'एंडरसन' नाम भारत सरकार के गले की हड्डी कल भी बना था और आज भी बन गया है!
गुरु अपने होनहार चेले के लिए कहते भी हैं कि एंडरसन कुछ भी खोद निकालने के लिए मशहूर है, यदि उन्हें किसी भी घपले की भनक लगती है तो वो उसे बेपर्दा कर ही देते हैं. तब कांग्रेस सरकार सांसत में थी लेकिन चूंकि पंचशाला का प्रथम वर्ष ही था, कहना मुश्किल है इस हादसे ने कितना कंट्रीब्यूट किया या बिलकुल ही नहीं किया 1989 की विदाई में.
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वो भी एक हादसा (भोपाल गैस कांड) था जिसका सूत्रधार एंडरसन था और "अडानी" भी एक हादसा है, एक दूसरे एंडरसन की बदौलत. आज के एंडरसन ने तो कबूल भी किया है कि वह बना ही हादसों के लिए है तभी तो उनकी कंपनी हिंडनबर्ग रिसर्च कहलाती है. फिर एंडरसन के गुरु हैं हैरी मार्कोपोलोस जिन्होंने बर्नी मेडोफ़्फ़ की पोंज़ी स्कीम का पर्दाफाश किया था. गुरु अपने होनहार चेले के लिए कहते भी हैं कि एंडरसन कुछ भी खोद निकालने के लिए मशहूर है, यदि उन्हें किसी भी घपले की भनक लगती है तो वो उसे बेपर्दा कर ही देते हैं. तब कांग्रेस सरकार सांसत में थी लेकिन चूंकि पंचशाला का प्रथम वर्ष ही था, कहना मुश्किल है इस हादसे ने कितना कंट्रीब्यूट किया या बिलकुल ही नहीं किया 1989 की विदाई में.
फिर चुनावी साल 1989 के आते आते दीगर मुद्दे, मसलन बोफोर्स, श्रीलंका, हावी हो गए थे. कल्पना कीजिए 1984 ही चुनावी साल होता तो क्या होता? निःसंदेह सरकार चली जाती. आज अडानी हादसा तब हुआ है जब चुनाव दस्तक दे रहा है. हालांकि चुनाव एक साल बाद है और तब तक क्या अडानी मुद्दा जीवित रह पाएगा? इसका जवाब एक्सेप्शन टू "मोदी है तो मुमकिन है". यानी चूंकि मोदी है तो नामुमकिन है कि अडानी मुद्दा जीवित रह पाए. आखिर मोदी से बड़ा गेमचेंजर कौन है? नैरेटिव बदलना उनके बाएं हाथ का खेल है.
इस बार तेवर जबरदस्त हैं खासकर यात्रा ने कांग्रेस का कायाकल्प कर दिया है, ऊर्जावान बना दिया है. और उन्हें यकीन है कि इस बार "चौहान" चूक जाएंगे. परंतु संदेह है क्योंकि एक तरफ सत्ताधारी पार्टी टोटल एक्टिव मोड में आ गई हैं और दूसरी तरफ विपक्ष ईगो छोड़ने को तैयार ही नहीं है. यहां तक कि कांग्रेस के अंदर ही वर्चस्व के लिए आपसी घमासान बढ़ रहा है, बेवकूफी में सेल्फ गोल भी फिर से होने लगे हैं. हालांकि विपक्ष को मौके खूब मिल रहे हैं लेकिन वे एक्सप्लॉइट नहीं कर पा रहे हैं.
पिछले दिनों नीति आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष और वर्तमान में कोलंबिया यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर पवन पनगढ़िया ने हिंडनबर्ग की रिपोर्ट और साख पर सवाल इस बिना पर उठाये थे कि अमेरिका में शॉर्टसेलर्स के खिलाफ जांच चल रही है और हिंडनबर्ग दावा करती है कि उसे दशकों का अनुभव है जबकि कंपनी महज छह साल पुरानी है. प्रोफेसर की इस बात को बीजेपी के धुरंधरों ने इस तरह गढ़ दिया कि हिंडनबर्ग रिसर्च के खिलाफ अमेरिका में तीन मामलों की जांच चल रही है. इसके बैंक अकाउंट जब्त कर दिए गए हैं.
इसे न्यूयॉर्क स्टॉक एक्सचेंज में सूचीबद्ध कंपनियों पर रिपोर्ट करने से रोक दिया गया है. लेकिन विडंबना देखिए ना तो कांग्रेस के किसी नेता ने और ना ही किसी मीडिया ने रियल टाइम में इस झूठे नैरेटिव का खंडन करने की हिम्मत दिखाई और ना ही उनकी हिम्मत हुई ये कहने की कि बीजेपी की पूर्व वित्तीय सलाहकार और मार्किट एक्सपर्ट स्पोकेसपर्सन संजू वर्मा, दिग्गज रविशंकर प्रसाद या सुधांशु त्रिवेदी अपनी बातों को ऑथेंटिकेट करें. जब स्वयं संस्थापक एंडरसन ने ट्विटर के माध्यम से खंडन करते हुए तथ्य दिए, मीडिया ने बताना शुरू किया और फिर विपक्ष भी मुखर हुआ. लेकिन मौके पे चौका नहीं लगा तो किस काम का? वो कहावत है ना ''अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत''.
