क्या वामपंथ को बचा सकते हैं सीताराम येचुरी?
मार्क्सवाद जवानी के लिए अफीम है. जवान होते हुए हम सब में कहीं न कहीं, कम ज्यादा ही सही, वामपंथ की ओर झुकाव रहा.
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विश्वविद्यालय में हमें बताया गया था: "व्हेन यू आर यंग, यू आर रेड बिकॉज व्हेन यू आर ओल्ड, यू विल भी डेड" (जब आप जवां होते हैं, आप लाल होते हैं क्योंकि बूढ़े होंगे तो आप मर जाएंगे)
मार्क्सवाद जवानी के लिए अफीम है. जवान होते हुए हम सब में कहीं न कहीं, कम ज्यादा ही सही, वामपंथ की ओर झुकाव रहा. सत्ता विरोधी और पूंजीवाद विरोधी कारणों से.
फिर आप बड़े हो जाते हैं. साम्यवाद एकाएक चलन से बाहर हो चुकी विचारधारा लगने लगती है. जो खुद ही खत्म हो रही है. भारत में समस्या यह है कि हमारे अधिकतर मार्क्सवादी बूढ़े हैं जो अभी तक 'बड़े' नहीं हो सके. वामपंथी नेतृत्व पर एक नजर डालिए: भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के नवनिर्वाचित महासचिव सीताराम येचुरी (62), वीएस अचुत्यानन्दन (92), प्रकाश करात (67), डी राजा (65) और गुरुदास दासगुप्ता (78).
बहुत कम ही महिलायें अपनी जगह बना पाती हैं : वृंदा करात ऐसी ही अपवाद हैं.
पुराना सोवियत संघ, भारतीय वामपंथ का ध्रुवतारा, डूब जा चूका है. दूसरा साम्यवादी किला चीन भी पूंजीवाद की राह में भरभरा चुका है. उत्तर कोरिया को मुश्किल से ही वामपंथी गौरव के रूप में देखा जा सकता है. न ही क्यूबा, जिसने 50 सालों की दरिद्रता के बाद वाशिंगटन की पूंजीवादी गर्माहट से तालमेल बैठा लिया है.
भारत में वामपंथ अवशेष के रूप में सिमट कर रह गया है. 2004 में 60 सांसदों की शक्ति से जिस सीपीआई(एम) और सीपीआई ने कांग्रेस की अगुआई वाली 'कुख्यात' UPA-1 को सहारा दिया, वे एक दशक बाद मौजूदा लोक सभा में 10 सांसदों तक सिमट गए हैं.
लेकिन 'कुख्यात' क्यों? क्योंकि सर्वमान्य धारणा के विपरीत, कांग्रेस ने 2004 का आम चुनाव जीता नहीं था. भाजपा हारी थी. 1999 में, 28.30 प्रतिशत वोट शेयर के साथ 114 सीटें जीती थीं ; जबकि बीजेपी, अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में, महज 23.75 प्रतिशत वोट शेयर के साथ 182 सीटें जीती. 2004 में बीजेपी 138 सीटों पर खिसक गई (22.16% वोट शेयर के साथ) जबकि कांग्रेस 145 सीटों पर पहुंच गई (26.53% वोट शेयर के साथ ). इसी से कांग्रेस की मनगढंत "जीत" की कहानी बनती है.
2004 की त्रिशंकु संसद ने सोनिया गांधी की अगुवाई वाली कांग्रेस को बहुमत से 127 सीट पीछे छोड़ा था. अपयश अपनी जड़ें जमा चुकी थी: 60 सीटों वाली वामपंथी पार्टियों, DMK, NCP और 'धर्मनिरपेक्ष' पार्टियों ने कांग्रेस की अगुवाई वाली UPA-1 को संसदीय बहुमत दिलवाया.
बदनामी के बीज से जल्दी ही अंकुर फूटने लगा. कोर्ट केस में जो दस्तावेजी सबूत दिखाए गए हैं, वे बताते हैं कि 2004 से 2008 के बीच की कांग्रेस और वामपंथी और दूसरे दलों के गठबंधन वाली सरकार के दौर में शर्मशार कर देने वाले घोटाले हुए. जैसे, 2G स्पेक्ट्रम, कामनवेल्थ खेल (CWG), कोलगेट, स्कोर्पेन पनडुब्बी और अगस्तावेस्टलैंड हेलीकॉप्टर्स.
