भारत की पहली महिला शिक्षिका सावित्री बाई फुले का सफर आसान नहीं था
जब हम एक पुरुष को शिक्षित करते हैं तब हम एक पुरुष को शिक्षित करते हैं, पर जब हम एक महिला को शिक्षित करते है तब हम सिर्फ 1 को नहीं बल्कि 2 परिवार एवं आने वाली पीढ़ी देश के भविष्य को शिक्षित करते हैं.
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आज का दिन कुछ खास है. खास इसलिए क्योंकि आज भारत की सबसे पहली प्रथम महिला शिक्षिका यानी सावित्रीबाई फुले का जन्म दिवस है. सावित्रीबाई, ना केवल एक शिक्षक थीं बल्कि अपने पति ज्योतिराव गोविंदराव फुले के साथ समाज सुधारिका एवं मराठी कवियत्री भी थी.
सावित्रीबाई का सफर काफी आसान नहीं था. मात्र 9 वर्ष की उम्र में उनका विवाह ज्योतिराव के साथ हो गया थी. उनके पति ने उनकी शिक्षा की जिम्मेदारी ली. जिस वहज से उनमें समाज को बदलने की जिज्ञासा हुई. वे जिस समय अपने विचार रख रही थीं वह बहुत रूढ़िवादी समाज था. जब वे स्कूल जाती थीं तब लोग उनपर गंदगी, मल फेकते थे. वे स्कूल जाती थीं, तो लोग पत्थर मारते थे.
सोचिए आज से 160 साल पहले बालिकाओं के लिये जब स्कूल खोलना पाप का काम माना जाता था, तब कितनी मुश्किलों से देश में एक अकेला बालिका विद्यालय खोला गया होगा? सावित्रीबाई पूरे देश की महानायिका हैं. 1848 में फुले और उनके पति ने ब्रिटिश शासन के दौरान पुणे के भिडेवाडा में लड़कियों के लिए पहला भारतीय स्कूल शुरु किया. शुरुआत में स्कूल में सिर्फ नौ लड़कियां थीं. धीरे-धीरे संख्या बढ़कर 25 हो गई. उनके स्कूल में पढ़ाए जाने वाले पाठ्यक्रम में वेद और शास्त्र जैसे ब्राह्मणवादी ग्रंथों के बजाय गणित, विज्ञान और सामाजिक अध्ययन शामिल थे.
सावित्रीबाई पूरे देश की महानायिका हैं
इसके बाद दंपति ने बाद और भी स्कूल खोले. साल 1851 आते-आते यह संख्या बढ़कर 1 से 3 हो गई. 1852 में महिला सेवा मंडल की शुरुआत हुई. सावित्री बाई और उनके पति ज्योतिराव ने बलात्कार हुई गर्भवती पीड़िता के लिए एक देखभाल केंद्र खोला, जिसे बालहत्या प्रतिभाबंधक गृह कहा जाता हैं . वर्ष 1850 तक इस दंपति के 2 शैक्षिक ट्रस्ट थे.
सावित्री बाई को आधुनिक मराठी काव्य की अग्रदूत भी कहते हैं. उनकी कविताएं सामाजिक चेतना को जगाने की बात करती हैं.1897 में जब बुबोनिक प्लेग की तीसरी महामारी ने नालासपोरा, महाराष्ट्र के आसपास के क्षेत्र को गंभीर रूप से प्रभावित किया, तो सावित्रीबाई और यशवंतराव उनके दत्तक पुत्र ने बीमारी से पीड़ित रोगियों के इलाज के लिए पुणे के किनारे एक केंद्र खोला. वह मरीजों को सुविधा केंद्र तक ले गई, जहां उनके बच्चे ने उनका इलाज किया.
सब कुछ ठीक होने की स्वाभाविक प्रक्रिया में मरीजों की सेवा करते-करते उन्हें बीमारी हो गई और 10 मार्च 1897 को सावित्रीबाई फुले का निधन हो गया. मगर उनका निधन भारत में एक बदले की भावना जला गई ओर महिला शिक्षा के तरफ एक नई कहानी लिख गई, जो आने वाले पीढ़ी को प्रेरणा दे रही.
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