साहित्य अकादमी अवॉर्ड लौटानेवालों में 'नत्था' कितने?
पुरस्कार लौटाने का दौर शुरू हुआ तो नत्था की खोज शुरू हो गई. ज्यादातर तो शिकंजे से बच निकले लेकिन कुछ एक चपेट में आ ही गए.
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नत्था. फिल्म पीपली लाइव का ये किरदार पर्दे पर मर गया था. मरा क्या, मार दिया गया था. फिर भी, आए दिन, कहीं न कहीं 'नत्था' नजर आ ही जाता है. कहीं परोक्ष रूप से तो कहीं प्रत्यक्ष तौर पर. साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने का दौर शुरू हुआ तो नत्था की खोज शुरू हो गई. ज्यादातर तो शिकंजे से बच निकले लेकिन कुछ एक चपेट में आ ही गए.
विरोध का बिगुल
विरोध की ये अलख जगाई हिंदी के जाने माने साहित्यकार उदय प्रकाश ने. सबसे पहले उदय प्रकाश ने ही कन्नड़ साहित्यकार और विचारक एमएम कलबुर्गी की हत्या के विरोध में साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने की घोषणा अपने फेसबुक पेज पर की. अपनी फेसबुक पोस्ट में उदय प्रकाश ने कहा, "मैं साहित्यकार कलबुर्गी की हत्या के विरोध में साहित्य अकादमी पुरस्कार को विनम्रता लेकिन सुचिंतित दृढ़ता के साथ लौटाता हूं." उदय प्रकाश को 2010-11 में उनकी कृति 'मोहन दास' के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया था.
कितने 'नत्था' बने
उदय प्रकाश की घोषणा पर कुछ दिन तक तो सब कुछ सामान्य रहा लेकिन बाद में साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने की होड़ मच गई. धीरे धीरे नयनतारा सहगल, अशोक वाजपेयी जैसे कई नाम इस फेहरिस्त में जुड़ते गए. हिंदी पट्टी में भी उदय प्रकाश और वाजपेयी के अलावा राजेश जोशी और मंगलेश डबराल ने भी पुरस्कार लौटाने की घोषणा कर दी.
अकादमी पुरस्कार लौटाने का मुद्दा पूरे देश में छाया हुआ था पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में कोई हलचल नहीं हो रही थी. कानाफुसी से शुरू हुआ सिलसिला टेली काउंसलिंग का रूप लेता गया. चर्चा ये होने लगी कि हिंदी की इतनी सम्मानित पीठ बनारस से विरोध के नाम पर आखिर खामोशी क्यों छाई हुई है.
पुरस्कार लौटाने को लेकर मीडिया से बातचीत में ज्ञानेंद्रपति पहले ही व्यक्तिगत तौर पर अनिच्छा जता चुके थे. ऊपर से नामवर सिंह ने साहित्यकारों को पुरस्कार न लौटाने की सलाह दे दी. नामवर सिंह का तर्क था कि चूंकि यह पुरस्कार उन्हें सरकार नहीं बल्कि साहित्य अकादमी द्वारा दिया जाता है इसलिए लौटाने का कोई मतलब नहीं बनता.
बनारस में धीरे धीरे माहौल ऐसा बनने लगा कि काशीनाथ सिंह घिरा हुआ महसूस करने लगे. काशीनाथ सिंह का एक पुराना बयान जोरदार खंडन के बावजूद उनका पीछा नहीं छोड़ता. लोक सभा चुनाव के दौरान मार्च 2014 में काशीनाथ सिंह ने बीबीसी को एक इंटरव्यू में कहा था, “धर्म और जाति को अबकी मुझे लगता है बनारस की जनता ठेंगा दिखाएगी और कहीं न कहीं मोदी के पक्ष में लोग जाएंगे.” इस पर साहित्य जगत में तीखी प्रतिक्रिया हुई और फिर उन्हें सफाई देकर अपना स्टैंड क्लिअर करना पड़ा.