हालाँकि वामपंथियों ने भारत अमेरिका परमाणु संधि के मुद्दे पर 2008 में सरकार से समर्थन वापस ले लिया, लेकिन 4 से ज्यादा वर्षों तक उस सरकार का हिस्सा रही जो अब तक की सबसे भ्रष्ट गठबंधन सरकार मानी जाती रही है. वामपंथी नेता मंत्रिपरिषद में नहीं थे लेकिन कॉमन मिनिमम प्रोग्राम के नाम पर उन्होंने बाहर से समर्थन दिया था. वे सरकार की समन्वय बैठकों में शिरकत करते रहे, ऐसे में 2004 से 2008 के दौरान हुए घोटालों के लिए वे सामूहिक जिम्मेदारी से बच नहीं सकते. आज की परंपरागत पत्रकारिता की तुलना में इतिहास UPA-1 में वामपंथ की भूमिका पर कहीं ज्यादा सख्ती से न्याय करेगा.
क्या सीताराम येचुरी वामपंथ की अविश्वसनीय साख को पुनर्जीवित कर सकते हैं? सीपीआई से विलय की संभावना है. राज्य सभा में येचुरी भूमि अधिग्रहण बिल को गरीब विरोधी बताकर सरकार की नीतियों पर हमला कर चुके हैं. मोदी सरकार के विरोध में वामपंथी पार्टियां नवोदित जनता परिवार और कांग्रेस को हर मौके पर समर्थन दे सकती हैं. संसद के बाहर भी और अंदर भी.
लेकिन देश कहीं आगे बढ़ चुका है. वामपंथ के शब्दाडम्बर केरल, त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल के कुछ पॉकेटों को छोड़ नाकाम साबित हुए हैं.
इसके अलावा, बीजेपी के अमीरपस्त नीतिगत मुद्दों को रोकने के लिए राहुल गांधी का वामपंथी रुझान भी वामपंथ के विचार विस्तार को समेत रहा है. जनता परिवार और आम आदमी पार्टी भी उसी चुनावी हिस्से के लिए संघर्षरत हैं: अल्पसंख्यकों दलितों और गरीबों के साथ साथ.
फलस्वरूप, बीजेपी दुविधा में दिखती है. प्रधानमंत्री ने 2014 का आम चुनाव तीन मुद्दों से जीता; पहला, सशक्त प्रचार जिसने मजबूत चुनावी हवा बनाई; दूसरा, 10 सालों के घटिया शासन प्रणाली से उपजा मजबूत कांग्रेस विरोधी सोच; और तीसरा, मोदी की अपनी चाय बेचने वाले की छवि जो गरीबों की समस्याओं को समझ सकता है और तंत्र को सुचारू रूप से उनके विकास के लिए चला सकता है. बावजूद इसके मोदी सरकार का उद्योगपरस्त और किसान विरोधी भाव मजबूत हुआ है. भूमि अधिग्रहण बिल को 5 मई के बाद के लिए टाल दिया गया है, जब काला धन, GST बिल और वित्तीय बिल संसद में चर्चा होकर पास हो चुके होंगे. शायद संसद के इस सेशन में यह बिल मतदान के लिए नहीं आये अगर विपक्ष ने संसद की गतिविधिओं को रोकना जारी रखा.
टाइम्स ऑफ़ इंडिया में छपे एक रोचक लेख में, अर्थशास्त्री और समीक्षक स्वामीनाथन अंकलेसरिया अय्यर ने पिछले रविवार (अप्रैल 26) को भूमि अधिग्रहण बिल का पुरजोर बचाव किया. पारम्परिक सोच यह मानती है कि यह बिल किसान विरोधी है और बीजेपी को अगले चुनाव में इसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है. इसके विपरीत, अय्यर कहते हैं: "भूमि अधिग्रहण बिल से वोट बढ़ेगा, न कि 2019 चुनाव में नुकसान होगा. कांग्रेस के 2013 के भूमि अधिग्रहण बिल में कई बुरी धाराएं थी जिससे अधिग्रहण और उससे जुडी योजनाएं अप्रत्यक्ष रूप से रुकीं. आर्थिक विकास और रोजगार सृजन रुके, इसलिए गुस्से में मतदाता कांग्रेस के खिलाफ खड़े हुए. किसानों के हक़ में मानी जानी वाली नीतियां ही उलटी पद गयीं.
