दुनिया की औरतों को मर्दों की बराबरी के लिए करना होगा 170 साल का इंतजार !
यह क्रूर सच्चाई है. यूनिसेफ के मुताबिक भारत में अजन्मे बच्चे का लिंग परीक्षण करने का व्यापार 1000 करोड़ रुपए के आंकड़े को छू गया है. और यह बढ़ता ही जा रहा है.
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जेंडर इक्वॉलिटी यानी लैंगिक समानता. ये ऐसा शब्द है जिसकी मांग हमारे देश ही नहीं दुनिया में भी उठती रहती है. हर साल 8 मार्च को महिला दिवस भी मनाया जाता है. मगर बराबरी कितनी मिलती है इस सच से तो हम सभी वाकिफ हैं. और अगर अब भी आपको कोई उम्मीद है तो माफ कीजिएगा हम इसपर पानी फेरने वाले हैं. वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम ने अपनी एक स्टडी में बताया है कि विश्व में जेंडर इक्वॉलिटी यानि लैंगिक समानता आने में 170 सालों का समय लगेगा!
वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम ने ये रिजल्ट 4 इंडेक्स पर महिलाओं के विकास का आकलन करके पाया है. ये चार इंडेक्स हैं- शिक्षा, स्वास्थ्य, महिलाओं का राजनीति और अर्थव्यवस्था में योगदान. शिक्षा और स्वास्थ्य में तो महिलाओं की स्थिति में फिर भी सुधार हुआ है पर राजनीति और अर्थव्यवस्था में महिलाएं अभी भी हाशिए पर ही हैं. 2012 की वर्ल्ड बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार विश्व का 66% काम महिलाएं करती हैं, 50% खानों के उत्पादन में उनका योगदान होता है और उनकी कमाई सिर्फ 10% होती है! इससे ज्यादा भयानक सच तो ये है कि सिर्फ 1% प्रॉपर्टी महिलाओं के नाम पर है.
समानता आखिर कब तक?भारत के संदर्भ में अगर लैंगिक समानता की बात करें तो कुछ कड़वे सच जानने के लिए तैयार हो जाइए. 2013-16 के बीच दहेज के कारण 24,000 मौतें हमारे यहां दर्ज हुईँ थीं. 15 से 49 साल की उम्र की औरतों में मारपीट और रेप का आकंडा 70% है. यूनिसेफ के मुताबिक भारत में अजन्में बच्चे का लिंग परीक्षण करने का व्यापार 1000 करोड़ रुपए के आंकड़े को छू गया है. अगर इतने से भी सच्चाई समझ नहीं आई तो 2011 की जनगणना के अनुसार पिछले दशक में 8 मीलियन महिला भ्रूण हत्याएं हुई हैं. ये हमारे देश में महिलाओं की हालत है.
हर कदम पर असुरक्षा और भेदभाव झेलने वाली महिलाओँ के लिए रास्ते आज भी कुछ आसान नहीं हुए हैं. हमारे देश में आज भी महिलाओं के पास अपना जीवनसाथी चुनने जैसा मौलिक अधिकार नहीं है. हालांकि बाल-विवाह को अपराध घोषित कर दिया गया है लेकिन फिर भी अगर हम आकंड़ों पर जाएं तो 20 से 24 की उम्र की शादी-शुदा लड़कियों में से करीब 50% की शादी 18 साल के पहले ही कर दी गई थी.
कुछ दिनों पहले भारत के 100 फीसदी साक्षरता वाले राज्य केरल से एक खबर आई थी. यहां राज्य सरकार ने महिलाओं को रोजगार देने और गरीबी हटाने के लिए कुदुम्श्री योजना शुरू की थी. इसके तहत् 90 महिलाओं को प्राइवेट बसों में कंडक्टर की नौकरी दिलाई गई थी. लेकिन 6 महीने के अंदर ही 89 महिलाओं ने नौकरी छोड़ दी. कारण था पुरुष सहकर्मियों को उसी काम के लिए 900 रुपए मिलते थे और महिलाओं को 300. एक आंकड़े के मुताबिक भारत में महिलाओं को पुरुषों के मुकाबले 27% कम वेतन मिलता है.
कहीं सपना ही तो नहीं रह जाएगा?
नए साल के जश्न के समय बेंगलुरु में जो हुआ ये सबके सामने था. NCRB की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2014 में रेप पीड़िता लड़कियों में 39.8 फीसदी 18 साल से कम उम्र की थी. हालांकि 2011 की जनगणना में हमारे यहां महिलाओं की संख्या में बढ़ोतरी हुई है पर यूएन के जेंडर इनइक्वॉलिटी इंडेक्स में वैश्विक स्तर पर 146 देशों में हम 127वें पायदान पर हैं.
कार्य क्षेत्रों की अगर बात करें तो कंपनियों के प्रबंधक की पोस्ट पर महिलाओं की संख्या सिर्फ 1 से 3 प्रतिशत है. वहीं देश में खुशहाली लाने की बात करने वाले राजनीतिक दलों में ऊंचे पदों पर सिर्फ 9 फीसदी ही महिलाओं की भागीदारी है. न्यायिक व्यवस्था में भी ऐसा ही हाल है. सुप्रीम कोर्ट में 3% महिला जज हैं. सिविल सेवाओं में 7% महिलाएं हैं और ट्रेड यूनियनों में सिर्फ 6% महिलाएं हैं.
वैश्विक स्तर पर जारी होने वाले फोर्ब्स की लिस्ट को ही देख लें तो विश्व की 100 शक्तिशाली महिलाओं की सूची में सिर्फ 4 भारतीए महिलाएं ही अपनी जगह बना पाईं. SBI की चेयरमैन अरुंधती भट्टाचार्या 25वें स्थान पर, ICICI की एमडी और सीईओ चंदा कोचर 40वें, बायोकॉन की चेयरमैन और एमडी किरन मजूमदार शॉ 77वें और एचटी मीडिया लिमिटेड की चेयरपर्सन शोभना भरतिया 93वें स्थान पर हैं.
इन आंकड़ों से अंदाजा लगा लीजिए कि अगर वैश्विक स्तर पर लैंगिक समानता आने के लिए 170 साल का समय माना गया है तो हमारे देश में शायद ये 4 पीढ़ियों का समय लग जाए क्योंकि महिलाओं के लिए आरक्षण तो अभी तक हम दे नहीं पाए बाकी का क्या कहना.
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