भारत से सऊदी तक, छठ पर्व से हैलोवीन तक, कुछ बदल रहा है क्या दुनिया में?
भारतीय त्योहारों को पिछड़ा और पाखंडी बताने वाले हैलोवीन को आधुनिक मानते हैं. बड़े चाव से उसे मनाते दिख रहे आजकल. त्योहारों को लेकर भी लोगों का अजीब विरोधाभास दिख रहा है. उनका वश चले तो त्योहारों का विभाजन भी कर दें. बावजूद दुनिया बदल रही है. और उस पॉइंट पर पहुंचने की कोशिश में है जहां से शुरू हुई थी.
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क्या सच है, क्या शिव, क्या सुंदर,
शव का अर्चन,शिव का वर्जन,
कहूं विसंगति या रूपांतर.
वैभव दूना,अंतर सूना,
कहूं प्रगति या प्रस्थलांतर.
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की मशहूर कविताओं में से एक यह भी है. कहते हैं कि रूस में लेनिन की समाधि से लौटने के बाद वाजपेयी ने तंज के रूप में 'अंतर्द्वंद्व' नाम की यह कविता लिखी थी. लेनिन महान कम्युनिस्ट नेता थे. उनके नेतृत्व में रूस में जनक्रांति हुई थी. लोगों ने जारशाही को तहस-नहस कर दिया था. कम्युनिस्ट विचारधारा में धर्म को अफीम कहा गया है. और दुनियाभर में वाम वैचारिकी आस्तिकता को राजनीतिक महत्व नहीं देती. भारत में भी. वाम वैचारिकी धार्मिक पाखंड, कर्मकांड, पुरोहितवाद आदि की तीखी आलोचना करती है. हालांकि भारत के संदर्भ में आधुनिक 'नास्तिक बहसों' के केंद्र में निशाने पर हमेशा एक विशेष धर्म और उसमें स्वीकार परंपराएं ही रही हैं.
करीब एक दशक पहले तक वाम वैचारिकी और नास्तिक समाजवादी राजनीति और बुद्धिजीवियों का दबाव धर्म विशेष पर इतना गहरा था कि हिंदुओं के लगभग सभी त्योहार घोर आलोचना के केंद्र में होते थे. त्योहारों को जाति विशेष से जोड़ा जाता था. विजयादशमी, दिवाली और होली ऐसे ही त्योहार थे. अलग-अलग वजहों से विरोध छठ जैसे त्योहारों का भी था. लेकिन इधर एक दशक में देश में बहुत कुछ बदलता दिख रहा है. हाल ही में छठ पूजा में भी वह बदलाव नजर आया. उसे देख सकते हैं. कभी मुंबई, दिल्ली और बेंगलुरु जैसे शहरों में एक विशेष भूगोल की वजह से छठ के खिलाफ राजनीति होती थी. पता ही होगा.
और वाम वैचारिकी पर सवार बुद्धिजीवी भी छठ की आलोचना करते थे. सीधे-सीधे छठ की आलोचना तो नहीं होती थी, मगर महिलाओं के व्रत रखने, त्योहार के लिए उनकी मेहनत आदि को वजह बनाते हुए खूब निंदा होती थी. हालांकि अब वही वैचारिकी छठ को 'लोकपर्व' के रूप में जनता का त्योहार घोषित करने पर आमादा है. ये दूसरी बात है कि छठ पर बुद्धिजीवी चाहे जो सोचते रहे हों, मगर आम जनमानस ने कभी इस पर ध्यान नहीं दिया. और लगभग सभी जातियों के लोग पूरी लगन से मनाते नजर आते थे. इस साल भी उन्होंने वैसे ही त्योहार को जिया जैसे जीते आ रहे थे.
छठ और हैलोवीन
असल में जिस बदलाव की चर्चा हो रही है- वह बुद्धिजीवियों के स्तर पर है. जो विरोध करते थे अब वे छठ समेत तमाम त्योहारों में राजनीतिक आधार पर ही 'एक स्टेक' पाने की कोशिश में दिखते हैं. और इसी कोशिश के तहत बताया जा रहा कि छठ किसी धर्म संस्कृति से जुड़ा ना होकर किसानों का त्योहार है, जनता का त्योहार है. यानी लोकपर्व है. कई इसे बुद्धिष्ट त्योहार भी बता रहे और तर्क भी प्रस्तुत कर रहे हैं. छठ को लेकर दिलचस्प तर्क दिए जा रहे हैं. जैसे-
1) त्योहार का रूप रंग, परंपरा और चढ़ावा पूरी तरह से प्रकृति, खेती-किसानी, ग्रामीण परंपरा से जुड़ी है इसलिए लोक पर्व है.
2) इसमें किसी भगवान की पूजा नहीं होती, सूर्य की पूजा होती है जो प्रकृति पूजा है.
