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Updated: 22 सितम्बर, 2022 01:33 PM
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बरसों पहले प्रसिद्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई ने चुनावी प्रक्रिया, संविधान और न्यायपालिका की कार्यशैली पर प्रश्न उठाते हुए एक सटीक व्यंग्य रचना रची थी - धर्मक्षेत्रे -कुरुक्षेत्रे. क्या सटीक अंदाजा लगाया था उन्होंने आज की स्थिति का. अब इसे सुखद संयोग कहें या दुखद, जब भारत सरीखे कथित 'सेक्युलर' देश की शीर्ष अदालत में 'हिजाब' को प्रतिस्थापित किये जाने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगाया जा रहा है. कट्टर ईरान की महिलायें बाल काटकर - हिजाब जलाकर प्रदर्शन कर रही हैं. जब ईरानी पत्रकार और वीमेन एक्टिविस्ट मसीह अली नेजाद कहती हैं कि 7 साल की उम्र से अगर हम अपने बालों को नहीं ढकते हैं तो हमें स्कूल नहीं जाने दिया जायेगा या हम नौकरी नहीं कर पाएंगे, हम इस लैंगिक रंगभेद व्यवस्था से तंग आ चुके हैं, तो हिजाब को 'आतंकी' हिजाब क्यों ना कहें ? आज भारत में मान्यताओं की, तथ्यों की, चीजों की, जिस प्रकार व्याख्या की जा रही हैं, उसपर बाते करने के पहले परसाई की रचना के कुछ अंश अक्षरशः क्वोट करना लाजमी है.

Hijab Controversy, Hijab, Iran, Burqa, Death, Woman, India, Karnatakaहिजाब मामले में जो रुख भारत में लोगों का है वो अपने आप में तमाम तरह के सवाल खड़े करता है

थोड़ा लंबा खिंच जाएगा लेकिन फिर शायद समझना आसान होगा. मैं पूछता हूं–इसे किसने लिखा? क्यों लिखा? किन परिस्थितियों में लिखा? लिखने वालों के विचार-मान्यताएं क्या थी ? उनकी क्या कल्पना थी? किन जरूरतों से वे प्रेरित थे? देशवासियों के भविष्य के बारे में उनकी क्या योजना थी?–क्या वे सवाल इस पोथी के बारे में पूछना जायज नहीं है. वह कहता है–कतई नहीं. जो पहले लिखा गया है उसके बारे में कोई सवाल नहीं उठाना चाहिए.

वह तर्क से परे है. पहले लिखे की पूजा और रक्षा होनी चाहिए. वह पवित्र है. भोजपत्र पर जो लिखा है वह आर्ट पेपर पर छपे से ज्यादा पवित्र होता है. दूसरा ज्ञानी कहता है - देखो जी संविधान एक औजार है, जिससे कुछ बनाना है, संविधान को आदमी बनाता है, आदमी को संविधान नहीं बनाता. इस औजार से मनुष्य का भाग्य बनाना है. मैं पूछता हूं - पर बनाने में औजार घिस जाए या टूट जाए तो ?

जवाब देता है - तो मरम्मत कर लेंगे या दूसरा औजार ले आएंगे. मैं देखता हूं, एक ज्ञानी इस औजार को रोज निकालता है, उस पर पॉलिश करता है और डब्बे में रखकर उसे ताले में बंद कर देता है. वह औजार से बनाता कुछ नहीं. पूछता हूं  - इस औजार से कुछ बनाओगे नहीं ? वह कहता है - नहीं, बनाने से औजार बिगड़ जाएगा. हमारा कर्तव्य है, औजार की रक्षा करना. यह जो मजबूत तिजोरी है , वह न्यायपालिका है.

