ये जांबाज, कल के खतरनाक बाहुबली तो नहीं बन रहे
कोई नहीं जानता कि क्या लड़कियों का हिंसात्मक होना वाजिब है या फिर सज़ा देने वाली भीड़ एक संवेदनशील मुद्दे का फायदा उठाकर किसी को धमका रही है.
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भारत में हर वर्ष सड़क उत्पीड़न के दस हज़ार से भी ज़्यादा पीड़ित होते हैं. और अनगिनत ऐसे लोग भी, जो उन्हें बचाने के लिए कष्ट भोगते हैं. उन्हें अखबार के किसी कोने में तभी जगह मिलती है, जबकि उनके साथ कुछ बहुत बुरा घट गया होता है. और फिर वे भुला दिए जाते हैं.
प्रियंका या वीना जैसी 16 साल की लड़कियां, इस क्रोध में जलकर, मजबूर होकर अपनी जान खुद ले रही हैं. कानपुर में प्रियंका को रोजाना ट्यूशन जाते वक्त परेशान किया जाता, जिसे वो सह नहीं पाई और जनवरी 2010 में उसने खुद को आग के हवाले कर दिया. मुंबई की लड़की वीना ने जून 2011 में ज़हर खाने का प्रयास किया, जब कुछ लड़कों ने जबरदस्ती उसके गले में मंगलसूत्र डाल दिया था.
वहीं ऐसे भी लोग हैं जिन्होंने इन लड़कियों को बचाने के लिए या तो अपना कोई अंग खोया या फिर अपनी जान से हाथ धो बैठे. अगस्त 2010 में केरल के अलपुझा में 24 वर्षीय ऑटो रिक्शा चालक का सीधा हाथ काट दिया गया, अक्टूबर 2011 में मुंबई में एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर को बुरी तरह पीटा गया, बेंगलुरु में मई 2012 में 50 वर्षीय व्यक्ति को धक्का दिया गया जिसकी वजह से हार्ट अटैक से उनकी मौत हो गई. कोलकाता में फरवरी 2013 में एक आदमी को गोली मारी गई.
बदलाव होते हुए किसी ने नहीं देखा. एक शांत क्रांति की शुरुआत सेफ्टी पिन और जेब में रखने वाले चाकू से हुई और बाद में लड़कियों ने अपने बैग और जेबें घर की नुकीली चाजों से भरना शुरू कर दिए. वो भले ही गंभीर हमलों का सामना करने के लिए काफी नहीं हो, पर एक-आध मनचले के खिलाफ इस्तेमाल किए जाने के लिए काफी मददगार होते हैं.
2011 की बात है, मुंबई के विल्सन कॉलेज के 5 विद्यार्थियों ने एक प्रतीकात्मक 5 फुट लंबे प्रोटोटाइप चप्पल, कट-आउट्स और जूतों से भरे डब्बों के साथ 'चप्पल मारुंगी' कैंपेन की शुरूआत की. ये सड़क पर छेड़खानी करने वालों के लिए खुली चुनौती थी. ये गरिमा और सुरक्षा के लिए महिलाओं के अधिकारों की मांग करने का भी समय था.
आज, नई सुर्खियां छाई हुई हैं. 'चप्पल मारूंगी' अब सिर्फ एक कथन नहीं रह गया है. स्मार्ट फोन, टीवी और सोशल मीडिया पर हमें हर दूसरे दिन किसी न किसी को पीटते हुए आक्रामक लड़कियों की तस्वीरें देखने को मिलती हैं. 2014 की रोहतक बहनें, पिलीभीत की स्कूली लड़की (जिसने पुलिस स्टेशन में एक लड़के को पीटा था) से लेकर दिल्ली की जसलीन कौर(जिसने उसे परेशान करने वाले का नाम बताया और उसे शर्मिंदा भी किया).
कुछ और भी चल रहा है. देश भर में आगरा से भीलवाड़ा तक, मेरठ से हैदराबाद तक सजा देने वाली भीड़ 'ईव टीजर्स' के नाम पर युवा लड़कों को पीट रही है, मुंडन कर रही है, गधों की सवारी करा रही है.
बदकिस्मती से, दर्शक छेड़छाड़ करने वालों को दी जाने वाली सज़ा के मजे लेते हैं, लगभग हर एक मामला विवादों में घिरा होता है. जांच न पर्याप्त होतीं है और न किसी नतीजे पर पहुंचती है. कोई नहीं जानता कि क्या लड़कियों का हिंसात्मक होना वाजिब है या फिर सज़ा देने वाली भीड़ एक संवेदनशील मुद्दे का फायदा उठाकर किसी को धमका रही है. कौन जाने? ऐसे देश में कुछ भी संभव है, जहां एक दलित दूल्हे को अपनी बारात में घोड़ी चढ़ने पर ऊंची जाति वाले लोगों के डर से हेलमेट पहनना पड़ता है.
अब ऐसा लगता है जैसे 'ईव टीजिंग' एक विश्वव्यापी बुराई बन गई है- जो कानून हाथ में लेने और कुछ भी करने का औचित्य साबित करता है. निर्भया, शक्ति मिल मामला, गुड़िया और कई सारे मामलों पर हमारा सामूहिक क्रोध अब निकलने का रास्ता खोज रहा है. क्यों न हो, आज के 'ईव टीजर्स' कल के बलात्कारी बन सकते हैं. और अंत में, 'ईव टीजर्स' को पकड़ना आसान है.
लेकिन समझदारी भरे उपाये भी सामने आ रहे हैं. उदाहरण के तौर पर, हैदराबाद पुलिस ने अक्टूबर 2014 में निर्भया एक्ट के तहत 'शी टीम' की शुरुआत की है. वो 'ईव टीजर्स' पर कार्रवाई की मांग करते हैं, गिरफ्तार करते हैं और उनके माता-पिता के साथ उनकी काउंसलिंग करते हैं, और उन्हें कसमें भी खिलाते हैं. उन्हें एक फॉर्म भरने दिया जाता है जिसमें ये पाया गया कि 80 प्रतिशत छेड़छाड़ करने वालों का मानना है कि वो निर्दोष हैं. जबकि 50 प्रतिशत का कहना है कि अगर उनकी मां या बहन के साथ कोई छेड़खानी करेगा तो उन्हें गुस्सा आएगा. सामान्य जवाब में पाया गया कि पीड़ित अपने खास तरह के पहनावे और स्वतंत्र रूप से चलने में 'गलत' थीं.
इस तरह के कई और प्रयोग भी हो सकते हैं. 'जान के बदले जान' एक फिसलने वाली ढलान की तरह है जो दुविधा में डालती है. इससे दुखद कुछ नहीं हो सकता कि आज के जांबाज़, कल के बुरे बाहुबली बनें.
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