मंदिर के पास कूड़े का ढेर बताता है कितने धार्मिक हैं हम...
किसी धार्मिक स्थान पर जाने से मन को शांति मिले न मिले.. आंखों को गंदगी जरूर मिल जाती है. शायद यही है आस्था और धार्मिक होना का प्रतीक..
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अपनी दादी को कहते सुना था कि मंदिर में जाने से ज्यादा शांति और किसी चीज से नहीं मिलती. दादी ने चार धाम और 12 में से 8 ज्योतिर्लिंग के दर्शन किए थे और मथुरा-वृंदावन उनके पसंदीदा तीर्थ में से एक था. बहुत दिनों से मन था मेरा तो मैं भी दर्शन को चली गई. जब तक यमुना एक्सप्रेसवे था तब तक ठीक था, लेकिन मथुरा के लिए मुड़ते ही वो सच्चाई सामने आई जिसे हमेशा से यूपी की ही नहीं पूरे भारत की पहचान माना जाता है. गड्ढे वाली सड़क से मथुरा की शुरुआत हुई. यमुना वाले पुल पर जाम लगा हुआ था. इसे पुल नहीं पुलिया कहें तो बेहतर होगा.
मंदिर पहुंचते-पहुंचते 12 से ज्यादा हो गया था तो मंदिर बंद हो गया था. सोचा वृंदावन चली जाऊं वहां थोड़ा घूमा जाएगा. अगर आप मथुरा गए हैं तो पता होगा कि वहां द्वारकाधीश मंदिर संकरी गलियों में है. उन्हीं गलियों में कई मिठाई की दुकाने, कान्हा जी की पोशाक की दुकाने, बरतन की दुकाने और फूल वाले बैठे रहते हैं. जैसा की भारतीय अपना हक समझते हैं लोग जहां बैठे थे उससे थोड़ी दूर पर ही कचरा फेक रहे थे. पास जाते ही मोड़ पर एक बड़ी मिठाई की दुकान थी. वहां शौचालय तो नहीं था, लेकिन पास ही एक गली थी तो समझ आ गया कि शौचालय जैसी बदबू कहां से आ रही है.
वही गंदगी में पेड़े बन रहे थे जिन्हें मथुरा की शान कहा जाता है. मंदिर के सामने ही दो पंडो में लड़ाई हो गई. कारण थी दक्षिना.. कोई भी भक्त मंदिर से नीचे उतरे तभी उसे 12-15 लोग घेर लेते हैं. हट्टे-कट्टे दूध-घी खाए हुए लोग. दक्षिना मांगने के लिए. मंदिर के सामने ही एक दूसरे की मां-बहन को इज्जत दी जा रही थी. लोग खड़े होकर तमाशा देख रहे थे और जिन्हें जल्दी थी उसी संकरी गली से होकर गुजर रहे थे.
खैर, किसी तरह टेम्पो में बैठकर वृंदावन पहुंची. यहां रास्ते थोड़े सुनसान ज्यादा थे. लोग कम दिख रहे थे. गर्मी से हालत खराब थी, लेकिन एक चीज थी कि यहां कुछ लोग सफाई कर रहे थे. कम से कम गलियां तो साफ थीं, स्थानीय लोगों ने राधे-राधे कहकर चश्मा उतारकर रख लेने को कहा. कारण ये कि बहुत से बंदर थे. मिलनसार लोगों का ये बर्ताव भी अच्छा लगा. बांके बिहारी मंदिर की गली भी उतनी ही संकरी थी. उसी गली पर दो गाय विराजमान थीं. अब गाय को तो कुछ कह नहीं सकते थे गऊ माता की मर्जी उन्हें थोड़ी कह सकते हैं कि गली संकरी है. बस फिर क्या किसी तरह से बचते-बचाते आगे बढ़ गई. मंदिर के पास वाले घर की नाली टूटी हुई थी तो किस तरह का नजारा दिखा होगा उसका वर्णन यहां नहीं किया जा सकता. पर वहां आस-पास के लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ रहा था. वो तो मजे से दोपहर का मजा ले रहे थे.
गली के मुहाने पर बाजार था और वहां भी वही मथुरा वाला हाल. एक बार सोचकर थोड़ा बुरा लगा कि यही वो जगह है जहां बहुत से विदेशी आते हैं. भगवान पर चढ़े फूलों का कचरा तीन चार दिन से वहां पड़ा होगा. उसे भी शायद यमुना में प्रवाहित कर दिया जाएगा या फिर किसी नाले में डाल दिया जाएगा. गलियों में नालियों के पास कई लोग बैठे हुए थे. जब उनसे मंदिर की सफाई और नाली के बारे में पूछा तो एक का जवाब था ये इस्कॉन मंदिर थोड़ी न है, यहां तो ऐसा ही चलता है. असली जिंदगी के बीच. उनसे पूछा कि इतनी गंदगी में क्या वो बीमार नहीं पड़ते तो जवाब था बीमारी अजारी तो चलती रहती है.
शहर में कुछ जगह विदेशी सैलानी भी थे. एक नाले के पास से गुजरते हुए उन्होंने अपने मुंह पर कपड़ा रख लिया. एक दो मास्क लगाए हुए थे. ये नजारा देखकर लगा कि आखिर क्या छवि बनती होगी इनकी नजरों में भारत की? मंदिर तो उसी जगह पर है, लेकिन क्या सरकार इन प्रसिद्ध मंदिरों के आस-पास की जगह भी रोजाना साफ नहीं करवा सकती? खैर, मंदिरों का छोड़िए यमुना नदी का क्या हाल है ये तो सभी को पता है.
मथुरा और वृंदावन की गलियों में कई मंदिर देखे. एक तो ऐसा था कि सिर्फ शिवलिंग आधी गिरी हुई दीवार के पास था. उसके पास से पानी बह रहा था. लोगों ने वहां भी पूजा की हुई थी, लेकिन उसे साफ करने की जिम्मेदारी शायद किसी की नहीं थी. हां चाहें बांके बिहारी का मंदिर हो या फिर मथुरा का द्वारकाधीश .. कम से कम परिसर के अंदर थोड़ी सफाई थी.
पर एक बात सोचने वाली है कि आखिर ये आस्था किस ओर ले जा रही है? मंदिर बनवाने के लिए इतना बवाल होता है. धर्म के नाम पर कुछ भी कहने से लोगों की भावनाएं आहत हो जाती हैं, लेकिन जहां पहले से ही मंदिर हैं, लोग हैं वहां क्यों ऐसा नजारा देखने को मिलता है? लोग तो गंदगी और बदबू से साथ जीना सीख चुके हैं, लेकिन क्या छवि पेश कर रहे हैं दुनिया के सामने? आस्था मेरे मन में भी है, उतनी ही श्रद्धा से हर रोज पूजा करती हूं, लेकिन क्या अपने घर का मंदिर भी इसी तरह रखते हैं हम?
vrindavantoday.org में जौशुआ नॉश ने अपने आर्टिकल Vrindavan, the Human Sanctuary में ये लिखा है कि ये शहर जिसे तीर्थ माना जाता है उन सबसे गंदी जगहों में से एक है जहां वो गए हैं. हर मंदिर, हर गली में गंदगी. लोग इसे आम बात मानते हैं, लेकिन क्या ये इतनी आम है? फिर क्यों मंदिर और मस्जिद के नाम पर लड़ाई चल रही है? एक और मंदिर बन जाएगा, एक और मस्जिद बन जाएगा और फिर उसे भी शायद इसी गंदगी का शिकार होना पड़ेगा.
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