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Updated: 21 अक्टूबर, 2019 01:05 PM
श्रुति दीक्षित
श्रुति दीक्षित
  @shruti.dixit.31
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देशभक्ति का पैमाना आपके लिए क्या है? क्या कोई तब देशभक्त कहलाता है जब वो आपके हिसाब से काम करता है और अधिकतर लोगों की राय से ताल्लुक रखता है या फिर वो तब देशभक्त कहलाता है जब वो वाकई देश के लिए कुछ करता है? ये तो सोचने वाली बात है कि आजकल सोशल मीडिया पर अधिकतर लोग इसी डिबेट का हिस्सा बने हुए हैं. पर ये सोशल मीडियाई सिपाही असली सिपाहियों की कुर्बानी भूल जाते हैं जो वाकई हमारे देश के लिए अपनी जान दे रहे हैं. हम देश में सिपाहियों की कुर्बानी का जश्न मनाते हैं क्योंकि उन्होंने भारत के लिए कुछ बेहतर किया और उनकी मौत का शोक मनाते हैं क्योंकि एक देशभक्त चला गया. देश के सिपाहियों के बारे में तो कई पोस्ट शेयर होती हैं लेकिन क्या कभी किसी ने उनके परिवार और उनकी कुर्बानियों के बारे में सोचा? क्या कोई उस मां के बारे में सोचता है जो अपने बेटे को सरहद पर भेजती है?

ऐसी ही एक मां की कहानी है ये. शहीद कैप्टन हनीफ उद्दीन की मां हेमा अज़ीज़. कैप्टन हनीफ के पिता का देहांत तब हो गया था जब वो 8 साल के थे. पिता के देहांत के बाद मां हेमा ने सारी जिम्मेदारी अपने सिर ले ली. एक बार जब स्कूल में कैप्टन हनीफ को फ्री यूनिफॉर्म मिल रही थी क्योंकि उनके पिता नहीं थे तो हेमा जी ने उन्हें वो यूनिफॉर्म लेने से मना कर दिया था और कहा था कि स्कूल में जाकर बोलो कि मां पर्याप्त कमाती है.

सैनिक, कारगिल, शहीद, सोशल मीडिया, देशभक्ति, मांइस मां ने अपने शहीद बेटे का शव ढूंढने से इंकार कर दिया ताकि किसी अन्य सैनिक की जान बचाई जा सके.

वो बेहद हिम्मत से जीती थीं और यही हिम्मत तब काम आई जब कैप्टन हनीफ शहीद हो गए. कैप्टन टुरटुक (Turtuk) में शहीद हुए थे. ये लेह के पास एक छोटा सा गांव है. महज 25 साल की उम्र में बेटे की शहादत के बारे में सोचते हुए ही किसी की रूह कांप जाए, लेकिन हेमा जी ने हिम्मत नहीं हारी. उन्होंने कहा कि वो एक ऑन ड्यूटी ऑफिसर था और उसने जो किया वो अपने देश की रक्षा के लिए किया. वो अपने बेटे से ये उम्मीद नहीं करती थीं कि वो अपनी जान बचाने के लिए पलट कर वापस आ जाए.

जब कैप्टन हनीफ की मौत हुई तो 40 दिन तक उनका शव नहीं खोजा जा सका. उस समय के आर्मी चीफ जनरल वी.पी.मलिक ने कहा कि वो शहीद जवान का शव नहीं खोज पा रहे हैं क्योंकि जब भी वो कोशिश करते हैं दुश्मन गोलियां बरसाना शुरू कर देता है.

तब मालुम है कि उस जांबाज मां ने क्या कहा? उन्होंने कहा कि उसका शरीर वहीं रहने दीजिए क्योंकि वो नहीं चाहतीं कि उनके बेटे के शव को लाने के कारण किसी अन्य सिपाही की जान जाए.

जिस फेसबुक पोस्ट के जरिए ये कहानी बताई गई है उसे यहां पढ़ें-

कारगिल की इस अनसुनी कहानी के बारे में क्या कहेंगे आप? ये एक मुसलमान सैनिक और उसकी मुस्लिम मां की कहानी है. अगर आपको लगता है कि मैं एक सैनिक के लिए हिंदू या मुसलमान क्यों कह रही हूं तो मैं आपको बता दूं कि आजकल देशभक्ति का पैमाना ऐसे ही तय किया जाता है. धर्म और जाति को लेकर इंसान को जज किया जाता है. उसकी सोच, उसके काम तो बहुत बाद में सामने आते हैं. नसीरुद्दीन शाह के कुछ कहने पर उन्हें गद्दार करार दे दिया गया और उससे जुड़ी सभी स्टोरीज में अगर कमेंट्स पढ़े तो सामने आएगा कि लोग मुसलमानों को गद्दार कहने लगे हैं. पर क्या ये सही है? इसका जवाब है नहीं.

किसी को भी गद्दार समझने के पहले ये सोच लें कि देश के सबसे बेहतर राष्ट्रपति का दर्जा पा चुके डॉक्टर कलाम भी मुसलमान थे. देश की सेना में हर धर्म का इंसान है और हमारे सैनिक बेहद सजगता से सीमा की रक्षा कर रहे हैं. क्या उन्हें देशभक्ति का तमगा नहीं मिलेगा? क्या उस मां को देशभक्त नहीं कहेंगे जिसने अपने बेटे का शव तक नहीं देखा ताकि किसी और सैनिक की जान बच सके.

अगर इसके बाद भी किसी को लगता है कि देशभक्ति का धर्म से कोई लेना-देना है तो उसे जागने की जरूरत है क्योंकि हिंदुस्तान की खासियत ही यही है कि ये दुनिया का सबसे ज्यादा विविधता वाला देश है. अपने देश की खासियत को बर्बाद करना सही नहीं.

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लेखक

श्रुति दीक्षित श्रुति दीक्षित @shruti.dixit.31

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं.

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