फॉलोअर्स ने खड़ी कर दी एक नई दुनिया!
जो अनुसरण कर रहा है वो अपनी बौद्धिक क्षमता का इस्तेमाल नहीं करेगा. चाहे नेतृत्व गलत कर रहा हो या सही, वो उसका समर्थन करेगा. अनुकरण करने वाला अपने नैतिक मूल्यों के हिसाब से सही चीजों का पालन करता है
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अंग्रेजी भाषा का एक शब्द है Followers जिसका मतलब होता है पीछे-पीछे चलने वाले. आम तौर पर इसे शारीरिक रूप से पीछे चलने वालों के लिए इस्तेमाल नहीं किया जाता, ज्यादातर इसका मतलब होता है विचारधारा या संदेशों का पालन करना. इसके बराबर के हिंदी शब्दों को देखने पर एक मामूली सा फर्क आपको दिख जायेगा. हिंदी में इसके लिए दो अलग-अलग शब्द आते हैं, एक है “अनुसरण” और दूसरा है “अनुकरण”.
इनका प्रयोग समझना हो तो स्कूल के जमाने में लिखे अपने हिंदी भाषा की चिट्ठियों और आवेदनों को याद कीजिये. जब आपको अपने माताजी को चिट्ठी लिखने कहा जाता था तो संबोधन होता था “प्रिय माँ” वहीँ जब आप अपने विद्यालय के प्रधानाध्यापक को कोई आवेदन भेजते थे तो वहां लिखा जाता था “आदरणीय गुरूजी” जैसा कुछ! अब जब आप “प्रिय” लिखते हैं तो स्पष्ट है कि जिसे आप लिख रहे हैं वो आपको पसंद है. वहीं जब आप “आदरणीय” लिखते हैं तो आप बता रहे हैं कि व्यक्ति आदर के योग्य तो है, लेकिन आपके मन में उनके प्रति कोई आदर है या नहीं है, इसके बारे में आपने कुछ भी नहीं कहा है!
लगभग वैसा ही “अनुसरण” और “अनुकरण” का अंतर है. मामूली सा फर्क ये है कि जो अनुसरण कर रहा है वो अपनी बौद्धिक क्षमता का इस्तेमाल नहीं करेगा. चाहे नेतृत्व गलत कर रहा हो या सही, वो उसका समर्थन करेगा, उसका अपने जीवन में भी यथासंभव पालन करेगा. इस से थोड़ा अलग अनुकरण करने वाला हर एक कृत्य को नहीं देखता, अगर देख भी ले तो उसका पालन करेगा ऐसा जरूरी नहीं है. वो अपने नैतिक मूल्यों के हिसाब से सही चीजों का पालन करता है, बाकी सबको त्याग देता है.
भारत के आज के राजनैतिक परिदृश्य में यही बात साफ-साफ दिखती है. भारत में गांधीवादी अहिंसा के समर्थकों कि कभी कमी नहीं रही. वहीं भारत के लगभग सभी विचारधारा के समर्थक भगत सिंह को भी आदर्श व्यक्तित्व मानते हैं. ऐसे में जब Followers शब्द से राजनैतिक झुकाव को परिभाषित करने की कोशिश की जाती है तो स्थिति कभी भी स्पष्ट नहीं होती. गांधी की अहिंसा और भगत सिंह का हिंसक विरोध दो बिलकुल विपरीत ध्रुवों जैसे हैं.
दरअसल भारतीय जनमानस सदियों से अपनी चेतना के हिसाब से ही अपनी विचारधारा को चुनता रहा है. यहाँ अंधभक्ति के लिए जगह बहुत कम होती है. हालांकि भारत कि साक्षरता का दर पचास फीसदी के करीब है लेकिन कभी भी इसका ये अर्थ नहीं लगाया जा सकता कि लोग विचारों के अंतर को समझेंगे नहीं. भारत की श्रुति और स्मृति जैसी परम्पराओं का भी इनमें योगदान रहा है. सदियों से यहाँ लोग लिखे हुए अक्षर पढने के बदले याद किये हुए, सुने-सुनाये उदाहरणों पर ज्यादा भरोसा करते हैं.
राह चलता एक आम आदमी गांधी के अहिंसा के मूल्यों का सम्मान तो करेगा, लेकिन भगत सिंह हिंसा करते थे इसलिए गलत थे ऐसा मानने को कभी तैयार नहीं होगा. उसने अपने लिए गांधी के विचारों में से अहिंसा के अच्छे मूल्य भी चुने हैं, लेकिन उसके मन में अंतिम सांस तक गुलामी का प्रतिरोध करने की भगत सिंह वाले आदर्शों के लिए भी सम्मान है. भगत सिंह के असेंबली में बम फेंक देने से प्रेरित होकर वो भले ही बम फेंकने ना जाये, लेकिन भगत सिंह की फांसी रुकवाने के लिए आन्दोलन ना करने का दोषी वो गाँधी को भी मानेगा.
इसी चीज को भारत के राजनैतिक फैसलों में भी देखा जा सकता है. अगर सत्ताधारी दल, कोई बिल, कोई प्रस्ताव सदन में रखता है तो जरुरी नहीं होता कि उसके पक्ष के सभी मतदाता भी उस बिल का समर्थन करते हों. वहीँ विपक्षी दलों के सभी लोग उसके विरोध में ही हों ये भी जरूरी नहीं. एक प्रस्ताव, एक मुद्दे, या एक बिल के आधार पर यहाँ समर्थन और विरोध तय नहीं होते. सदियों से चली आ रही परम्पराओं के कारण समर्थन या विरोध में से एक चुनने की इस व्यवस्था को ही भारत का राजनैतिक DNA माना जा सकता है. इसी वजह से धार्मिक, भावनात्मक मुद्दों पर भारतीय मतदाताओं का polarisation लगभग नामुमकिन होता है.
जब हम भारत में बढ़ती “असहिष्णुता” की बात करते हैं तो हमें सबसे पहले अनुकरण और अनुसरण को याद करना चाहिए. अनुसरण व्यक्ति-पूजक होगा. वो गलत-सही, पाप-पुन्य, गुण-दोष किसी का भेद नहीं करेगा. एक अंध-भक्त अपने धुर विरोधी अंध भक्त के बिना भी नहीं रहता. अगर “असहिष्णुता” बढ़ रही है तो फिर दोनों ही तरफ बढ़ रही होगी. क्या विरोध बिना कारण जताए शुरू हो गया है? क्या समर्थन के लिए मुद्दे नहीं सिर्फ मुखौटा देखा जा रहा है? अगर ऐसा है तो क्या भारत कई अलग अलग राजनैतिक दलों वाली व्यवस्था से सिर्फ पक्ष और विपक्ष वाले दो राजनैतिक दलों की व्यवस्था की तरफ अग्रसर है. “असहिष्णुता” बढ़ने का एक अर्थ ये भी होगा कि सभी राजनैतिक दलों को अपने लिए लकीर के इस पार या उस पार जमीन तलाशनी होगी.
ऐसे में सवाल ये है की असहिष्णुता बढ़ी है तो लकीर भी खिंच गई होगी. खिंच गई है क्या?
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