नाम और शायद हम सभी के नाम. दिल्ली की रहने वाली रीमा का सपना डॉक्टर बनने का था. लेकिन 11वीं में उसकी दो विषयों में कम्पार्टमेंट आ गई. फेल होने और उसके बाद की जिंदगी का डर उस पर इस कदर हावी हुआ कि उसे मौत को गले लगाना ज्यादा आसान लगा. जाते-जाते रीमा ने जरूर अपने सुसाइड नोट में सभी अंगो को दान करने की बात कही. लेकिन भला कोई मां-बाप अपने बच्चों को इसलिए जन्म देते हैं कि उन्हें अपने बच्चों के अंग दान करना पड़ें?
रीमा तो वापस आएगी नहीं, लेकिन रीमा और उस जैसे लोगों के नाम एक संदेश तो बनता है, जो सुसाइड नोट लिखते हैं या लिखना चाह रहे हैं-
रीमा...
तुम तो बस फेल हुई थी. फेल होने का मतलब जिंदगी को खत्म करना नहीं होता. फेल सब होते हैं. कोई स्कूल की परीक्षा में, कोई अपने ऑफिस में, कोई बिजनेस में. लेकिन इसका ये मतलब तो नहीं कि हम जिंदगी का साथ छोड़ दें. तुम्हारा कम्पार्टमेंट का रिजल्ट ही तो आया था. केमेस्ट्री के पेपर में तुम फेल हो गयी थी. तो क्या हुआ. पूरे आत्मविश्वास से घर जाकर कहती कि पापा मैं इस बार फेल हो गई. अगले साल फिर कोशिश करूंगी. अगले साल भी नहीं होता तो कोई और रास्ता देखती. कई विकल्प हैं.
क्या पता नियती तुम्हें उस रास्ते पर ले जाती जहां तुम डॉक्टर भले नहीं बन पाती लेकिन कुछ अलग कर जाती. तुम क्यों रिजल्ट लेकर चुपचाप घर आ गई फिर चुपके से घर के बाथरूम में जाकर खुदकुशी कर ली. पता चला कि तुमने अपनी नोटबुक में आंखों की एक तस्वीर बनाई थी उस पर रीमा लिखा था. पिता ने एक आई केअर को तुम्हारी आखें सौंप कर इस ख्वाइश को पूरा किया. लेकिन अब देखो...तुम्हारे इस तरह चले जाने के बाद मां का रो रो कर बुरा हाल है. बाकी भाई बहन गुमसुम से है और पिता हैं कि रह रह कर अपने आंसू रोक नही पा रहे.
फेल होना कतई पाप नहीं है. हम भूल जाते हैं कि जिंदगी की सबसे बड़ी असफलता तो तब है जब हम लगातार सफल होने लगें. ऐसा क्यों है कि असफल होने को हम सबकुछ खत्म हो जाने के नजरिए से देखने लगते हैं? जैसे जिंदगी में आगे कुछ बचा ही नहीं. एक से बढ़कर एक उदाहरण हैं, जो पढ़ाई में अच्छे नहीं रहे लेकिन आगे जाकर इतिहास रच दिया. फेल होने, परीक्षा में कम अंक आने के बाद जिनके भी दिलो-दिमाग में ऐसी बातें आ रही हों, उन्हें कम से कम इन लोगों की ओर जरूर देखना चाहिए जो कभी पढ़ाई में तो अच्छे नहीं रहे लेकिन आगे चलकर इतिहार रचा...
सचिन तेंडुलकर- इन्हें और इनकी कहानी को भला कौन नहीं जानता. पढ़ाई में फसड्डी रहे और दसवीं तक शिक्षा हासिल करने वाले सचिन को आज दुनिया क्रिकेट का भगवान कहती है. फर्ज कीजिए कि पढ़ाई में फेल होने के दर्द को उन्होंने दिल से लगा लिया होता तो हम सभी ने क्या-कुछ मिस किया होता. एक पूरी पीढ़ी है जो उनकी पारियों को याद करके अब भी रोमांचित हो जाती है. असफलता के बाद मिलने वाली सफलता की ही तो कहानी है.
थॉमस एडिसन- इस वैज्ञानिक के नाम 1000 से ऊपर पेटेंट हैं. लेकिन एक सच ये भी है कि स्कूल के दिनों में एडिसन बहुत मेधावी छात्र नहीं थे. पढ़ाई पर उनका फोकस कम था और शब्दों को समझने और बोलने में भी उन्हें दिक्कत आती थी.
मेरी कॉम- बॉक्सिंग में नाम कमा चुकीं और पांच बार की विश्व चैंपियन मेरी कॉम पर तो मुक्केबाजी का शौक ऐसा चढ़ा का शौक ऐसा चढ़ा कि उन्होंने स्कूल की पढ़ाई भी पूरी नहीं की.
अक्षय कुमार और रजनीकांत- ये दोनों वो नाम हैं जिनके पास न कोई बड़ी डिग्री नहीं है. लेकिन अपने दम पर इन दोनों ने एक मुकाम हासिल किया. अक्षय कुमार को जहां वेटर तक का काम करना पड़ा वहीं रजनीकांत ने कूली से लेकर कारपेंटर और बतौर बस कंडक्टर भी काम किया.
धीरूभाई अंबानी- एक स्कूल टीचर के बेटे धीरूभाई अंबानी के बारे में कहा जाता है कि पढ़ाई में उनका मन बिल्कुल भी नहीं लगता था. यह जरूर था कि वे मेहनती थे और उनमें नेतृत्व क्षमता थी. महज 16 साल की उम्र में वो यमन चले गए और कुछ दिन एक तेल कंपनी में बतौर क्लर्क काम किया. कुछ पैसों के साथ वह बाद में भारत लौटे और टेक्सटाइल ट्रेडिंग का व्यवसाय शुरू किया. आज उनके द्वारा शुरू हुई कंपनी भारत के सबसे बड़े बिजनेस घरानों में से एक है.
रीमा तुम होतीं तो शायद देश को भविष्य में कोई सुपर स्टार मिल जाता. तुमने सुसाइड नोट में अपने अंग दान करने की बात तो लिख दी. काश ये भी लिख जाती कि मेरे जैसा कदम कोई न उठाना.
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