इसके साथ ही पता नहीं कांग्रेस के जयराम रमेश सरीखे दिग्गज, जो रोजाना 'हम अडानी के हैं कौन' सीरीज निकाल रहे हैं, क्यों नहीं बता पाते कि हिंडनबर्ग रिसर्च भले ही 2017 में अस्तित्व आई हों, इसके संस्थापक एंडरसन का अनुभव तो दशकों पुराना है. कहने का मतलब सरकास्टिक होना जरूरी है, फिर भले ही काम की बातें इग्नोर हो जाएं. दरअसल संसद के भाषणों के कुछ हिस्सों को निकाले जाने पर कांग्रेस के लोग अपनी ऊर्जा व्यर्थ जाया कर रहे हैं. राजनीतिक और संस्थागत नैतिकता की दुहाई देकर पीठासीन अधिकारी असंसदीय और मानहानिकारक बातों को हटाएं या ना हटाएं. आज इस डिजिटल एरा में, जब लाइव प्रसारण हो रहा है, क्या फर्क पड़ता है?
विपक्ष को तो प्रो बीजेपी सीनियर एडवोकेट हरीश साल्वे की उस बात का भी खंडन करना चाहिए था, जिसमें उन्होंने कहा था, "यह रिपोर्ट भारत और भारतीयों पर हमला है. अडानी की अधिकतर संपत्तियां रेगुलेटेड हैं. इसका लाभ और नुकसान दोनों है. अडानी ग्रुप की सभी कंपनियां लिस्टेड हैं. इनके सभी रिकॉर्ड पब्लिक डोमेन में हैं. आप कह सकते हैं कि आपने (हिंडनबर्ग) छिप छिपकर रिसर्च की और उससे जो निकला वो बेतुका है." क्या कांग्रेस और विपक्ष के दिग्गज अधिवक्ताओं मसलन चिदंबरम, कपिल सिब्बल, सिंघवी, सलमान खुर्शीद और अन्यान्य की फ़ौज चूक गई है? सवाल है फिलहाल हो क्या रहा है?
कही पढ़ा, अक्षरशः तो नहीं फिर भी कुछ यूं ही बयां था, "देश की सबसे बड़ी पंचायत में प्रधान सेवक व ग्रैंड ओल्ड पार्टी के युवा नेता के भाषणों की गूंज पंचायत के गलियारों में सुनाई दे रही है. भगवा दल के नेता इस बात का दम भर रहे हैं कि प्रधान सेवक ने शायर व कवि बनकर ओल्ड पार्टी को धो डाला है. वहीँ ग्रैंड ओल्ड पार्टी के नेताओं का तर्क है कि प्रधान सेवक की सबसे कमजोर नस पर अब हाथ रखा है, जिसका कोई जवाब नहीं है. पंचायत के भीतर भले ही बहस समाप्त हो गई हो, लेकिन गलियारों में अपने अपने तर्कों के साथ नेताओं की बहस जरूर जारी है."
वैसे देखा जाए तो अडानी मुद्दा न्यायालय पहुंच चुका है, ना केवल हिन्दुस्तान की शीर्ष अदालत में बल्कि यूएस में भी हिंडनबर्ग रिसर्च के खिलाफ लीगल एक्शन के लिए स्वयं अडानी ने वहां की टॉप लीगल फर्म वॉचटेल को हायर किया है. देखना दिलचस्प होगा देश की शीर्ष अदालत क्या रुख अख्तियार करती है. हिंडनबर्ग के आरोपों को तवज्जो देती भी है कि नहीं. उम्मीद कम ही हैं. टेक्नीकली टेक्नीकलिटीज़ आड़े आ ही जाएंगी यहां और कह दिया जाएगा कि शेयर बाजार भावनाओं पर चलता है.
सो इन्वेस्टर्स हैं ही "इन्वेस्ट एट योर ओन रिस्क" के लिए शेयर मार्केट में पहले ही लिखा होता है कि सिक्योरिटी बाजार की जोखिम के अधीन है. हां, बैलेंसिंग एक्ट भी हो जाएगा सुझावों के रूप में जिसके लिए कमेटी बनाने के लिए सहमति हो ही गई है. यूएस में भी टेक्नीकैलिटीज के सहारे ही हिंडनबर्ग रिसर्च पर भी एक्शन करवा देगा वॉचटेल. आखिर अडानी को इतनी राहत तो दिलाना बनता ही है. और एक बार फिर सत्ताधारी पार्टी न्यायालय के दम पर दम भरना शुरू कर देगी.
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