पूनम गुप्ता और अरविन्द पनगरिया का बुनियादी शोध यह दिखता है कि 2009 में मतदाताओं के व्यवहार को राज्य की आर्थिक उपलब्धियों के उतार और चढ़ाव से ही व्याख्या की जा सकती है. न कि सब्सिडी या कर्ज माफ़ी से. 2014 में, राहुल गांधी को खाद्य सुरक्षा कानून से व्यापक वोट मिलने की उम्मीद थी, क्योंकि दो-तिहाई आबादी को गेंहू और चावल 2 -3 रुपये प्रति किलो की कीमत में देने का आश्वासन किया गया था. यह असफल हुआ क्योंकि इस नियम को लागू करने के लिए राज्य सरकारों पर आश्रित होना था. हालांकि, कई राज्य सरकारें पहले से ही 1-2 रुपये किलो अनाज मुहैया करा रही थी. ऐसे में राहुल का केंद्रीय कीमतों को कम करने का फायदा राज्य सरकारों को सब्सीडी के रूप में मिला, न कि उपभोक्ताओं को. कुछ चुनाव लोकप्रियता की हवाओं पर जीते जाते हैं. जैसे कि 1984 और 2014. गुप्ता और पनगरिया की तीव्र विकास थीसिस सभी चुनावों पर लागू नहीं होती. लेकिन किसी ने भी इस तरह 2019 में मोदी लहर या राहुल लहर की उम्मीद नहीं की है. इसलिए, मुख्यमंत्रियों का प्रदर्शन एक बार फिर समीक्षात्मक हो जाता है.
"भूमि अधिग्रहण बिल पर इन सबके क्या मायने हैं? सभी भूमि अधिग्रहण राज्य सरकारों द्वारा किये जाते हैं. वो किसान जिनकी जमीनें अधिगृहित की जाएँगी वो खुश या दुखी होंगे, यह निर्भर करता है भूमि अधिग्रहण कर रही राज्य सरकार के अधिकारियों की ईमानदारी और संवेदनशीलता पर. कांग्रेस शासित राज्य कुछ अतिरिक्त शर्तें जोड़ सकते हैं जैसा कि राहुल ने प्रण लिया है - इससे विकास की योजनाएं बाधित होंगी जिससे सुनिश्चित होगा कि अगले चुनावों में इन राज्यों में कांग्रेस की हार होगी. मोदी के पास डरने को कुछ नहीं है, और पाने को बहुत कुछ.
राहुल, जनता परिवार और येचुरी तो निश्चित ही मौजूदा संसदीय सत्र का इस्तेमाल भूमि अधिग्रहण बिल पर सरकार को घेरने के लिए करेंगे. राहुल का "सूट बूट वाली सरकार" का "किसान विरोधी-उद्योगपति समर्थक" सरकार पर ताना विरोधाभासी लगता है, जब वे खुद संपन्न राजनीतिक खानदान से आते हैं. राहुल, जो राजनितिज्ञ के रूप में कुरता-पायजामा पहनते हैं. राहुल जो गुप्त विदेश यात्री हैं, गूची ब्रांड पहनते हैं.
फिर भी अगर बीजेपी इन तमाम कमजोर पात्रों रास्पुटिन की तरह के राहुल, विश्वास खो चुके लालू-नितीश-मुलायम-देवेगौड़ा जनता परिवार और अलग-थलग पड़े येचुरी से सोच की लड़ाई हारती है तो इसकी जिम्मेदार वह खुद ही है.
हालाँकि, बीजेपी को किसी एक के कंधे पर नहीं ढोया जा सकता. यही समय है जब सभी 282 बीजेपी सांसदों को जोर लगाना होगा. महज 44 सांसदों के साथ कांग्रेस अनुभवहीन बीजेपी को संसद और मीडिया में पछाड़ती नजर आती है.
मुठ्ठी भर लोगों के साथ सरकार एक आदमी की सेना के रूप में सफल नहीं हो सकती. इसे प्रतिभावान नायको की जरूरत है जो आरोपों का दृढ़ता से जवाब दे सके, जिनमें कुछ तो घोर झूठ पर आधारित हैं. झूठ को कई बार दोहराकर सच बना दिया जाता है. येचुरी, राहुल और खुद की सेवा में लगे जनता परिवार को वामपंथी लोगों से बेहतर कौन जनता है.
इसी बीच बीजेपी अपने आप को आर्थिक और सामाजिक दोनों ही रूप से उदार पार्टी के रूप में स्थापित करे. संघ परिवार के दक्षिणपंथी समूहों को सामाजिक धर्मांतरणों से पीछा छुड़ाने की जरूरत है ताकि एक दूसरी ही दिशा में बढ़ रहे भारत से टकराव की स्थिति न उत्पन्न हो. नतीजे बहुत ही बुरे होंगे - और हमें 2019 तक इंतज़ार करने की जरूरत नहीं होगी. साल के अंत में बिहार हमें सब कुछ बता देगा.
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