लिबरल और प्रोग्रेसिव होने का मतलब बीफ खाना या बीफ का समर्थन तो बिल्कुल नहीं है
यदि व्यक्ति को सच में लिबरल या प्रोग्रेसिव दिखना है तो उसे सही मायनों में अपने विचारों में परिवर्तन करने की जरूरत है, न कि अपने भोजन की थाली में.
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सियासी गलियारों से लेकर लोगों के डाइनिंग रूम तक इन दिनों बीफ (गोमांस) पर बहस चल रही है. समाज में कुछ लोग बीफ खाने के पक्ष में हैं तो कहीं कोई इसके विरोध में है. जो बीफ खाने का विरोध कर रहे हैं उनका मानना है कि ये धर्म और कानून की दृष्टि से गलत है. ऐसे में यदि कोई बीफ खाता हुआ दिखे तो उसे सख्त से सख्त सजा मिले. जो लोग बीफ खाने की वकालत कर रहे हैं उनके अपने अलग तर्क हैं. ऐसे लोगों का मानना है कि बीफ के अपने स्वास्थ्य लाभ हैं और इससे शरीर को उर्जा के अलावा प्रोटीन और स्टेरॉयड जैसे महत्वपूर्ण तत्व हैं.
उपरोक्त बातों के इतर अगर देखें तो मिलता है कि भले ही बीफ के सेवन से व्यक्ति को प्रोटीन, उर्जा और स्टेरॉयड मिलें या न मिलें मगर इससे व्यक्ति को लोकप्रियता और मीडिया लाइम लाइट अवश्य मिल जाती है. जी हां बिल्कुल सही सुना आपने. आज पूरे देश में बीफ या बीफ पर दिया गया बयान ही वो एकमात्र ऐसी चीज है जो एक पल में व्यक्ति को मीडिया की सुर्खियों में ला सकती है. कहा जा सकता है कि वर्तमान परिपेक्ष में बीफ खाने की अपेक्षा बीफ पर दिया गया बयान व्यक्ति को ज्यादा चर्चित कर सकता है.
बहरहाल, हम बीफ से जुड़ी धार्मिक बातों को अलग रखते हुए बीफ सेवन के सामाजिक बिन्दुओं पर चर्चा करना ज्यादा पसंद करेंगे. आज जिस तरह लोग बीफ सेवन की वकालत कर रहे हैं उससे एक बात साफ है कि अब बीफ और उसका सेवन एक छदम स्टेटस सिम्बल का पर्याय बन चुका है. ताजा हालात में ये कहना हमारे लिए अतिश्योक्ति न होगी कि अब समाज का एक वर्ग ये मान चुका है कि आप लिबरल या प्रोग्रेसिव तब ही दिख पाएंगे जब आप बीफ का भक्षण करते हो या बीफ खाने वालों का समर्थन करते हों.
लिबरल बनने के लिए बीफ खाना जरूरी नहीं है
किसी चीज को खाना या न खाना एक बेहद व्यक्तिगत विषय है और ये पूर्णतः व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वो क्या खाए और क्या नहीं. समस्या तब गंभीर है जब आप 'दूसरों' से अलग दिखने के लिए कुछ ऐसा कहने, करने या समझाने का प्रयास करें जिसे एक सभ्य समाज स्वीकार नहीं करता.
बात आगे बढ़ाने से पहले हम कर्नाटक भाजपा के प्रवक्ता वामन आचार्य का उदाहरण देना चाहेंगे. वामन ने मांसाहार पर एक ऐसा बयान दिया है जिसने उन्हें विवादों के घेरे में लाकर खड़ा कर दिया है. आपको बताते चलें कि वामन आचार्य ने एक निजी कन्नड़ न्यूज़ चैनल पर डिबेट के दौरान अपना पक्ष रखते हुए कहा है कि ‘भारत के कृषि प्रधान देश बनने के पहले, ऐसे उदाहरण हैं जब ब्राह्मण सहित सभी समुदायों ने खाने के लिए गोवध किया. ’ज्ञात हो कि यह डिबेट पशु बाजारों में वध के लिए पशुओं की खरीद-बिक्री पर रोक लगाए जाने संबंधी केंद्र की अधिसूचना पर आधारित थी.
आप वामन के इस बयान पर गौर करिए, आपको मिलेगा कि ये यूं ही जल्दबाजी में दिया गया स्टेटमेंट नहीं है. ये स्टेटमेंट साफ साफ दर्शा रहा है कि वामन द्वारा स्टेटमेंट देने के पूर्व इसके लिए बाकायदा होमवर्क किया गया था. जब आप वामन के इस बयान पर विचार करेंगे तो मिलेगा कि इस स्टेटमेंट के बाद सोशल मीडिया से लेके सक्रिय मीडिया तक वामन चर्चा का केंद्र रहे और अब इन्हें न सिर्फ कर्नाटक बल्कि सम्पूर्ण भारत का व्यक्ति जान चुका है. साथ ही आप इनकी अचानक पनपी लोकप्रियता पर जब विचार कर रहे होंगे तो ये भी मिलेगा कि उनके द्वारा ये कृत्य सिर्फ इसलिए किया गया है ताकि ये उस समाज के सामने लिबरल और प्रोग्रेसिव साबित हो जाएं जो बीफ भक्षण का पक्षधर है.
पुनः हम आपको यही बताना चाहेंगे कि वामन से लेकर राजस्थान के जज एमसी शर्मा तक और इनके अलावा भी कई अन्य लोग अब ये बात भली भांति जान चुके हैं कि बीफ पर दिया गया स्टेटमेंट ही वो एकमात्र माध्यम है जो इन्हें बुद्धिजीवी, लिबरल, प्रोग्रेसिव जैसी संज्ञा दे सकता है और लगातार मीडिया में बनाए रख सकता है. अपनी बात समाप्त करते हुए हम यही कहना चाहेंगे कि यदि कुछ खाने पीने से व्यक्ति लिबरल या प्रोग्रेसिव हो जाता तो शायद आज भारत जैसे विशाल देश की विश्व मानचित्र पर इतनी किरकिरी न होती. अंत में इतना ही कि यदि व्यक्ति को सच में लिबरल या प्रोग्रेसिव दिखना है तो उसे सही मायनों में अपने विचारों में परिवर्तन करने की जरूरत है न कि अपने भोजन की थाली में.
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