मैं एक हिंदू हूं, एक औरत हूं और मुझे मीट पसंद है, तो क्या !!
पोषण से ज्यादा, ये आपकी पसंद है. ये स्वादिष्ट है.
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दूसरे धर्म के लोग गौमांस खाने को लेकर कितने सहज हैं, ये छोड़ देते हैं, कुछ हिंदू समुदायों में भी महिलाओं का मीट खाना सहन नहीं किया जाता.
मुझे याद है मेरी एक दोस्त अपने प्रेमी से बहुत प्यार करती थी, लेकिन एक ब्राह्मण परिवार के लिए एक मांसाहारी बहू को स्वीकार करना बहुत मुश्किल था. प्रेमी ने झूठ बोला, लेकिन लड़की ईमानदार रहना चाहती थी. और उसके बाद जो हुआ वो तूफान से कम नहीं था. जब भी इस बारे में बात की जाती तो लड़के के माता-पिता यही कहते कि 'तुम्हारे लिए अपना धर्म छोड़ दें क्या?' और एक दिन ये सब खत्म हो गया जब उसने घोषणा की 'मां, वो अकेले नहीं खाती, चिकन मुझे भी पसंद है'.
जनेउ धारण किया हुए इंसान को अपने समुदाय के लिए अपमान का कारण बनने पर परिवार से बाहर कर दिया गया. उसे वापस स्वीकार करने की केवल एक ही शर्त थी कि 'शुद्धि' की जाए, और उसके मन से उस 'अशुद्ध' लड़की का ख्याल निकाल दिया जाए, जिसने उसे ऐसा खाना खाना सिखाया. भारी मन से वो परिवार से बाहर हो गया जिसके लिए गाय ज्यादा महत्वपूर्ण थी बजाए उस लड़की के जिसे वो प्यार करता था.
मेरे कुछ खास रिश्तेदार हैं जो उन लोगों के यहां जाते ही नहीं जिनके घरों में मांसाहारी खाना बनता है. वो गर्व के साथ कहते हैं कि 'हमारे घर तो अंडे वाली ब्रेड भी नहीं आती'. वो खुद को भारतीय संस्कृति का रक्षक समझते हैं, लेकिन वहीं वो उपहास का कारण भी बनते हैं. अगर डाइनिंग टेबल पर कोई मांस खाने वाला बैठ जाए तो वो वो मुंह बनाते हैं.
और ऐसे भी परिवार हैं जहां आदमी और औरतों के लिए अलग अलग नियम-कायदे होते हैं 'अब घर की औरतें भी मांस-मच्छी खाएंगी क्या?'
भारत में शादी के विज्ञापनों में 'स्ट्रिक्टली वेज' बड़ा ही सामान्य वाक्य है. लोग साफ-साफ अपने शाकाहारी होने का उल्लेख कर देते हैं. ये जोड़ी बना भी सकता है और जोड़ी तोड़ भी सकता है. आपका खाना आपकी सोच से ज्यादा मायने रखता है.
अगर धर्म और मान्यता की वजह से खाने पर प्रतिबंध लगाए जाते हैं तो वो गलत नहीं हैं, लेकिन उन्हें किसी पर इस कदर भी न थोप दिया जाए कि घुटन होने लगे.
परेशानी वही है, कुछ सांप्रदायिक लोग न तो खुद समय के साथ चलते हैं और न औरों को चलने देते हैं. समस्या उनकी आस्था के प्रति समर्पण नहीं है, बल्कि दूसरे सिद्धांतों को अपमानजनक साबित करने कि लिए किया जाने वाला प्रचार है. वो मांस खाने वालों को जिस नजर से देखते हैं वो बहुत अजीब है.
शाकाहारी होना आपकी पसंद है. और जो लोग ऐसी जीवन शैली अपनाते हैं, उन्हें उसे आगे बढ़ाने का अधिकार भी है. लेकिन मांसाहारी होना संस्कृति का अनादर नहीं है. रिसर्च से चिकिन और टर्की के हाई प्रोटीन फायदों का पता चला है. मछली में जबरदस्त ओमेगा-3 होता है जो हड्डियों और बालों के लिए बहुत अच्छा होता है. अण्डे को कैल्शियम और प्रोटीन का गोदाम कहा जाता है.
और पोषण से ज्यादा, ये आपकी पसंद है. ये स्वादिष्ट है.
और वास्तव में, क्या मेरे खाने से मेरे चरित्र का पता चलता है? हमें ऐसे मजेदार बयान भी पढ़े हैं जहां चाउमीन को रेप के लिए उत्प्रेरक बताया गया. इसका मतलब चीन जहां ये प्रधान भोजन है, वो बलात्कारों का देश है? और इससे मुझे याद आया, एक इस्लामी पादरी ने कहा कि पश्चिमी देशों में सुअर खाया जाता है इसलिए उनमें सुअरों जेसे लक्षण होते हैं. मेरे लिए तो ये सोच पोखरों में खेल रहे गंदे सुअरों से भी ज्यादा गंदी है.
हमें अपने दैनिक जीवन में समझदारी और समानता के साथ चलना चाहिए.
आहार, खाना, जीवनशैली, आपकी अपनी पसंद की चीजें हैं. अगर आपका दिमाग विवेकहीनता का शिकार है तो आप किसी को भी फ्रेंड और अनफ्रेंड कर सकते हैं, लेकिन कृपा करके अपने एजेंडे का प्रचार बंद करें.
लोग मुझसे कैसा व्यवहार करते हैं या मुझसे कैसे मिलते हैं, मैं इसी आधार पर दोस्त बनाती हूं. मेरे सबसे अच्छे दोस्त शाकाहारी हैं, मेरे पति मांसाहारी हैं, और जब हम छुट्टियां मनाने विदेश जाते हैं तो मेरा बेटा पेपरोनी पिज्जा पर टूट पड़ता है. खाने के आधार पर किसी का आंकलन करना गलत है. खाने की पसंद पर हल्का फुल्का मजाक चलता है लेकिन अपने एजेंडे को लेकर पागलपन बहुत बुरा है.
उनकी थाली मे क्या है उससे ज्यादा मैं इस बात पर ध्यान देना पसंद करती हूं कि उनके दिमाग में क्या है.
और जब पूछा जाता है कि 'क्या आप शाकाहारी हैं?' मैं तड़ाक से जवाब देती हूं कि 'मुझे सब्जियों से भी परहेज नहीं है'
मुझे गर्व है कि मैं हिंदू हूं, एक औरत हूं और मुझे मांसाहार पसंद है, तो इसमें बुरा क्या है?
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