इसमें हमने पॉलिश करके संविधान को रख दिया है. अब वह सुरक्षित है. मैं पूछता हूं - और तुम या हम जैसे लोगों का क्या होगा ? हमारा कहीं अस्तित्व है ? क्या हम सिर्फ पहरेदार हैं ? "उस साथी के जवाब से ऐसा लगता है, जैसे न्यायपालिका को संविधान का गर्भ रह गया था, जिससे हम करोड़ों आदमी पैदा हो गए. हम संविधान और न्यायपालिका के व्यभिचार की अवैध संतानें हैं. तभी तो हमें कोई नहीं पूछता!' न्याय देवता का मैं आदर करता हूं. पर एक न्याय देवता सेशन कोर्ट में बैठता है, दूसरा हाई कोर्ट में और तीसरा सुप्रीम कोर्ट में.

सेशन वाला न्याय देवता मुझे मौत की सजा दे देता है. मैं जानता हूं , मैं बेकसूर हूं. उधर हाई कोर्ट में बैठा न्याय देवता बड़ी बेताबी से मेरा इन्तजार कर रहा है कि यह मेरे सामने आये तो मैं इस निर्दोष को बरी कर दूं. पर मैं सामने नहीं जा सकता क्योंकि मेरे पास धन नहीं है, रुपये नहीं है. न्याय देवता मेरी तरफ करुणा से देखता है और मैं उसकी तरफ याचना से - पर हम आमने सामने नहीं हो सकते. अगर मेरी कूवत होती रुपये पैसे खर्च करने की तो फांसी से बच सकता था.

'कौन सा न्याय देवता सच्चा है - सेशन वाला, जो फांसी देता है या हाई कोर्ट वाला जो बरी करता है ? छोटे आदमी के लिए छोटे देवता और बड़े आदमी की बड़े देवता तक पहुंचा. छोटे आदमी का भाग्य निर्माता गांव के बाहर के बेर वृक्ष के नीचे रखा लाल पत्थर और बड़े आदमी के लिए रामेश्वर का देवता. दिन-भार इन चीजों में दिमाग उलझा रहा. संविधान , न्यायपालिका, संसद , मूलभूत अधिकार ! शब्द ! संविधान का शब्द ! उस शब्द का अर्थ, अर्थ-भेद ! लिखा शब्द ब्रह्मा !

'सुप्रीम कोर्ट कर्नाटक के शिक्षण संस्थानों में हिजाब पर प्रतिबंध हटाने से मना करने के हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती देने वाली याचिकाओं को सुन रहा है. अब तक हिजाब फ़ौज के धुरंधर सिपहसालारों हेगड़े, राजीव धवन, देवदत्त कामत , निजाम पाशा, युसूफ मुच्छला, खुर्शीद, धवन , हुज़ेफा अहमदी, कॉलिन गोंजाल्विस, कपिल सिब्बल , जयाना कोठारी, ए ऐम डार, मीनाक्षी अरोड़ा , शोइब आलम और स्वयंभू वरिष्ठतम दुष्यंत दवे ने तर्क रखें हैं जिनका निष्कर्ष निकालें तो सभी आवश्यक धार्मिक प्रथा/अभ्यास/प्रतीक का कवच पहनकर च्वाइस (choice) का ढिंढोरा पीट रहे हैं !

यकीनन सारे ही स्थापित कानूनविद हैं और जब सारे ही हिजाब के पक्ष में खड़े हैं और तदनुसार ही तर्क वितर्क कर रहे हैं, सवाल वाजिब उठता है क्या उच्च न्यायालय के 'न्याय देवता' झूठे करार दे दिए जाएंगे ? जस्टिस द्वय हेमंत गुप्ता और जस्टिस सुधांशु धुलिया अनेकों बार 'हिजाब वकीलों' के तर्कों से असहमत होते नजर आए.अमूमन जज कमेंट तो करते हैं, सवाल भी करते हैं पक्ष प्रतिपक्ष के वकीलों से लेकिन इस मामले में तो बेंच ने सवालों की झड़ी सी लगा रखी है !

