औरतखोर कहावतें गढ़ने वाले रावणों, मुबारक हो!
महिलाओं से जुड़े हर मुद्दों पर खुलकर बात हो रही है तो उन मान्यताओं पर क्यों न बहस हो जिन्हें कहावतों के जरिए बेहद सामान्य ढंग से हमारे दिमागों में भर दिया गया है. महिलाओं को कमतर दिखाने वाली इन कहावतों का जनक कौन है, यह इनकी भाषा देखकर ही समझा जा सकता है.
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इज्जत!
क्या रावण ने सीता का अपहरण सिर्फ इसीलिए किया था, क्योंकि वह शूर्पणखा के अपमान का बदला लेना चाहता था? या इसलिए कि जब वह राम से बदला लेने आया तो सीता का रूप देखकर मुग्ध हो गया? रामायण तो सीता-हरण के पीछे यही दो कारण बताती है. लेकिन, क्या ये कारण पर्याप्त हैं? क्या एक महिला के अपमान का बदला तभी पूरा होता है जब सामने वाले पक्ष की महिला का अपमान कर दिया जाए? और वह भी मर्द के हाथों? क्योंकि, उसी को तो तर्कसंगत माना गया है. ‘औरत घर की इज्जत जो ठहरी’. और आदमी उसका पहरेदार. रावण यदि बदला न लेता तो यही कहा जाता न कि ‘हाथों चूड़ियां पहन रखीं हैं’. यानी महिला के अपमान का बदला महिला नहीं, पुरुष ही लेगा. कथा के मुताबिक लगे हाथ ये भी मान लीजिए कि सीता थी ही इतनी रूपवान कि रावण का उन पर मोहित होना बनता था. जिन महिलाओं का अपहरण होता है, या उनके साथ कोई भी गलत काम होता है, तो क्या वह इसीलिए होता है? क्या सीता रूपवती न होतीं तो बच जातीं? क्या रावण उन्हें छोड़ देता? उसके घमंड, उसकी पितृसत्तात्मक सोच, और उसकी वासना का कोई रोल नहीं है इसमें? क्या महाभारत का युद्ध द्रौपदी के अपमान का बदला मात्र था? उसका कौरवों-पांडवों के सत्ता के लालच, अहंकार और आपसी बैर से कोई लेना-देना नहीं था?रामायण और महाभारत के युद्ध के संदर्भ में सीता और द्रौपदी को स्त्री मत मानिए. ये दोनों किरदार वो बिंदु हैं, जहां पहुंचकर पुरुष अपना संतुलन खो देने का बहाना ढूंढते हैं. महिलाओं को जर (पैसा/संपत्ति) और जमीन के समकक्ष मत रखिए. जोरू तो सुनने में ही लगता है, जैसे किसी की संपत्ति. अपमानजनक है ये. सीता और द्रौपदी जोरू नहीं हैं. वे स्वयंसिद्ध शक्तियां हैं. बाकी अन्य महिलाओं की तरह.
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सामाजिक मान्यताएं!
दुर्गा की तरह महिलाएं शक्ति स्वरूपा हैं. शास्त्रों में तो यही वर्णित है. जो अलिखित है वो ये कि समाज में शक्ति-संतुलन बनाने का ठेका पुरुषों के पास रहेगा. और पंचायत से आवाज आएगी- ‘ढोर, गंवार, शूद्र, पशु, नारी, ये सब...’. और इस तरह शक्ति-स्वरूपा बराबर कर दी गईं ढोर, गंवार के. हालांकि, ताड़ना के अधिकारी पुरुष भी हो सकते हैं, लेकिन उसके लिए उनका गंवार और शूद्र होना अनिवार्य शर्त है. ‘समझदार’ पुरुषों ने सभी महिलाओं को दुरुस्त रखने की गुंजाइश इस कहावत के जरिए जताई है. इसके अलावा रही सही कसर सामाजिक ऊंच-नीच ने पूरी कर दी है- ‘गरीब की जोरू, पूरे गांव की भाभी’. माने जो मर्जी कुछ भी कह दें, कर दें. भयानक है ये. लेकिन सदियों से प्रचलित है. एकदम सामान्य ढंग से. आज भी. महिलाओं को मिलने वाली सामाजिक प्रताड़ना और उत्पीड़न के पीछे यही तो मानसिकता है.
आखिर ये किसके दिगाम की उपज हो सकती है कि 'मकान और औेरत को जितना सजाओ, ये उतने सुंदर दिखते हैं.'
पारिवारिक मान्यताएं!