3) छठ पूजा में पुरोहित (ब्राह्मण) की भूमिका नहीं होती, मंत्र श्लोक नहीं पढ़े जाते- इसलिए लोकपर्व है.
4) ठेकुआ का प्रसाद चढ़ाया जाता है, उसपर डेकोरेशन के लिए पीपल के पत्ते का चिन्ह अंकित किया जाता है- इस वजह से यह बुद्धिष्ट त्योहार है.
5) छोटे छोटे ढांचों के पास छठ पूजा होती है. यह ढांचे स्तूफ़ जैसे होते हैं जो सबूत है कि यह बुद्धिष्ट त्योहार है.
एक भूमि पर पनपे दो सम्प्रदायों की संस्कृति कभी अलग नहीं हो सकती, भारत में असंभव
ऐसे कई और भी दिलचस्प तर्क हैं. उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक भारत के लगभग सभी त्योहार खेती-किसानी या फिर लोकपरंपरा से ही जुड़े त्योहार हैं. जिनका आदि अंत किसी को मालूम नहीं. भारत के त्योहारों का भारतीय धर्मों के बीच विभाजन और उसकी कोशिश करना समझ से परे हैं. क्योंकि तमाम वैचारिक/राजनीतिक कोशिशों के बावजूद लोगों ने छठ या दूसरे त्योहार मनाना कभी नहीं छोड़ा. तो यहां भी विभाजन की लकीर खींचकर उसके राजनीतिक दोहन की कोशिश साफ़ नजर आ रही है. खैर, इसमें कोई बुराई नहीं. यह अटल सत्य है कि एक ही भूमि पर पनपने वाले दो अलग-अलग पंथ और सम्प्रदाय की संस्कृतियां पृथक नहीं हो सकतीं. संस्कृति का दायरा बहुत बड़ा होता है.
छठ सूर्य को समर्पित त्योहार है. बावजूद कुछ लोग छठ पूजन में अपने ईष्ट देवताओं की तस्वीर रख उनकी पूजा करते हैं. इसी तरह कुछ लोग बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर की तस्वीरों को भी रखकर पूजा करते दिखें. कुछ लोगों ने इसे आशास्त्रीय माना. इसमें कुछ भी गलत नहीं. क्या लोग तमाम अनुष्ठानों या पूजन में अपने गुरुओं अपने पुरखों को नहीं पूजते हैं? तो शास्त्रीयता का दबाव डालना ठीक नहीं. संस्कृति अगर अपनी स्वाभाविक गति से आगे बढ़ रही है तो उसे बढ़ने देना चाहिए. विजयदशमी को भी कुछ लोगों ने अशोक विजयादशमी के रूप में मनाया या ऐसे ही मनाने के लिए प्रेरित किया. दिवाली को भी कलिंग पर अशोक की जीत के रूप में मनाया. जबकि जो तर्क दिए गए वह विरोधाभासी हैं.
यह ऐतिहासिक तथ्य है कि अशोक को कलिंग में हुई हत्याओं का अफसोस था. और वह दुनिया से विरक्त हुए. बुद्ध की शरण में गए. हथियार रख दिया. क्या यह तर्क पचाया जा सकता है कि कलिंग के युद्ध से दुखी अशोक विजय का सामूहिक जश्न मनाने की स्थिति में थे? अगर थे तो मानवीय आधार पर कलिंग पर अशोक की करुणा को लेकर महाझूठ ही गढ़ा गया है. युद्ध में लाखों लोगों की मौत से दुखी अशोक भला कलिंग जीत पर नगर को रौशन करने का आदेश कैसे दे सकते थे? जश्न तो हर तरह के भय से मुक्त होने के बाद मनाया जाता है. और दुखों पर विजय पाने के बाद मनाया जाता है. जैसे अहमद शाह अब्दाली के वंशजों को बुरी तरह पराजित करने के बाद महाराजा रणजीत सिंह ने समूचे पंजाब में दो महीने तक रोशनी करने और दिवाली का जश्न मनाने का आदेश दिया था.
बावजूद अगर कोई अलग पहचान के साथ उसमें ज्यादा सहज तरीके से शामिल होना चाहता है तो भी इसमें भी किसी को दिक्कत नहीं होनी चाहिए. आखिर हमारे मंदिर मठ, हमारे पुरखे, हमारी जमीन और हमारी संस्कृति साझी है. जो खुली आंखों अब भी साफ़-साफ़ दिख जाती है. आंखें बंद कर लेना कोई प्रक्रिया या निष्कर्ष नहीं. कोई विजयादशमी और दिवाली, श्रीराम के बहाने मना सकता है और किसी को अगर अशोक का ही बहाना ज्यादा सहज लगता है तो भी हर्ज क्यों करना. छठ लोकपर्व तो है ही, लेकिन कोई इसे बुद्धिष्ट पहचान के साथ ही मनाना चाहता है तो मनाए. वैसे रोकने की कोई घटना अबतक सामने नहीं आई है. छठ तो भारतवंशी मुसलमान भी मनाता ही है.