बहस हर स्तर पर लोगों को आकर्षित करती हैं, तभी तो हुजूम लगते देर नहीं लगती किसी चौपाल में, किसी खाप में, किसी पंचायत में या किसी गली मोहल्ले के मुहाने पर. मनुष्य की ऐसी फितरत ही ने तो टीवी चैनलों के प्राइम टाइम कांसेप्ट को सक्सेसफुल बनाया है. वाद विवाद, बहस, सवाल जवाब में लोगों की रुचि उम्र की भी मोहताज नहीं है. दो बच्चे झगड़ते हैं तो 5-10  जुट ही जाते हैं सुनने के लिए ! और मानव स्वभाव की इसी प्रकृति को ध्यान में रखकर दुनिया के हर देश के फिल्मकारों ने कोर्ट रूम ड्रामा से सजी फ़िल्में क्रिएट की, अच्छी भी बुरी भी !

और हिजाब मामले में जिस प्रकार बहस हो रही है या की जा रही है, लगता है कोई सुपर हिट कोर्ट रूम ड्रामा वेब सीरीज चल रहा हो ! तल्खियां हैं, ह्यूमर है, एक पल तर्क कन्विंसिंग लगते हैं तो दूसरे पल ही खारिज भी होते हैं. पूरे मामले में एक बात तो तय हो चली है कि याचिकाकर्ताओं के दिग्गज वकीलों की फ़ौज एसेंशियल रिलीजियस फेथ की लीक पर हिजाब पहनने को लेकर असमंजस में हैं और यही स्थिति माननीय न्यायालय की भी है.

तभी तो विद्वान् अधिवक्ता गण अपने तर्कों को इस लीक से स्वतंत्र नहीं रख पा रही है. एक समय जब माननीय जस्टिस गुप्ता ने कामत से पूछा कि क्या वे सभी इश्यूज को एड्रेस करेंगे, उन्होंने कहा कि वे एसेंशियल रिलीजियस प्रैक्टिस और कुरान की बंदिशों पर बहस नहीं करेंगे लेकिन अन्य संबंधित वकील उन पर बात रखेंगे. फिर वे बात करते हैं जेन्युइन रिलीजियस बिलीफ की जिसके तहत हिजाब आता है ठीक वैसे ही जैसे कड़ा, नमम पगड़ी आती है लेकिन भगवा शॉल नहीं आता.

यही विरोधाभास है क्योंकि कड़ा धारण करना या पगड़ी पहनना सिखों के उन पांच 'K' में से ही एक है जो एसेंशियल रिलीजियस प्रैक्टिस के अंतर्गत आते हैं, अन्य है केश , कृपाण, कंघा, और कछैरा. यही सार्वभौमिक भी है. हिजाब मजहब का अटूट हिस्सा है या नहीं, अनेकों मत हैं, सार्वभौमिक भी नहीं है, यहां तक कि कई मुस्लिम देशों में भी जरुरी नहीं है. दरअसल अब मामला पेचीदा हो गया है. होना ही था वर्ना शीर्ष अदालत पहुंचता ही नहीं. खूब दांव पेंच चले जाएंगे, आखिर वकालत की यूएसपी जो होती है अपनी बात को सही साबित करने के लिए तमाम संभावित तर्क़ों को इस प्रकार प्रस्तुत करना कि सही ना भी हो तो सही लगे.

परंतु माननीय न्यायाधीशों का मकसद नेक होता है तभी तो वे इतने सवाल जवाब कर रहे हैं, आखिर निर्णय जो लेना है. केस फॉर हिजाब के दौरान एक मौके पर विद्वान वकील देवदत्त कामत ने संविधान के अनुच्छेद 19(1) का हवाला देते हुए तर्क रखा कि हिजाब का पहनना 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' का ही हिस्सा है और ये अधिकार 'क्या पहनना है' की स्वतंत्रता को सुनिश्चित करता है. जस्टिस गुप्ता ने किंचित भी देरी नहीं की और पूछ बैठे कि अगर कोई सलवार कमीज पहनना चाहता है या लड़के धोती पहनना चाहते हैं, तो क्या इसकी भी अनुमति दे दी जाए?

साथ ही माननीय जज ने जोड़ा कि अभी आप Right to Dress की बात कर रहे हैं, तो बाद में आप Right to Undress की बात भी करेंगे, यही जटिलता है. अदालत मान रही है कि उसे निर्णय सिर्फ इस बात पर लेना है क्या लड़कियों को युक्तिसांगत छूट दी जा सकती हैम परंतु इसके लिए असंगत तर्कों को तो आधार नहीं बनाया जा सकता. तभी तो दोनों विद्वान न्यायामूर्ति अधिकतर तर्कों पर काउंटर सवाल कर रहे हैं या किसी तर्क को सिरे से ही खारिज कर दे रहे हैं.

