अपनी फेसबुक फ्रेंडलिस्ट चेक कीजिए, कोई 'हिंदू-मुस्लिम' तो नहीं?
सोशल मीडिया को कई लोग अपने अपने तरीके से यूज कर रहे हैं. असली मुद्दे पर कोई आना नहीं चाहता. अपने मजहब वाले सही बात नहीं सिखा रहे हैं, सिर्फ डरा रहे हैं.
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मेरे दफ्तर में शम्स ताहिर खान, रेहान अब्बास, मुहम्मद अनस जुबैर, शादाब मुज्तबा हैं, उच्च पदों पर हैं ये लोग, बेहद जहीन. जानते हैं कि इनमें एक समानता क्या है, इन सभी की एक ही संतान है और वो भी बेटी. वजह क्या है, वजह है इनकी तालीम, इनकी शिक्षा. क्योंकि इन्हें पता है कि जिस संतान के दुनिया में आने के ये जरिया बने हैं, उसके पालन-पोषण में कोई कमी नहीं होनी चाहिए. इन्हें नहीं रटाना है कम संतान-सुखी इंसान.
मेरे गांव में मेरे हमउम्र दयाराम के आठ बच्चे हैं. मेरे खुद दो सगे भाई और तीन बहनें हैं. मेरे लखनऊ के एक साथी पत्रकार के 11 मामा और चार मौसियां हैं. सुभाष चंद्र बोस अपने पिता की नौवीं संतान थे. इसके बाद भी प्रोडक्शन जारी था, 14 भाई बहन थे. तो दूसरे की संतानों की तादाद गिनने से पहले जरा अपना भी इतिहास देख लेना चाहिए.
अभी हाल में मैंने एक चुटकुला पढ़ा था कि एक कलेक्टर साहब गांव में नसबंदी के लाभ बताने पहुंचे थे. एक ग्रामीण ने पूछा-साहब आपने नसबंदी करवाई है? साहब बोले-नहीं, हम पढ़े-लिखे हैं. ग्रामीण बोला- तो साहब हमें भी पढ़ाओ-लिखाओ, नसबंदी करवाने क्यों आ गए.
अपने मजहब वाले सही बात नहीं सिखा रहे हैं, सिर्फ डरा रहे हैं |
फेसबुक पर लिखने वाले तमाम लोग विद्वान हैं, जानकार हैं, लेकिन अपनी विद्या का इस्तेमाल नफरत फैलाने में ज्यादा कर रहे हैं. हिंदू हो या मुस्लिम, दोनों समुदाय की मूल समस्या है शिक्षा. जो पढ़कर आगे बढ़ गए, वो भी शिक्षा के लिए प्रेरित नहीं करते, बल्कि अपने ही समुदाय के उन लोगों का इस्तेमाल करते हैं, जिन्हें अक्षर ज्ञान हो गया है और जो सोशल मीडिया पर फेंका उनका कचरा उठाकर अपने दिमाग में डालने के लिए अभिशप्त हैं. दो समुदाय जो इंसानियत के तकाजे से एक-दूसरे के करीब आ सकते हैं, उन्हें बरबस ये दूर करना चाहते हैं. मुस्लिम समुदाय के अच्छे लिखने वाले अपने ही सहधर्मियों को बरगला रहे हैं. उनके अपने घर में अपनी बेटी तो डॉक्टरी-इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रही है. लेकिन फेसबुक पर वो 'मोदी की डियर' पर मौज ले रहे हैं.
कोई मुस्लिम अगर इस्लाम या कट्टरता के खिलाफ कोई पोस्ट लिखता है तो उसमें कमेंट करने वालों में हिंदू लोगों की भरमार होती है, जो उस पोस्ट का स्वागत करते नजर आते हैं. उस पोस्ट के कमेंट्स में मुस्लिमों की तादाद भी होती है. या तो वो अपने उस साथी को गालियां दे रहे होते हैं या फिर कुछ ऐसे भी होते हैं जो पोस्ट का समर्थन कर रहे होते हैं. ठीक इसी तरह, जब कोई हिंदू कट्टर हिंदुत्व और धर्म के नाम पर फैले अंधविश्वास के विरोध में कुछ लिखता है तो उस पोस्ट पर मुस्लिम साथियों के कमेंट थोड़े से आते हैं, अगर पोस्ट पब्लिक है तो फिर उस पर हिंदू धर्म वालों की गालियां पड़नी तय है.
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मेरी फ्रेंडलिस्ट में भी ऐसे साथी हैं, जिनमें से कुछ कभी परशुराम के भक्त बन जाते हैं, तो कभी देखते ही शेयर करें वाली तस्वीरें भेजते हैं, बेवजह मोदी-मोदी करते रहते हैं. व्हाट्सएप के ग्रुप में तो कई मूर्खतापूर्ण मैसेज चलते रहते हैं. और हां, फेसबुक पर कई मुस्लिम मित्र जान बूझकर बड़े शातिराना तरीके से पोस्ट लिखते हैं. आरएसएस पर हमला करने की आड़ में हिंदुओं की 'बहन-महतारी' करते हैं. कई लोग मुझसे फोन करके कह चुके हैं कि ये आदमी आपकी फ्रेंडलिस्ट में क्यों है? दरअसल ऐसी पोस्ट का अंजाम क्या होता है, मैं बताता हूं. उसमें एक मुसलमान लिखता है, बाकी मुसलमान पढ़ते हैं, वाह-वाह करते हैं, कई हिंदू पढ़कर कुढ़कर रह जाते हैं, कुछ से रहा नहीं जाता तो पोस्ट पर पहुंचकर तर्क-वितर्क करना शुरू करते हैं, तो वहीं कुछ सीधे 'मां-बहन' पर उतारू होते हैं. 'मां-बहन' करने वाले दोनों तरफ हैं. कोई डायरेक्ट परखनली से पैदा नहीं हुआ है, सबके घर में मां-बहन हैं.
दरअसल सोशल मीडिया को कई लोग अपने अपने तरीके से यूज कर रहे हैं. असली मुद्दे पर कोई आना नहीं चाहता. अपने मजहब वाले सही बात नहीं सिखा रहे हैं, सिर्फ डरा रहे हैं. दूसरे मजहब वालों से वो सीखना-पढ़ना चाहेंगे नहीं. खासतौर पर ये मुस्लिम समुदाय के लोगों के साथ ज्यादा हो रहा है, यही वजह है कि भारत में पाकिस्तान से ज्यादा मुसलमान हैं, लेकिन एक भी मुसलमान उनका सर्वमान्य नेता नहीं बन पाया. क्षेत्रीय स्तर पर आजम, ओवैसी उभरे, लेकिन इन्होंने भी तो मुसलमानों का सिर्फ इस्तेमाल ही किया है.
(ये लेख सबसे पहले विकास मिश्र की फेसबुक वॉल पर प्रकाशित हुआ है)
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