छठ से पहले पता लगाइए कि हैलोवीन किस सभ्यता संस्कृति का लोक पर्व है?
बावजूद भारत के लोकपर्व छठ से अलग मजेदार चीज तो इस बार सऊदी अरब में दिखी. वहां पहली बार हैलोवीन का त्योहार मनाया गया. एक इस्लामिक देश में किसी दूसरी संस्कृति के त्योहार को मनाने का यह दुर्लभ उदाहरण है. और स्वाभाविक है कि इस्लामिक दुनिया में भूचाल मचा इसे लेकर. रियाद में हैलोवीन परेड हुई. अरबी परिधान पहने हुए लोग हैलोवीन में पारंपरिक तरीके से नजर आए. तमाम लोगों ने आलोचना करते हुए अफसोस जताया. कई लोगों ने रियाद में हैलोवीन परेड को गैरइस्लामिक माना. हैलोवीन अगर गैरइस्लामिक है तो किसी धर्म संस्कृति के साथ कभी ना कभी तो इसका कोई रिश्ता रहा ही होगा. तो सवाल है कि किस धर्म या संस्कृति से हैलोवीन का संबंध है?
जहां तक दुनिया के तीन प्रमुख धर्मों, अब्राहमिक धर्मों (यहूदी, क्रिश्चियन और इस्लाम) की बात है उनमें हैलोवीन का जिक्र नहीं है. हैलोवीन 31 अक्टूबर के दिन मनाया जाता है. असल में यह परंपरा अब्राहमिक धर्मों के उदय से बहुत पहले की है. हालांकि प्रचलित मान्यता है कि यह 2000-2500 साल पुराना है. यह ब्रिटेन, आयरलैंड, फ्रांस और ऑस्ट्रिया के कुछ हिस्सों में बहुत व्यापक रूप से मनाया जाता था. कुछ लोगों का मानना है कि यह फसलों का ही त्योहार है. जो नए साल (समहेन) के जश्न के रूप में मनाया जाता था. इसमें आत्माओं का पृथ्वी पर आने का कॉन्सेप्ट भी है. अब यह किस व्यवस्था का नया साल था, कुछ कह पाना मुश्किल है. आज की तारीख में इसे आत्माओं से ही जोड़कर देखा जाता है. हैलोवीन नाइट को लेकर व्यापक मान्यता है कि तमाम बुरी आत्माएं पृथ्वी पर आ जाती हैं और रातभर विचरण करती हैं. उन्हें तमाम तरीके से परेशान करती हैं. बुरी आत्माएं पहचान ना पाए इसलिए लोग भूत प्रेत पिशाच जैसे स्वांग रचते हैं. और इस तरह आत्माओं के दुष्प्रभाव से बचने के लिए उनमें घुलमिल जाते हैं. आत्माओं से बचने के लिए उन्हें मिठाइयाँ और तरह-तरह के पकवान भी खिलाए जाते हैं.
लोग सूखे कद्दू (यह यूरोप के कुछ क्षेत्रों में आज भी बहुत पवित्र माना जाता है, भारत में भी) पर मानव आकृति बनाते हैं. ठीक वैसे हे जैसे भारतीय गांवों में किसान पुतला बनाते हैं आवारा जानवरों से फसलों की सुरक्षा के लिए. मानव आकृति वाले सूखे कद्दू में दिए या मोमबत्ती जलाई जाती है. इसे घरों, रास्तों और पेड़ों पर टांगा जाता है. लोग हैलोवीन नाइट में बोन फायर जलाते हैं. आग जलाने की मान्यता यह है कि बुरी आत्माएं उसके आसपास नहीं आती है. भारतीय परंपरा में भी आग और आत्माओं को लेकर यही मान्यता है. हैलोवीन नाइट में लोग आग के पास इकट्ठा होते हैं. अच्छा खाते पीते हैं. ब्रिटेन, आयरलैंड, फ्रांस और ऑस्ट्रिया में ईसाई मिशनरीज के पहुंचने से पहले की परंपरा है यह.