परंतु विडंबना ही है विद्वान वकील गण युक्तिसंगत छूट की बात पर इसे बड़ा कानूनी मसला बताते हुए मामले को पांच या उनसे अधिक जजों वाली संवैधानिक बेंच को ट्रांसफर किये जाने का मत रखते हैं. सीनियर एडवोकेट देवदत्त कामत संविधान के अनुच्छेद 19 , 21 और 25 के तहत मौलिक अधिकारों के तहत छात्राओं के हिजाब पहनने को मान्य प्रतीकों के धारण करने के समकक्ष लाने का भरसक प्रयास कर रहे थे, कुछेक विदेशी न्यायालयों के निर्णयों का भी हवाला दे रहे थे लेकिन उन विदेशी देशों मय मुस्लिम देशों का जिक्र नहीं कर रहे थे जो उनके हिजाब अजेंडे के विपरीत हैं.

किसी विद्वान वकील ने तर्क रखा कि सरकार का आदेश 'अहानिकर' नहीं है जैसा दावा किया गया है चूंकि संविधान के अनुच्छेद 19, 21 और 25 के तहत छात्राओं के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है. यदि एक एक तर्क का पोस्टमार्टम करें तो ग्रंथ रच जाएगा ! बात जो समझ से परे है शीर्ष अदालत सुन ही क्यों रहा है ? एक धार्मिक ग्रन्थ कई बातें कहता है, करने को कहता है ; क्या कहने मात्र से वे सब आवश्यक धार्मिक परम्परा हो जाती हैं ?

आवश्यक धार्मिक परम्परा तो वही हो सकती हैं जिसके ना निभाए जाने से धर्म का अस्तित्व ही खत्म हो जाए ! क्या सब की सब मुस्लिम लड़कियां , महिलाएं हिजाब पहनती है ? और क्या जो पहनती है, वे हर पल पहने रहती हैं ? कई देश हैं मसलन फ्रांस , तुर्की जहां  हिजाब बैन है ! पंजाब चले जाइए यूपी , पटना , राजस्थान भी जहां  असंख्य मुस्लिम लडकियां और औरतें हैं जो हिजाब नहीं पहनती. स्वयं जस्टिस गुप्ता ने प्रसंगवश एक पाकिस्तानी जज के परिवार का जिक्र किया जिनसे वे उनके इंडिया आने पर मिले थे ; उनकी दोनों लडकियां इंडिया में हिजाब नहीं पहन रही थी !

अब दुष्यंत दवे के लिए क्या कहें ? पता नहीं क्यों वे हर मामले को राजनीतिक रंग देते हुए साम्प्रदायिकता का इनपुट ले ही आते हैं ? उनकी पितृसत्तात्मक मानसिकता ही है कि वही महिलायें गरिमामयी हैं जो यदि मुस्लिम है तो हिजाब पहनती है और जो हिन्दू हैं वे साड़ी के पल्लू से सर ढंकती हैं ! वे बात करते हैं स्कूल के क्लास रूम की जहां  मुस्लिम लड़कियां हिजाब पहनकर हैं, और हिंदू लड़कियां उनसे हिजाब के बारे में पूछती हैं और ऐसा होने को वे एक दूसरे के धर्म को जानने समझने की आदर्श क्रिया बताते हैं !

कहने का मतलब उनके हिसाब से स्कूलों में पहनावे के बहाने से धार्मिक चर्चा हों तो अच्छी बात है ! क्या तर्क है उनका ? क्या उन्हें पता है उन लड़कियों की चॉइस का जिन पर पेरेंट्स ने धार्मिक प्रतिस्पर्धा के तहत हिजाब थोप दिया है ? पता नहीं क्यों उन्होंने माइनॉरिटी वाला विक्टिम कार्ड भी खेल दिया ? कल्पना कीजिये उस स्थिति की जिसमें फ्री हो जाए कि सभी धर्मावलंबी लड़के लड़कियां अपने अपने धर्मों के अनुसार पहनावे धारण कर स्कूल आएं, लाइटर नोट पर कहें तो किसी फैंसी ड्रेस प्रतियोगिता सा माहौल हो जाएगा.