‘दुल्हन वही जो पिया मन भाए’… हाऊ रोमांटिक. पिया मन भा गई, मतलब दुल्हन का जीवन गुलाबी ही गुलाबी. अब उसके जीवन का एक ही ध्येय है- पिया के मन को भाना. वह अपना जीवन गुजार देगी, अपनी मैग्नेटिक पावर को बरकरार रखने में. लोहपुरुष पिया भले काठ का हो जाए. हां, पिया पर कभी इस बात का दबाव नहीं होगा कि- पिया वही जो दुल्हन मन भाए. दुल्हनिया के लिए एकमात्र टारगेट पिया है. जबकि पिया के मामले में चीजें थोड़ी रिलेक्स हैं. दुल्हनियां की यदि कोई छोटी बहन है तो वो पिया को मिली एडिशनल फैसिलिटी की तरह होगी- ‘साली आधी घरवाली’. दुल्हनियां यही बात अपने देवर के लिए नहीं कह सकती- देवर आधा घरवाला. बवाल ही हो जाएगा. वो कुलटा, और न जाने क्या क्या बना दी जाएगी. खैर, शादी की तारीख नजदीक आते आते लड़की की क्रेश कोर्स ट्रेनिंग होने लगती है कि ‘पति के दिल का रास्ता उसके पेट से होकर जाता है’. अब इस चक्कर में बेचारी झोंक दी जाती है रसोइया बनने के सनातन प्रोफेशन में. दिल का पता नहीं, लेकिन वो आजीवन यही क्रैक करने में माथा खपा देती है कि पिया के पेट को क्या पसंद आएगा. पेटू पिया अगर चंट निकला तो इस बात की भनक जीवनभर नहीं लगने देगा. मान लीजिए दुल्हन की किस्मत चमकी, और पिया ने उसके प्यार में पड़कर उसकी हां में हां मिला दिया, बेड़ा गर्क है. उसका ‘जोरू का गुलाम’ बनना तय है. इस अवस्था में तो न पिया की खैर है, न दुल्हनियां की. ‘औरत के पल्लू से बंधा आदमी’ किसी काम का रहा है भला!
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हीनता!
‘आदमी को खा गई!’, किसी औरत के मरने पर क्या आपने कभी सुना है कि आदमी को कहा गया- औरत को खा गया. यूं तो परिवार में पति-पत्नी दोनों ही एक-दूसरे की कुशलता का ध्यान रखते हैं. लेकिन, यदि कुछ गड़बड़ हो जाए, तो जिम्मेदारी महिला पर ज्यादा है. और सामाजिक ताप से बचने के लिए वह सारे जतन, व्रत, तीरथ करती है. और जीवन भर कामना करती है- ‘सुहागिन ही मरूं’. भिया लोगों ने खुद को इन बातों से टेंशनफ्री रखा है. दुनिया में मरने वाले सारे काम पुरुषों ने खुद ही किए हैं, लेकिन बवाल का मलबा महिलाओं पर थोपा है. क्या किसी महिला ने इधर की बात उधर की थी, तो 9/11 की घटना हो गई? ‘महिलाओं के पेट में बात नहीं पचती’! अरे न पचे उनके पेट में बात लेकिन वह अवस्था पुरुषों के दिमागी अजीर्ण से हमेशा लाख गुना बेहतर है. पुरुषों ने जो बातें इधर-उधर की हैं उससे ज्यादा बड़े-बड़े कांड हुए हैं.
सामाजिक लोकाचार में महिलाओं के प्रति हीनता इतनी सहज सामान्य हो गई है कि अब अजीब नहीं लगती. हम पुरुषों ने इसे इतना सरल ढंग से प्रस्तुत किया कि महिलाओं को भी इस पर आपत्ति नहीं हुई. पुरुषों ने अपनी श्रेष्ठता के बुलबुले को फुलाए रखने के लिए महिलाओं के प्रति दुर्भावना से ग्रसित उक्तियां गढ़ी हैं, उसकी मान्यता ने समाज का नुकसान ही किया है. औरत की दुर्गति तो हुई ही है, आदमी भी कहीं का नहीं रहा है. वो तो अपनी नाकामी को भी भावहीन बनकर सहने के लिए शापित हो गया है. एक ऐसा श्राप जो उसने खुद ही खुद को दिया है. वह कितना भी अवसाद में होगा, रो नहीं सकता. भले विज्ञान पुरुषों के न रोने के कारण उनमें पैदा होने वाली विकृतियों के बारे में चीख चीख का बताता हो. लेकिन मजाल है कि एक आंसू गिर जाए. लोग क्या कहेंगे- ‘क्या लड़कियों की तरह रो रहा है?’
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