पुरस्कार लौटाने की खबरों के बीच लोग काशीनाथ सिंह के साथ भी इस मुद्दे पर चर्चा कर लिया करते. चर्चाओं में वामपंथी संगठनों के लोग भी हुआ करते थे. विचार विमर्श और मंथन से लेकर आत्मचिंतन के दौर चलते रहे. तभी अचानक कुछ लोगों ने काशीनाथ सिंह का फोन उठाना बंद कर दिया. पहले तो उन्होंने इसे सामान्य बात मानी. जब किसी ने कॉल बैक नहीं किया तो थोड़े चिंतित हुए, लेकिन जब एसएमएस का भी रिप्लाई नहीं मिला तो वो परेशान हो उठे. हालांकि, बाकी लोगों से रोजमर्रा की चर्चाएं वैसे ही चलती रहीं.
जब चौतरफा नैतिक दबाव बढ़ने लगा तो काशीनाथ सिंह ने प्रेस कांफ्रेंस बुला कर साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने की घोषणा कर दी. काशी नाथ सिंह को उनके उपन्यास 'रेहन पर रग्घू' के लिए 2011 में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था.
जैसे ही काशीनाथ सिंह ने घोषणा की फोन पर बधाइयों की बौछार होने लगी. फोन उनके भी आए जिन्होंने एसएमएस के जवाब से भी परहेज किया था. इतना ही नहीं, लगे हाथ 'काशी के अस्सी' के साहित्यिक संस्थापक के नाम पर 'काशीनाथ फाउंडेशन' बनाने की भी घोषणा कर दी गई.
बगैर लौटाए विरोध
देश में बढ़ती असहिष्णुता के खिलाफ अब तक लगभग तीन दर्जन साहित्यकार साहित्य अकादमी अवॉर्ड लौटा चुके हैं. विरोध मार्च और मुखालफत के ऐसे दूसरे तरीकों का सिलसिला जारी है. विरोध का विरोध करनेवाले भी सुर्खियों में छाए हुए हैं. सरकार कभी इसे मैन्युफैक्चर्ड विरोध तो कभी बनावटी बगावत बता रही है. पहले साहित्यकार, फिर फिल्मकार और अब तो इतिहासकार भी इस मुद्दे पर लामबंद होने लगे हैं.
विनोद कुमार शुक्ल इनमें ऐसे साहित्यकार रहे जिन्होंने विरोध के लिए अलग रास्ता अख्तियार किया. शुक्ल ने कहा, ‘‘मैं साहित्य अकादमी पुरस्कार को सलीब की तरह ढोता रहूंगा... जब तक मैं इसे वापस नहीं करुंगा. अकादमी का सम्मान ‘फिलहाल' लौटा नहीं रहा हूं. यह सम्मान कोई उधार तो है नहीं, जिसे लौटाया जाए''.
1999 के साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता शुक्ल का कहना था, ‘‘जिन कारणों से यह सम्मान वापस किए गए हैं उन कारणों के साथ मैं भी हूं. मैं निंदा करता हूं और मानता हूं कि तरह-तरह की कट्टरता के कारण हत्या तक हो जाती है. इसे बंद किया जाना चाहिए''.
बात प्रधानमंत्री तक पहुंचे इसके लिए बनारस के अस्सी घाट पर 1 नवंबर को प्रगतिशील लेखक संघ की ओर से एक हस्ताक्षर अभियान का आयोजन किया गया, जिसका स्लोगन रहा - 'एक दस्तखत प्रतिरोध के लिए'. प्रगतिशील लेखक संघ, उत्तर प्रदेश के महासचिव डॉक्टर संजय श्रीवास्तव के अनुसार ये आयोजन मौजूदा व्यवस्था में बढ़ती असहिष्णुता को लेकर असहमति भरा 'क्षोभ' जताने का प्रतीक था.
क्या काशीनाथ सिंह को उनके करीबियों ने नत्था बना दिया?
इस सवाल पर डॉक्टर श्रीवास्तव की हंसी फूट पड़ती है, फिर कहते हैं, "पुरस्कार लौटाया जाना निहायत ही निजी मामला होता है - और इन मामलों में किसी बाहरी दबाव का कोई असर नहीं होता."
फिर हंसी रोक कर चेहरे पर गंभीरता लाने की कोशिश करते हैं. "अश्वत्थामा मरो नरो वा कुञ्जरो". हकीकत और फसाने में फर्क जो भी हो, खामोश चेहरे पर भी एक बयान जरूर होता है.
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