अखंडता का स्लोगन अनेकता में एकता खंडित होकर एकता में अनेकता मुखर होगा , धार्मिक भेदभाव उभर आएगा और सबसे ऊपर नौनिहालों के मार्फ़त स्वार्थी तत्व अपना एजेंडा स्कूलों में भी चलवा देंगे ! और सबसे बड़ी बात, बहुसंख्यक ही बहुसंख्यक प्रमुखता से नजर आएंगे ! क्या वह सेक्युलरिज़्म होगा ? यूनिफार्म के प्री यूनिवर्सिटी तक लागू किये जाने का किसी भी बिना पर विवाद ही क्यों ? तब तक छात्राएं अठारह की आयु तक की ही होती हैं !

चॉइस वाली परिपक्वता उनमें अमूमन नहीं होती और फिर उन्हें सशंकित क्यों किया जाए गरिमा का पाठ पढ़ाकर ? कम से कम स्कूली स्तर तक तो समानता रखी जाए, उसके बाद अपनी समझ से चॉइस अपनी अपनी ! याद आता है सत्तर का दशक जब हम स्कूल गोइंग थे बिहार में ! हमारे सरकारी स्कूल में सरस्वती पूजा हुआ करती थी, क्या हिंदू क्या मुस्लिम सभी बच्चे चंदा देते थे और पूजा में सम्मिलित भी होते थे ; क्या सौहार्द था !

अभी भी याद है मेहरुन्निसा जो स्कूल के गेट तक बुर्क़े में आती थी और प्रवेश करने के पहले बुर्का खोल समेट कर रख लेती थी. एक बार उससे पूछा कि वह ऐसा क्यों करती है ? जवाब था, मुझे सार्वजनिक जगह में बुर्का पहनने के लिए कहा गया है और स्कूल सार्वजनिक स्थान नहीं है. यहां हम सब पहनावे में एकरूपता रखें वही उचित ही नहीं सही भी है ! वकीलों को लगा कि शायद संविधान उन्हें सहारा ना दे पाए तो वे लगे उद्धृत करने कोंस्टीटूएंट्स असेंबली में कही गयी , की गई टिप्पणियों को !

दरअसल आजकल आदत हो गयी है टिप्पणियों का हवाला देकर अंतिम वाक्य (निर्णय) को कमतर बताने की ! यही तो अदालती प्रक्रिया के दौरान न्यायाधीशों द्वारा की गई टिप्पणियों का हवाला देकर किया जाता है. धर्म की तानाशाही का प्रतीक है हिजाब जिसकी पैरोकारी करना ही पितृसत्तात्मक सोच है. और तब शुरू होती है मॉरल पुलिसिंग. 'न्याय देवता' को ना तो किसी युक्ति का निर्धारण करना है, ना ही कोई युक्तिसंगत निर्णय लेना है क्योंकि ऐसा किया जाना संतुलन ही कहलायेगा !

जरूरत संतुलन की नहीं, बल्कि बड़े हित में कड़ा फैसला लेने की है, परसाई जी को गलत साबित करने की है ! और जब भारत धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र कहलाता है तो प्रो हिजाब होने का क्या तुक खासकर तब जब ईरान सरीखे कट्टर इस्लामिक देश में एंटी हिजाब मुहीम ने जोर पकड़ रखा है. #नो टू हिजाब ईरान से पहले तो भारत में होना चाहिए था ना.

लेखक

prakash kumar jain prakash kumar jain @prakash.jain.5688

Once a work alcoholic starting career from a cost accountant turned marketeer finally turned novice writer. Gradually, I gained expertise and now ever ready to express myself about daily happenings be it politics or social or legal or even films/web series for which I do imbibe various  conversations and ideas surfing online or viewing all sorts of contents including live sessions as well .

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