1900 साल पहले ब्रिटेन और तमाम इलाकों में संत पैट्रिक और दूसरे ईसाई मिशनरीज के पहुंचने से पहले यह बहुत ही पॉपुलर पर्व था. और यह पर्व मूर्तिपूजकों का ही पर्व था. "बाइबल इन्फो" के मुताबिक़ इन क्षेत्रों में धर्मांतरण के साथ हैलोवीन की लोकप्रियता घटती गई. कुछ यहां तक कहते हैं कि हैलोवीन को क्रिश्चियन विरोधी पर्व के रूप में देखा गया और दबाव की वजह सार्वजनिक लोकप्रियता कम हुई. मगर लोग हैलोवीन की मान्यता से जुड़े रहे. उसे छोड़ा नहीं. बहुत बाद में मिशनरीज ने इनका इस्तेमाल धर्मांतरण के लिए ही किया और स्वीकृति प्रदान कर दी. इसका असर यह हुआ कि स्थानीय आबादी ने व्यापक रूप से धर्म परिवर्तन किया. माना जाता है कि ईसाइयत में मूर्तियों का प्रवेश हैलोवीन के संबंधित क्षेत्रों की वजह से ही हुआ. बावजूद कि बाइबल में हैलोवीन जैसी परंपराओं की सख्त मनाही है.
भारतीय कैलेंडर में भी आत्माओं से जुड़ा ऐसा ही एक पर्व आता है- पितृपक्ष. मान्यता है कि पुरखों की आत्माएं पितृपक्ष में धरती पर आती हैं. लोग पुरखों के तर्पण के लिए कर्मकांड करते हैं. उनके पसंद की चीजें उन्हें खिलाई जाती हैं. खाकर पारंपरिक व्यंजन बनाए जाते हैं. और आखिर में उन्हें विदा किया जाता है. विदाई के वक्त आकाश में रोशनी करने की भी परंपरा रही है. लोग आकाश में लैनटर्न छोड़ते हैं. हैलोवीन की तरह पितृपक्ष में बुरी आत्माओं का कॉन्सेप्ट नहीं है. लेकिन पितृपक्ष से दिवाली तक चीजों में कई साम्यताएं नजर आती हैं. टाइमिंग भी लगभग एक जैसी है. दो अलग कैलेंडर की वजह से यह कुछ हफ्ते आगे या कुछ हफ्ते पीछे नजर आता है. सवाल है कि ईसाइयत से पहले हैलोवीन किस सभ्यता से जुड़ा त्यौहार था?
फिलहाल हैलोवीन में लोग भूतिया चेहरा बनाते हैं और रात में पार्टी करते हैं. आग जलाते हैं, रोशनी करते हैं. अच्छा खाते-पीते हैं. कुछ लोग नाइट आउटिंग करते हैं. परेड भी निकाले जाते हैं. पश्चिमी देशों में यह बहुत लोकप्रिय है. निश्चित ही 1900 साल पहले यह धार्मिक परंपराएं रही हों. चूंकि बाइबल या दूसरे अब्राहमिक संस्कृतियों में संरक्षण नहीं है तो कौन इसका खैरख्वाह है- यह अंदाजा लगाना मुश्किल है. बावजूद अब भारत जैसे देशों में भी तेजी से पॉपुलर हो रहा है. हैलोवीन भले यूरोपीय लोक परंपरा का त्योहार रहा हो, मगर दुनियाभर में यह अमेरिका की वजह से पहुंचा है. अमेरिका में हैलोवीन का मतलब क्या है- सिर्फ इस बात से समझिए कि वहां अमेरिकी इस त्योहार पर सालाना 9 अरब बिलियन डॉलर फूक देते हैं.
भारत जैसे देशों में हैलोवीन मल्टीनेशनल कंपनियों के जरिए पहुंचा. कंपनियों में हैलोवीन थीम पर पार्टियां होती हैं. देसी कंपनियों में भी अब आम है. होटलों में भी हैलोवीन थीम पर पार्टियां की जाती हैं. अब तो लोग स्वेच्छा से अपने घरों में रिश्तेदारों या दोस्तों संग हैलोवीन थीम पर पार्टियां करते हैं. मजेदार यह है कि धार्मिक मुद्दों पर भारतीय त्योहारों की आलोचना करने वाले तमाम धुर नास्तिक और लिबरल परिवार भी अब अपनी पत्नी बच्चों के साथ हैलोवीन के रंग में रंगे नजर आते हैं. अमीर लोग तो हैलोवीन को बहुत एडवांस फेस्टिवल के रूप में लेते हैं. हैलोवीन भी लोक पर्व है. इसे भी मनाने में कोई बुराई नहीं. यूरोप की धरती पर हजारों साल से एक पर्व जिंदा है तो यह भी कम बड़ी बात नहीं. और हैलोवीन का सऊदी पहुंचना किसी क्रांति से कम नहीं.
क्या सच है, क्या शिव, क्या सुंदर,
शव का अर्चन,शिव का वर्जन,
कहूं विसंगति या रूपांतर.
वैभव दूना,अंतर सूना,
कहूं प्रगति या प्रस्थलांतर.
मात्र संक्रमण या नव सर्जन
स्वस्ति कहूं या रहूँ निरुत्तर.
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